सुधा राजे का लेख :- ग्राम्यजीवन और शाकाहार ::-- पुनः करें विचार

ग्राम्यजीवन और शाकाहार,
पुनः करें विचार
(सुधा राजे ',का लेख)
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आप चाहे किसी भी धर्म से हों या किसी भी क्षेत्र से 'प्रकृति के प्रति
आपका दायित्व कम नहीं हो जाता केवल इसलिये कि आपका मजहब आपको माँसहार की
आज्ञा देता है, विज्ञान की तमाम शोधों के बाद यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका
है कि पृथ्वी पर पर्यावरण संतुलन बुरी तरह बिगङ रहा है ।और इसके बिगङने
के पीछे सबसे बङा कारण है मानव का लालची स्वभाव, 'पशुओं का जीवन
अन्योन्याश्रित होता है ।आप कभी डिस्कवरी चैनल देखते होगे तो यह साफ समझ
में आता है कि हिंस्र कहे जाने वाले पशु भी केवल बहुत भूख लगने पर ही
शिकार करते हैं और पेट भरा होने पर माँसाहारी और तृणपत्र जीवी सब एक ही
मैदान जलाशय में आमने सामने विचरते आराम करते रहते हैं ।किन्तु मनुष्य?
वह तो भूखा न होने पर भी हर रोज पूरे विश्व में बङे पैमाने पर हिंसक रहता
है पशुओं के प्रति भी और प्रकृति के प्रति भी!!! मनुष्य ने एक तो वैसे ही
अपनी देह और परिवार की आवश्यकता की तुलना में बहुत बहुत बङे मकान इमारतें
सङकें बनाकर जंगल के जंगल साफ कर डाले जिससे अनेक पशु तो पहले ही लुप्त
हो चुके हैं ।अब जो बचे खुचे हैं उनको वह चमङे माँस और हड्डी रोयाँ और
खून प्राप्त करने के लिये रोज मारता रहता है । समंदर के जलजीव इतने खाये
किवअब मोती वाली सीप का होना दुर्लभ हो गया, जंगली पशुओं का रोमांच के
लिये इतना आखेट किया कि शेर चीते और सिंह दुर्लभ हो गये, ।
समय के साथ हर चीज का संशोधन होता रहता है, मनुष्य ने खेती और बागवानी
जबसे सीखी है 'तब से जंगल ही मिटते गये, और पशुओं के रहने कि लिये बहुत
कम जगह रह गयी, ये भी तेजी से फर्नीचर और टिंबर की जरूरत के अलावा ईधन के
लिये बहुत तेजी से खत्म की जा रही है ।यही वजह है कि आज "वननर "यानि बंदर
नगरों में ही रहने लगे हैं और जंगल के करीब के गाँवों में हिंसक पशु
शिकार करने लगे हैं मनुष्य का । नदियाँ पहले ही नगरों का मलमूत्र गटर
सीवर मिलों का गंदा नाला और नगर भर का कचरा डालकर प्रदूषित की जा चुकी
हैं ।ऊपर से बाँध बनाकर नदी के प्रवाह रोक दिये गये हैं ।तो जंगली पशु
प्यास के कारण जब बेहाल होते हैं तो नगरों गाँवों की तरफ भागते हैं और
हमलावर समझकर मार डाले जाते हैं ।
मनुष्य मावव चोरों से रखवाली के लियेअनुपयोगी जानवर जो रोटी बिसकुट खाता
है दूध पीता है ऐसा कुत्ता पालता है!!!! और गाय भैंस बकरी भेङ ऊँट जो
गरम वस्त्र दूध और मावा पनीर दही घी माखन मट्ठा छाछ क्रीम मिल्कपाउडर '
और अनेक तरह की मिठाईयों के लिये 'खोआ देते है उनको खा जाता है???
