कविता: सुनहरी चिड़िया का पंख
सुनहरी चिड़िया मेरे कंधे पर एक पंख गिराकर गयी थी मुझे सँभालकर रखना चाहिये था सपने में आकर वह मुझे उस खजाने का पता बताने वाली थी जिससे हल हो जाती जीवन की लंबी रात का पहला सबक ,परंतु मुझे न पंख संभालने की सीख किसी ने दी न मुझे ही कभी समझ आया कि यह चिड़िया हर बार किसी को बस एक ही पर देती है ,जिसने संवार लिया वे जी गये जो नहीं संवार सके फिर हमेशा खोजते ही रह गये जीवन के उस खजाने की कुंजी मेरे पास तो पूरा ही पंख झड़ा था परंतु एक पंख से न मैं उड़ सकती थी न ही उसे कहीं रखने की वजह मेरे पास थी मुझे एक पहेली दी गयी थी जिसका हल था कि पंख रखते ही सारा खजाना मुझे मिलना था किंतु सपने में कुंजी मिलती और मुझे उसके लिये सोना पड़ता मैं सो ही नहीं सकी इसलिये क्योंकि पहले का दूसरा भाग कहता रहा कि यदि मैं सो गयी तो वह चिड़िया मर जायेगी मैं नहीं सोयी तो मुझे जीवन का खजाना गंवाना पड़ेगा ,मैंने चाहा कि चिड़िया जीवित रहे सो मैं बिना खजाने की नींद गंवाकर चलती रही सुनहरा पंख मेरे लिये किसी काम का नहीं रहा मैं उसे चिड़िया के पहले घोंसले के पास ही छोड़कर आ गयी कदाचित किसी को दूसरा पंख किसी दूसरी चिड़िया का मिल जाये और वह बिना सोये ही जीवन के खजाने की कुंजी तक चला जाये ।
काश मुझे एक बार पता चल जाता कि सुनहरे पंखों वाली वह चिड़िया कहीं अब भी गुनगुना रही है ।
मैं शोर भरी इस लंबी रात के बीच भी कुछ शब्द चुन लेती अपनी बात कहने के लिये जिसको कहने से मुझे मालूम है मेरा आधा बचा शरीर पूरा ही पत्थर का हो जाना है ।
पर अब मैं चाहती भी तो हूँ कि मैं हो ही जाऊँ पत्थर मुझसे अब ये कोलाहल सहन नहीं हो रहा है जिसमें न शब्द हैं न गीत न ही मेरे लिये मुट्ठी भर नींद है ।
©®सुधा राजे
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