Friday 5 September 2014

सुधा राजे की गजलें

हर एक शख़्स मोहब्बत का दम
नहीं रखता।
दर्द आमेज़ राह पर क़दम नहीं रखता ।
वो एक शै कि जिसे इश्क़ कहा करते हैं ।
ख़ुदा के बाग़ में हव्वा अदम नहीं रखता।
जिसे है कुछ भी तमन्ना ज़हां में पाने की।
वो अपने दिल में युँ क़ाफ़िर सनम
नहीं रखता।
ये लौ है ऐसी बुझाओ तो औssर भङके है ।
विसाले यार की हसरत ये ग़म
नहीं रखता ।
कहाँ वो शख़्स जिसे
ज़िन्दग़ी सुधा समझा।
हमारे मर्ग़ पे भी आँख नम नहीं रखता।
वफ़ा की ज़िद में कोई आग़ से नहाये ज्यूँ ।
दुआ को जिसके कोई है वहम नहीं रखता ।
©®सुधा राजे

मैंने सबकुछ दाँव लगाकर
हारा जिसको पाने में ।।
वही इश्क़ लेकर आया अब दर्दों के मयखाने
में ।।
दिल पर ऐसी लगी ,कि सँभले बाहर,,
भीतर बिखर गये ।।
पूरी उमर गँवा दी हमने बस इक घाव
सुखाने में ।।
अक़्सर बिना बुलाये आकर
जगा गयीं पुरनम यादें ।। दर्द
रेशमी वालिश रोये पूरी रात सुलाने में
।।
अपना बोझ लिये गर्दन पर कब तक ज़ीते
यूँ मर गये ।।
एक ज़नाजा रोज उठाया ।
अपने ही ग़मखाने में ।।
ता हयात वो खलिश नहीं गयी चार लफ्ज़
थे
तीरों से ।।
जलते थे औराक़ लबों पर जलती प्यास
बुझाने में ।।
आहों के अंदाज़ दर्द के नग्मे खुशी भर
गाता
।।
कितने दरिया पिये समंदर । दिल -
सहरा को बहलाने में ।। नदी रेत में
चली जहाँ से
भरी भरी छलकी छलकी ।।
सबको मंज़िल मिले नहीं था ये आसान
ज़माने में ।।
शायर जैसी बातें करता पागल कमरे के
अंदर ।।
ले गये लोग शायरी पागल फिर
भी पागलखाने में ।।
कभी यहीँ पर एक रौशनी की मीनार
दिखी तो थी ।।
हवा साज़िशे करती रह
गयी जिसको मार गिराने में । ।
मर मर कर ज़िंदा हो जातीं प्यासी रूहें
रात गये ।।
सब आशोब तराने गाते है
डरना बस्ती जाने में ।।
हाथ न छू इक ज़मला बोली
"""ये मेंहदी है जली हुयी""" ।। मौत मेरे
दरमियाँ कसम है तुझको गले लगाने में।
मुट्ठी में भर आसमान ले बाहों में
जलता सूरज ।
सुधा चाँद की नींद खुली तो टूटे ख़ुम
पैमाने में
©®¶©®¶
सुधा राजे
sudha Raje
पूर्णतः मौलिक रचना सर्वाधिकार
लेखिका सुधा राजे बिजनौर /दतिया



सूख रहे ज़ख़्मों पर नश्तर - नमक लगाने आते
हैं।
भूल चुके सपनों में अपने से आग जगाने आते हैं।
किसी बहाने किसने कैसे कितनी कट
गयी कब देखा
बची हुयी दर्दों की फसलें लूट चुराने आते
हैं ।
उफ् तक कभी न की जिन होठों से पी गये
हालाहल सब ।
सुधा उन्हीं पर गंगा जमुना सिंध बहाने
आते हैं।
आज़ न बहे जो गूँगे आँसू दरिया आतश
का अहबाबों अलविदा ज़माने बाँध
गिराने आते
हैं ।
एक लम्स भर
जहाँ रौशनी ना थी वहीं ग़ुज़र कर ली ।
हमको तिनके तिनके मरकर अज़्म बनाने
आते
हैं।
कौन तिरा अहसान उठाता खुशी तेरे
नखरे ।
भी उफ्
हम दीवाने रिंद दर्द पी पी पैमाने आते
हैं ।
आबादी से बहुत दूर थे फिर भी खबर
लगा ही ली ।
कोंच कोंच कर दुखा दिया फिर
दवा दिखाने आते हैं। वीरानों की ओर ले
चला मुझे नाखुदा भँवर भँवर।
जिनको दी पतवार वही तो नाव डुबाने
आते हैं।
अंजानों ने मरहम दे घर नाम न पूछा मगर
हमें ।
जानबूझ कर डंक चुभोने सब पहचाने आते हैं

मासूमी ही था कुसूर बस औऱ्
वफ़ा ही गुनह मिरा।
हमको सिला मिला सच का ग़म यूँ समझाने
आते हैं।
©सुधा राजे ।

कि जैसे छू लिया तूने ।
हवा शरमायी सी क्यूँ है ।
ख़ुमारी तेरी आँखों में अभी तक
छायी सी क्यूँ है ।
बहुत संज़ीदग़ी से बर्गो -शाखो-ग़ुल
को छूती है।
चमन में आई तो तेरी तरह
अलसायी सी क्यूँ है।
नज़र लब ज़ुल्फ़ सब इतने इशारे ये तबस्सुम
क्यूँ ।
लगे तेरी तरह मयनोश ये घबरायी सी क्यूँ
है । ।
बहक़ कर लग्जिशे पा फिर सँभल कर
गुनगुनाती सी ।

अदा भी है अदावत भी ये यूँ अँगङाई
सी क्यूँ है।
सुधा वो शोख बातें सरसराती गोशबर
ख़ुशबू ।
तेरे आग़ोश में ग़ुम कसमसाती आई सी क्यूँ है।

©सुधा राजे Sudha Raje

आग के फ़र्श पे इक रक़्श किये जाती है ।
दर्द को रिंद के मानिंद पिये जाती है ।
इक जरा छू दें तो बस रेत
सी बिखरती है ।
एक दुल्हन है जो हर शाम को सँवरती है ।
एक शम्माँ जो अँधेरों को जिये जाती है ।
दर्द रिंद के मानिंद पियेजाती है । कुछ
तो सीने में बहकता है दफ़न होता है । आँख
बहती भी नहीं बर्फ़ हुआ सोता है ।
तन्हा वादी में छिपे राज़ लिये जाती है

दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है

जो भी मिलता है धुँआ होके सुलग जाता है

इश्क़ है रूह है आतश में जो नहाता है ।
अपनी ही धुन में वो शै क्या क्या किये
जाती है ।
दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है

सख़्त पत्थर की क़लम है कि वरक़ वहमी हैं

कितनी ख़ामोश जुबां फिर भी हरफ़
ज़ख्मी हैं

ज्यों सुधा दश्त-ए-वहशत में दिये बाती है

दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है
©®सुधा राजे


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