कल जिस भारतदेश में दूध दही घी घर घर मामूली बात थी आज 'वहीं ईदुलफित्र
पर शीर और खीर बनाने को ""तीन सौ चार सौ रुपये वीटर पर भी दूध नहीं
मिलता!!!!!!
जिस भारत में घर घर मेहमानों को दूध का आधी लीटर वाला गिलास और गुङ देकर
स्वागत किया जाता था 'बच्चा भोर ही माखन रोटी माँगता था हर व्यक्ति की
थाली में घी चुपङी रोटी होती थी "अगर घी कदाचित नहीं लग पाया तो उसे
"रूखी सूखी "रोटी कहकर दुःख दिखाया जाता था ''आज लगभग अमीर गरीब सबकी
रोटी ही "रूखी सूखी हो चली है!!!!
आज चावलों में घी नहीं पङता तेल से छौंकना मुहाल है दाल घी को तरस गये
हैं बच्चे!!! अकसर आधुनिक परिवारों में तो 'घी कभी आता ही नहीं गरीब की
तो फिर कहनी ही क्या है!!
हलवाईयों के घर जाकर देखें तो अधिकांश मिठाईयाँ "नकली "मावा नकली बेसन
नकली घी नकली पनीर और नकली दही से बनने लगी है ।
लोग अब दीवाली दशहरे राखी होली गणेश पूजा, शिवरात्रि पर भी मिठाई खरीदने
से कतराने लगे है ',ये उस देश का हाल है जिसमें कोई राहगीर भी पानी पीने
घर के द्वार पर ठहर जाता तो हमारी दादी नानी काँसे पीतल की थाली में चार
लड्जू चार पेङे रखकर कँसकुट के लोटे और फूल के गिलासों में जल भिजवातीं
थी!!!!! बिना मिठाई मुँह में डाले कोई मेहमान पानी पीता ही नहीं था!!!
आज बच्चों के जन्मदिवस पर सौ दो सौ ग्राम का केक और नन्ही नन्हीं चॉकलेट
टॉफी ही मिठाई की जगह बङी नेमत बन गया है!!!
उसपर भी क्या भरोसा है कि केक में चॉकलेट में मिला क्या क्या है?
नवजात बच्चे जिनकी माता की छाती में दूध नहीं उतरा क्योंकि नौ माह तक
माता गर्भिणी को दूध दही पोषाहार मिला ही नहीं रक्ताल्पता की शिकार है तो
"नवजात शिशु क्या पीये??? पशु तो खा गये माँसभक्षी और बाजारवादियों ने
मिलावटी मिल्क पाऊडर बाजार में "दूध के नाम पर बेचना शुरू कर दिया!
आखिरकार मिल्क पाऊडर भी तो दुधारू पशुओं के दूध से ही बनेगा न? अगर एक
देश में हरा चारा और पत्ती है तो वहाँ बहुत से पशु लगभग हर घर में एक गाय
एक भैंस एक बकरी पाली जा सकती है तो ',जिन देशों में चारा नहीं वहाँ के
बच्तों बूढ़ों जवानों को डिब्बाबंद दूध और दूध से बने पदार्थ निर्यात
किये जा सकते हैं । माँसाहार जिन मानवों के लिये अंतिम आहार नहीं है मतलब
जब कि वे अन्न फल सब्जी दूध सब खाते ही हैं तब तो, उनका चटोरापन ही कहा
जायेगा न!!!! वनवासी भी जो कंदमूल और बाँस वृक्ष के तने और पत्ते खाते
हैं माँस को अंधाधुंध नहीं खाते, मजबूरी होने पर विकल्प न होने पर भी
क्या भूख से बेहाल पिता माता बङा भाई बहिन अपने ही बच्चों को नरम नरम
ताजा गोश्त और खून हड्डी के लिये खा सकते हैं? नहीं क्योंकि वे नरनारी के
अपने बच्चे है, तो लहू माँस खून की चटोरी के लिये हँसते किलकते किसी
मेमने बछङे कटङे पाङे या पशु की हत्या क्यों? क्या भूख से मरने की स्थिति
