गद्यगीत: आत्मालाप, जब मैं अपने आप से बातें करतीं हूँ
आत्मा
से अनंत तक
अजीब शोर है
ये शोर मेरे इस देह की कैद में होकर धरती पर आते ही प्रारंभ हो गया था
और मैं चीखी मेरी चीखे शोर में समाहित होकर बढाती रही उसे
दुख से प्रथम मिलन इस शोर के आतंक ने कराया
पता है गर्भ की कैद में भी ये शोर था जो डराता रहा
तब
छटपटाते कटे टुकङे की तरह
मुझमें पहली इच्छा जगी एक छाती भर आलिंगन की
कई दिन कई महीने प्रतीक्षा के बाद बेसहारा मुझे रखा गया तो डर भय आतंक से मैं छटपटा उठी
मुझे गर्भ कैद की दीवारों से जब प्यार हो गया वहीं रहने का अभ्यास हो गया सुख उसी दुख में खोज लिया तब मुझे निकाल फेंका निराभृत निराश्रित
बिलखते रोते मैंने एक बङी कैद के बङे आकारों से तादात्म्य बना लिया और उस कैद में अभ्यस्त होना प्रारंभ कर दिया
वहाँ का शोर तीखे आदेश कटाक्ष और लकीरों पर पाँव जमाकर चलना सीखते मेरे पाँव कान और मन लहूलुहान था जिसे सब प्रेम कहते और बस प्रेम की छवि मेरे नन्हे जेहन में तोतले गीत टूटी कवितायें बन गये
मेरे साथ मेरा प्रेम भी बढता गया
सब अब खयाल रखते कि मुझे किसी से प्रेम ना हो जाये
और दावे करते प्रेम मैं हूँ
लेकिन मैं प्रेम ही से तो बिछुङकर आयी थी मैं प्रेम का ही टुकङा थी
और ये सब शोर छीलने लगा मुझे
जब अभ्यास कर लिया तब जब उन दुखों से तादात्म्य कर लिया
निकाल फेंका मुझे
यह
दुख से मेरा तीसरा महासाक्षात्कार था
फिर
सामने एक आकार स्वर स्पर्श गंध रख कर
कहा
यही तेरा प्रेम है
मैं निराश्रित भयभीत
उस पिंड में प्रेम
खोजने लगी
यह मेरा तीसरा आलिंगन था
लेकिन मैं टुकङा थी प्रेम का
और ये टुकङे नहीं मिले
चीख शोर दुख से चौथा मिलन
जब तादात्म्य होने लगा
मैंने तीखे चित्राक्षरों से भुलाना सीख लिया
मुझे फिर
निकाल फेंका गया
आज
पूरा ब्रह्मांड
ओढ़कर निराश्रित निरावलंब मैं प्रेमखंड
तादात्म्य नहीं बैठा पा रही हूँ इतनी बङी कैद से इतनी चीखों से इतने शोर से
ये दुख से चरम साक्षात्कार
औऱ
मैं अचेत हो रही हूँ
लग रहा है धुँध के पार
कोई है
मेरा विराट रूप
ईश!!!!
ऐ ईश!!! आओ मुझे
परमालिंगन दो
मैं ही प्रेम हूँ
आज
मुझे पता है
मैं ही ब्रह्म हूँ सर्वत्र मैं ही मैं हूँ
©®¶©®
Sudha
Raje
Dta★Bjnr
Comments
Post a Comment