हाँ मैं लिखती रहूँगी प्रेमगीत ,
प्रेम में विरह गीत
विरह में जिजीविषा ,
जिजीविषा में आत्मालाप ,
आत्मालाप में क्रांति ,
क्रांति में परिवर्तन ,
परिवर्तन में संस्कृति ,
संस्कृति में समाज
समाज में मानव
,मानव में स्त्री,
स्त्री में प्रेम
और प्रेम में तुम और मैं
,हाँ मैं लिखती रहूँगी प्रेमगीत गीत
,तुम्हारे और अपने ,
मिलने बिछड़ने फिर कभी न मिलने
और फिर कभी न बिछड़ने के ,
तुम मेरे पास हो और मैं तुम्हारे पास
,तुम नहीं हो तुममें ,
मैं नहीं हूँ मुझमें
,मेरे लिये तुम्हारा होना जरूरी है ,
तुम्हारे लिये मेरा होना ,
मैं नितांत देह नहीं हूँ
तुम नितांत आत्मा नहीं हो
,देह और आत्मा के लिये
,प्रेम और विरह के लिये तृषा और तृप्ति के लिये
पदार्थ और चेतना के लिये
अंतत:कार्बन और आॅक्सीजन के लिये
शर्करा और वसा के लिये
हिग्स बोसोन और गाॅड पार्टीकल्स के लिये
नवीन सृष्टि और समष्टि के लिये
मेरा तुमसे दूर हो जाना ,तुम्हारा मुझसे दूर हो जाना नियत है ,
और नियत है उस प्रेम का तत्वरूप होकर
आदिनाद में महानाद
कंठों में सप्तक
और देह में प्रलयपीड़ा हो जाना ,
हाँ मैं लिखती रहूँगी प्रेमगीत
तुम्हारे अरूप अमूर्त होने
और अपने अनअस्तित्व होने के हर पल के क्षरण पर
षडज ऋषभ गान्धार मध्यम से निषाद तार सप्तक तक के हर चरण पर
ताकि तुम मेरे लिये मैं तुम्हारे लिये
यह अनूभूति छोड़ जायें ,
मुझे प्रेम है ,तुमसे ,
सृष्टि से ,समष्टि से
पदार्थ में समायी चेतना से
,बिंदु में सामाये नाद से
नाद में समाये आनंद से
आनंद में गूँजती पीड़ा से
,प्रेम की हर क्रीड़ा से ,
हाँ मैं लिखती रहूँगी प्रेमगीत ,
उन बंजारों के लिये
नदी पतवारों के लिये
बजरों और सिकारों के लिये
द्वीपों और धारों के लिये
तोपों और तलवारों के लिये
विहाग और श्रंगारों के लिये
वनवास और दरबारों के लिये ,
ताकि तुम मुझे हर रूप में हर गीत में हर कंठ में सुन सको ,
मुझे भले न पता हो कि तुम हो कहाँ ,
तुम हर समय सुन देख महसूस करते रहो कि मैं हूँ
नृत्यरत लीन गीत में सम्पूर्ण
निनाद में निर्वेद में
आल्हाद में तुम्हारे योग में
अपने वैराग्य में ,
तुम्हारे प्रकाश में अपने आभास में
हाँ मैं लिखती रहूँगी प्रेम गीत तुम्हारे लिये ,
तुम वहाँ हो जहाँ मैं आ नहीं सकती
तुम्हें बुला नहीं सकती
परंतु मैं गा सकती हूँ
तुम्हारी समाधि में तनिक भी व्यवधान डाले बिना
तुमसे प्रेम करती रह सकती हूँ ,
हाँ मैं प्रेमगीत लिखती रहूँगी ।
©®सुधा राजे
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