संस्मरण: एक थी सुधा, सुधा विषपायिनी
माँ बहुत याद आतीं हैं जब जब होली आती है ,कई दिन पहले से हम सब लग जाते थे ,पेराखेँ ,गूजा ,गुझियाँ ,पपरियाँ मठरी ,बताशपैनी ,शकरपारे ,गुड़लटा, मगद मोदक ,बरा ,बरी, और बहुत सारे पकवान बनाने में ,बुन्देलखंड में धुलैंडी को तब लोग होली नहीं खेलते थे ,केवल सामान्य गायन वादन होता था ,राख की कीच की होली पहले दिन रहती थी । क्यों ?क्योंकि मणिकर्णिका रानी लक्ष्मीबाई का प्रथम पुत्र धुलैंडी के दिन नहीं रहा और झाँसी अंग्रेजों ने बरबाद तबाह कर दी ,मोरोपंत तांबे को एक जलते हुए मकान में फेंक दिया ,तात्या को फाँसी दे दी और रानी को स्वयं को बाबागंगादास की कुटिया में जोहर करना पड़ा ,
पूरा बुंदेलखंड अंग्रेजों की क्रूरता काशिकार हुआ ,ग्वालियर पुरस्कार का ,तब से दूज को होली खिलती आ रही है और प्रथमा को सब वाहन बंद कर दिये जाते हैं दूज पूजकर तिलक लगवाकर ही चालू होते हैं ""यंत्र कालिका की पूजा हर मशीन पूजा के साथ होती है ।
भाईयों का तिलक पहले बहिनें करतीं हैं तब वे सफेद पोशाक में कोरे कपड़े पहन कर होली खेलने निकलते थे । अब तो लोग पुराने से पुराने में यहाँ दिखते हैं तो जी ही नहीं करता छींटा तक डालने का । होली टोली मुहल्ले के सब कुँवारों की ही होती थी सबकी अनिवार्य सदस्यता थी ,ये लड़के बड़े बड़े ठेलों पर हर परिवार से लकड़ी घास कंडे रुपये ,माँगते
_"ल्याओ माई ऊतरा ,जीबैँ तोरे पूतरा
,
तभी कोई भीड़ में नीचे छिपकर बैठ जाता और चीखता
~~"ल्याओ मताई कंडा ,जीयेँ तुमाए संडा "
~
~
हँसी मजाक नकली क्रोध के बीच ठेले भर भर कर मैदान में जमा होते और रुपयों से रंग मिठाई नारियल पूजन सामग्री गुलाल भांग बादाम पिस्ते काजू किशमिश आते ,
,
होली पूजन मुहल्ले का सबसे बूढ़ा पंडित करता ,बीच में लंबा ध्वज लगता ,दहन के समय सब पूजा करते और आग लेकर घर जाते ,
उस आग पर आँगन में ""छल्ले पिरोये बरबूलों पर आग जला कर बिना तवे की "गकरियाँ बनती ,यानि हथपथी रोटी ,जिनपर घी पोतकर गुड़ के साथ सब प्रसाद लेते ,
,
उधर होलिका जैसै ही ध्वज गिराती पंडितजी शकुन विचार करते ,
,
और प्रारंभ हो जाता ""गा गा कर कुँवारों का गाली देना सब को बिना बड़ा छोटा विचारे ""
,
दूसरे दिन खाट पर होली का राजा गले में जूते सिर पर झाड़ू मुँह पर लाल पीले रंग पहने टाँग कर बारात निकलती ,
,
कोई लड़का लुँगरा फरिया यानि बुन्देली घना घाघरा ओढ़नी पहन कर स्त्री बन जाता और घर घर रंग बाँटते मिठाई प्रसाद बाँटते वह सब चंदे का खरीदा रहता ।
लड़कों की लूट का शिकार खड़ूस लोग होते जिन्होंने चंदा तो दिया नहीं और होली के दिन किवाड़ बंद करके बैठ गये ,उनको जमकर गीत मयी गालियाँ और होली कीचड़ राख के थापे मिलते ,
जिसको साफ करने को अगले दिन मेहतर लोग दुगुने दाम वसूलते ,सब हँसते बस क्या करते ,
बापू को होरी का भयंकर शौक था
,फाग पार्टी कई हजार रुपये देकर तब बुलवाते ,और सैकड़ों गिलास भाँग चलती ,बाद में सबको रुपये देते और मजमा लग जाता दूर दूर तक के गाँवों के नातेदार होरी की हमारे परिवार की फाग पार्टी की सभा देखने आते ,तब ""लेखराज सिन्धी की फाग मंडली बहुत प्रसिद्ध थी और नर्तक स्त्री वेश पुरुष वेश में तबले सारंगी बाँसुरी झाँझ मँजीरा पर जमकर बिलंबित से प्रारंभ होकर द्रुत के चरम तक नाचते ,
,
तब रुपये बरसाना अपमान समझा जाता था थाल में गुलाल के साथ धर कर नजराने दिये जाते ,
,
भाँग चढ़ती तो कोई एक ही धुन में मगन हो जाता ,
,
एक परिवारिक मित्र थे भाई के सहपाठी चुपके से अधिक गटक गए .....
