लेख: स्त्री, कितनी गाँठें शेष
औरत ही के हिस्से हर मज़हब में सारे दर्द क्यूँ हैं (सुधा राजे )
**********************
तुम नहीं बोलोगी परन्तु मैं सोचती ही रहती हूँ
सोचने से रोका नहीं जा सकता खुद को कहने से चाहे रोक लूँ कि
औरत को क्यों मज़हब
न मुहब्बत का हक़ देता है
न इबादत का
न इबादतखानों में सबके साथ जाकर सफे में ऊपरवाले से गुहार करने
का न ही अपनी पसंद के कपड़े पहनने का
न ही अपनी बात खुलकर कहने का
न ही अपनी पसंद का शौहर चुनने का
ना ही अपनी बिरादरी से बाहर शादी करने का
न ही कोख पर कि बच्चे करे या न करे कितने करे कितने ना करे ना ही औलाद पर हक देता है
न ही जज्बात पर हक देता है
न हालात पर हक देता है
शौहर से ना बनी न सहन हुआ ज़ुल्म तो आज़ाद होने का भी हक नहीं
और शौहर की ताज़िंदगी इकलौती बीबी रह पाने का भी हक नहीं देता ,
ना ही तलाक से बचने का हक देता है
ना तलाक के बाद बरसों बरस तिल तिल कर तामीर किये शौहर के घर में रहने
और अचानक जवानी औलाद शरीर की ताकत खतम होने के बाद मिले तलाक के बाद
परदों में बंद गुजारी जिंदगी को रोटी कपड़ा मकान सर सामान दवाई देखभाल का हक देता है ।
एक शरीर का बरतने का खरचा लिखा जाता है
एक कागज के टुकड़े पर सो भी मुआफ करा लिया जाता है
मुहब्बत का वफा का इम्तिहान लेने के नाम पर शबे तख्त वाली रात
और बिना खरचा चुकाये ही बीत जाते हैं सालों साल
केवल इस लिये जुल्मतों के बीच कई बार तलाक नहीं दिया जाता कि
तलाक देने पर वह तयशुदा खर्च चुकाना पड़ेगा
और बाप के घर से आया सामान लौटाना पड़ेगा ,
कई बार रकम और सामान तो लौटा दिया जाता है
पर क्या कभी लौटते हैं जवानी के दिन
फिर से बनने सँवरने का हौसला ,
वो दमखम वो हुस्न दिल में फिर ज़ीने के जज़्बात
कब रह जाती है अपनी कोख में ढोयी पाली पोसी औलाद अपनी शै ,
और दिल से रेज़ा रेज़ा जोड़ी दुनियाँ छीन लेने का हक
मर्दों के लिये क्यों है पहले से ही तै ©®सुधा राजे
Comments
Post a Comment