रह गयी थी?? अगर ऐसा ही था तो परिवार का एक सदस्य मार के खा लेते फिर
दूसरा, क्योंकि ये सब पशु भी हम मानवों के सहजीवी हैं हमारा परिवार, '
अगर स्वाभाविक मृत्यु से भी पशु मरता बै तो भी हड्डी चमङा और अनेक उपयोगी
चीजें तो देकर ही मरता है ।
वैसे भी पशुओं की आयु मानव की तुलना में कम है ।
इनसे आठ दस साल दूध लिया जाता है और आगे की संतति ।
आज पेट्रोल डीजल की गंदी हवा ने क्या हालत पर्यावरण की कर डाली है सब
जानते है "बैलगाङी घोङागाङी भैंसागाङी ऊँटगाङी और उनसे खेती ढुलाई आज याद
कीजिये 'न तब जमीन धँसती थी न खाद की कमी से रासायनिक खादें डालकर खेत
बंजर होते थे, न तब कभी सवारी के लिये प्रदूषण पहली चीज थी ।
हमें प्राकृतिक चक्र का अर्थ समझना होगा, ट्रैफिक जाम में घंटों धुआँ
पीने से अच्छा था बस जरा सा धीरे धीरे चलना ।
ग्रामीण जीवन भारत की रीढ़ रहा है और ग्राम्यजीवन शैली ही प्रकृति की
सर्वोत्तम मित्र संस्कृति रही है ।
भारत का कृषक ग्रामीण कभी किसी का दास नहीं रहा, क्योंकि उसके पास दूध था
और के लिये पशु थे 'उसके पास बैल थे और सामान ढोने खेल जोतने के बैलगाङी
हल और पटेला थे ।
उसके पास गोबर की खाद थी और पेङों की हर शरद में होने वाली काट छाँट से
उपलों कंडों से प्राप्त ईधन था, 'चार महीनों का गोबर खेत में और आठ का घर
लीपने और चूल्हा जलाने में, '
रोज धुआँ करने को पत्तियाँ और रोज खाने को बेर जामुन अमरूद जंगलजलेबी केला नारियल '
छप्पर के नीचे पशु चरते और छप्पर के ऊपर तोरई लौकी कद्दू परवल सेम पेठा
लोबिया ग्वाँर और खीरा फूट करेला कचरिया के फल सब्जी थे ',
बिना आर्सेनिक्स और फ्लोराईड वाले जल की साफ नदियाँ और कुयें थे औऱ पानी
रखने को कुम्हार के मटके पीतल के गगरे और सिंचाई को रहँट थे ।
गाँव का कृषक स्वावलंबी था ।
पीपल के नीचे मंदिर के आँगन में पंडित जी थे और पढ़ने को लकङी की पाटी
कलम और चूने की खङिया थी ।
लिखने को सियाही और सुनने को नौटंकी रामलीला तमाशा मेला बाजा माच और जात्रा थे ।
मिट्टी के घर मिट्टी की खपरैल और मिट्टी की ईटों के खडंजे से कभी जल कम
रहने देने वाला वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम था "
नहाने को "पङोह मिट्टी मुलतानी मिट्टी 'हिंगोटे के फल रीठा 'और पहनने को
हथकरघे का गाढ़े का लट्ठा खादी, ।खेलने को मलखंब कबड्डी झूले रस्सी दौङ
कुश्ती अखाङे और तीज त्यौहार के हाँडी दही के चुनौतियों के जोश थे । गाने
को लोकगीत बजाने को ढोलक मँजीरे बाँसुरी अलगोजे और सारंगी थे
आज वे सब चीजे छूट गयीं और रह गया हर तरफ माँसाहार, 'प्लास्टिक, कंक्रीट,
शोर और कमरे में बंद टीवी कम्यूटर मोबाईल तक सिमटी दुनियाँ ।
लोग घरों में गमले रखते हैं लॉन बनाते हैं किंतु "उगाते है कैक्टस फर्न
क्रोटन और तमाम सजावटी पौधे!!!