बाद में पूरी रात रोते रहे ,,,दाऊ साब ,,हमाए पाँव बढ़ रए यार कछू करो .....अपने पाँव देखते और रोने लगते ,
हम सब हँसते तो और रोने लगते ,
,
एक बार हमने भाभीसा को चटनी कहकर भाँग चढ़वा दी .....परदों वाले दिन थे तब साड़ी पर भी शाल पहनतीं थी बहुएँ ..... सुबह भाई कह रए ,हद है पागलपन की ,,,,पूरी रात हँसती रही ,,कभी गाने लगती कभी नाचने हुआ क्या है ?हम चुप ,कि ये अधिक हो गया कहीं डाँट न पड़े परन्तु तब असत्भाषण की संस्कृति नहीं थी सो सिर झुकाकर डरते हुये भी सच कह दिया ,
अब पड़ा तमाचा सोचकर चुप थे कि सब हँसने लगे ,
बोले लेओ जू ,जौ भई साँसऊँ की होरी ,,,,
माँ की दूर पास की बहिने आतीं ,बापू का जोकर बन जाता चुपचाप कठपुतली बने रहते कोई बिंदा लगाती कोई काजल कोई चोटी बाँध जातीं कोई लुंगरा फरिया ,बापू को बुरा नहीं लगता परन्तु मौसियों के सामने घिघ्घी बँधी रहती ,बुन्देली संस्कृति में स्त्री को पकड़ना छूना तब तक नहीं था ,पुरुष सिर झुकाए जैसा नचातीं वैसे ही नाचते रहते ,गारीं गातीं तो खिसिया कर मुसकरा देते ।
मौसिया कहती हमाई दुलैया मूँछन वारी ,
और बापू ही नहीं सब पुरुषों का हाल बेहाल बनता । बड़े से हौद में कौन कब डुबो दिया जाये पता नहीं ,
फिर सबको जी भर कर पकवान मिलते । हर रोज रंग पंचमी तक यही रंग चलता ,गीले रंग बंद हो जाते ,
।
एक बार बापू उस बुन्देली होली के धोखे में ऐसे ही चुपचाप एक बृज चंबल की सीमा वाले गाँव में पटेल के घर होली पर चले गये ,पहले सबने जिमाया ,फिर रंग लगाया बापू चुपचाप बैठे रहे जबकि सब पुरुष पराँत थाली सिर पर रखकर भागे ,तभी पाँव पीठ पर लट्ठ पड़ने लगे ,बापू भौंचक्के ये क्या ,असभ्यता है ,अगले ही पल घूँघट वाली बहुयेँ पाँव छूकर बडडी स्त्रियाँ टीका लगाकर रुपयों के साथ मिठाईयाँ दे रहीं थीं ,पिट कुट कर स्वागत की यह होरी जब हम सकबको सिकाई कराने के साथ सुनने को मिली सब लोटपोट हो गए ।माँ का चेहरा इतना कोमल था कि चंदन अबीर लगाते भी लगता कहीं खरोंच न लग जाये ,चाँदी जैसे बाल उनके सचमुच जब तक हो गए तब तक भी हम माँ को ही सबसे पहले पीला टीका लगाते रहे ,माँ गईँ तब से होरी ही गई ,जी ही नहीं करता न गाने का न ही हुरियाने का ©®सुधा राजे शुभ रात्रि
Comments
Post a Comment