स्त्री और समाज: गुन पारखी या मांस पारखी???

किसी स्त्री को ""मोटी ""कहना शर्मिन्दा करने
के आशय से एक भयंकर दोष है अपमान है
और सामाजिक बुराई है ।
देखा कि विवाह समारोह में आये
तमाम पुरुषों की तोंदें काबू से बाहर
थीं और सिर पर गिने चुने बाल थे
अकसर तीस तक आते आते ""खिज़ाब
""की शरण में थे ', चालीस तक आते आते
अनेक महानुभावों की दो या दो से
अधिक दाढ़े ''डेन्टिस्ट
को प्यारी ""हो चुकीं थी और पचास
तक के बहुत सारे महाशय ""मधुमेह
""की छत्रछाया में शक्कर आलू चावल
पत्नी से सन्यास ले चुके थे ',
फिर भी ""बहुत ""कम सत्य सज्जन ऐसे
थे जिन्होंने ""दावत में भोज कर
रही महिलाओं के मोटापे "आयु "मेकअप
"खुराक "बातचीत "और पति पत्नी के
मैच "
को तौहीन व्यंग्य कटाक्ष और भद्दे
मज़ाक का विषय नहीं बनाया!
ये है भारतीय सोच मध्यमवर्गीय उच्च
मध्यमवर्गीय और संपन्न समाज की ।
स्त्री?
मतलब ता ज़िन्दग़ी "एक काँच
की गुङिया सी नाज़ुक छुई मुई
षोडशी भर है क्या??????
विवाह के पूर्व और पच्चीस की आयु
तक या ""माँ ""ना बनने तक अकसर
स्त्रियाँ ''छरहरी ही रहतीं है
"मीठी आवाज और फुर्तीला बदन ',
किंतु विवाह होते ही
भारतीय "विवाहिताओं को जिस
तौर तरीक़े से जेल की तरह ससुराल में
ठूँस कर ""कैदे बामश्क्कत मुफ्त कराई
जाती है और अमूमन स्त्री चार से
पाँच बार तक गर्भ धारण करती है
भले ही दो या तीन संतान रहें गिनने
को फिर बार बार गप्भपात और
प्रसवोपरान्त पूरे नब्बे दिन
का विश्राम दिये बिना ही चूल्लहे में
झोंक दिया जाना ना कभी जिम जाने
की मोहलत ना कभी घर में दो घंटे
सुबह शाम टहलने जाने की संग साथ
इज़ाजत ', दिनभर बच्चे पति ससुराल
वालों की ही साधने में यौवन
की सुबह शाम बीत जाती हैं और जब
बच्चे हाईस्कूल तक पहुँचते है
तो बचता है ""रोटियाँ बेलने झाङू
पोंछा बरतन कपङे सिलाई बुनाई
कढ़ाई गेंहू चावल मालिश पानी पौधे
करते करते हो चुका ""सर्वाईकल
सपॉण्डुलाईटिस "कमर
पिंडली तलवों के दर्द और मासिक
की गङबङियाँ बच्चेदानी की समस्यायें
', माईग्रेन ऑस्टियोपोरोसिस
या ऑर्थॉराईटिस या गाऊट्स
या स्लिपडिस्क
या एनीमिया "डिप्रेशन
या हाईपरटेंशन या थायराईड्स
टांसिलाईटिस ',
और अल्जाईमर आदि ',
बज़ाय बढ़ती आयु के मुताबिक
स्त्री की यथा स्थिति का सम्मान
करने के "साशय '"फूहङपन से उसके
कैशोर्य यौवन ', की खोज प्रौढ़
या वृद्ध शरीर में करके
तुलना करना ', क्रूर अपराध है ',ये
विवश करता है स्त्री को सामाजिक
समारोह से ज़ी चुराने या अनावश्यक
तनाव पालकर खुद को फिट और सुंदर
बनाने के निर्थक श्रम के लिये!
कवि लेखक पत्रकार तक ""खुद
की तोंद टांट सलवटें "नहीं देखते
बस मोटी स्त्री का "भैंस "तक से
साम्य करके मज़ाक बनाने लगते हैं ।
ये घटिया मानसिकता है ।
है क्या कि ""छटाक "भर की औरत रहे
तो किशोर प्रोढ़ बूढ़े जवान किसी के
भी काबू में रहे ',लेकिन "बलिष्ठ
य़ा भारी स्त्री सस्ता शिकार
नहीं हो सकती ',सो एक हौआ बनाये
रखा जाता है "तन्वंगी "पतली नाज़ुक
कमज़ोर स्त्री बनो और सुंदर कहलाओ!
स्त्री के वजन बढ़ने मोटे हो जाने और
अकसर फिटनेस दुबारा हासिल
ना कर पाने की सैकङों वज़ह हैं
बाज़िब और विवशतायें भी ।
किंतु पुरुष तो अकसर मोटे होते
ही ""आलस और ओवर ईटिंग शराब और
बैठे रहने की वज़ह से हैं।
रहा भोजन तो पीठ पर कोई
नहीं बाँधता सब पेट में डालते हैं ।
पुरुष भी कम चटोरे पेटू खाऊ गपोङे
और चुगलखोर नहीं होते।
बात सिर्फ इतनी है
कि स्त्रियों पुरुषों की खिल्ली उङाने
का समय नहीं ।
बेचारी लक्ष्मीभाभीजी रुआँसी होकर
भीतर जा बैठी।
भूखप्यास नींद तो काया की जरूरत
है।
कोई मोटू तोंदू महीने भर उपवास करे
तो मर भले जाये इक्कीस
सालिया बदन तो नहीं ही मिलेगा।
भारी शरीर की स्त्री भी अगर
दो जून भोजन ना करे तो अशक्त
हो जाये।
हम निन्दा करते हैं ऐसे
असभ्यों की जो स्त्री की काया पर
व्यंग्य या बदज़ुबानी करते हैं
©®सुधा राजे

Comments