भारतीय जीवन शैली में रसोई के जल से सिचिंग गृहवाटिका में "टमाटर धनिया
मिर्ची खीऱा बैगन पालक के साथ आँगन में तुलसी करीपत्ता और अजवाईन का पौधा
रहता था आगे चबूतरे बरामदे के सामने केला नारियल आँवला आम अमरूद शरीफा
लीची लगाने की परंपरा थी '
द्वार के पास ही 'अकौआ लगता था जो कि सब जानते है जोङों के दर्द की
बढ़िया दवा है, 'घमरा नामक पौधा तत्काल रक्त बंद कर देता है लोग खप्पर
में लगाकर रखते थे "'
चिङियों के लिये पाँच पूली मक्का ज्वार बाजरा धान गेहूँ हर घर के बाहर
भीतर मुँडेर से बँधी रहती थी ।
प्रतिमायें कच्ची मिट्टी की होती थी या नदी का प्राकृतिक पत्थर ही शंकर
सालिगराम गोमती लक्ष्मी 'होता था ।मंदिर में सभा सम्मेलन के बहाने हर
पूर्णिमा प्रदोष एकादशी और तीज त्यौहार को लोग हर दबसरे व्यक्ति के
समाचार से सजग रहते थे । गाँव में हाट लगतीं थी और पास दूर के छोटे बङे
व्यापारी मिलजुलकर सर सामान बेच खरीद लेते थे ।
सूरज की रौशनी में सब काम निबटा कर हर चौराहे पर हर द्वार पर दिये जला
दिये जाते थे ',मंदिरों में ज्येतिस्तंभों पर सैकङों दीप रखकर लोग "कथा
कहानी सुनकर सोते थे ।
सोने को घासकास की रस्सी से बुनी खटिया थी और बिछाने ओढ़ने को हथचरखे
करघे के पुराने कपङों से बनी दरी कथरी और कंबल 'खेत के कपास से बनी रजाई
और 'क्या चाहिये था "स्वाबलंबी स्वाभिमानी ग्रामीण को?
नगरों का जीवन ग्रामों पर आश्रित था किंतु गाँव गाँव बनी बुजुर्गों की
पंचायतें गाँव के झगङे गाँव में ही सुलझा लेती थी ।
नारियों के स्नान घाट पर पुरुष नहीं जाते थे और गाँव की बेटी सबकी बहिन
बेटी होती थी ।
शराब माँस गाँव के लिये "पाप थे 'और भाँग के सिवा कोई नशा होली तक पर
नहीं करता था ।
रंग थे पलाश और सूखे फूलों के 'उबटन थे हलदी बेसन चंदन के और झुंड में
रहकर परस्पर श्रम में हाथ बँटाना सबका कर्त्तव्य था 'कोई बुजुर्ग कहीं
वृद्धाश्रम नहीं रहते थे न ही अनाथालय में कोई रहता था, दान सब देते रोज
ही गौ ग्रास काक ग्रास और मंदिर में जा ठहरे यात्रियों का ग्रास निकलता
था । बुद्धिजीवियों से श्रम नहीं करवाया जाता था और बच्चे बङों के पाँव
दबाकर ही सोने जाते थे ।
युवा दिन में शयन नहीं करते थे और दैहिक सौष्ठव बनाकर रखने की होङ रहती
थी पौरुष का अर्थ स्त्री रक्षा ग्रामसेवा खेती करना और व्यसन से दूर रहना
माना जाता था । कन्या गर्भिणी और विधवा को संरक्षण दिया जाता था ।
गाँव में ही सिलाई कढ़ाई बुनाई के प्रशिक्षण पीढ़ी दर पीढ़ी दादी से पोती
तक चलते रहते थे महिलायें अपने कपङे स्वयं ही सीं लेती
©®सुधा राजे


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