Wednesday 23 September 2015

सुधा राजे का लेख :- बिहार नामचा

बिहारनामचा
":'
हिन्दू बौद्ध ईसाई और मुसलिम
इन सबके इतिहास से बहुत पीछे बहुत गहराई से जुङा है बिहार ।
कभी भारत का गौरव रहा बिहार इतना पीछे धकेला गया कि आज बिहार के बाहर
"उँह बिहारी "कहकर बहुत हेयता से दूसरे अतिवादी क्षेत्रवादी देखते हैं ।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिन लङकों की बङी आयु रंगरूप या कम कमाई या
पहली दूसरी पत्नी मर जाने या विवाह टूट जाने पर शादी नहीं होती ''वे
पहाङन 'बंगालन 'नेपालन या बिहारन जिन्हे वे अशिक्षित श्रमजीवी लोग
""पुरबिनी कहते हैं "।
को कुछ हजार रुपयों में वधूमुल्य चुकाकर ले आते है विवाह के नाम पर जीवन
भर बँधुआ मजदूर मुफ्त की वेश्या और मुफ्त की नौकरानी की तरह रखते हैं ।
न सम्मान होता है परिवार समाज और पति की नजर में न ही कोई दया माया मोह
प्रेम अधिकार ।
जो बच्चे भी अगर हुये तो पति की ही संपत्ति और आगे को अघोषित दास होते हैं ।
हर साल हजारों मजदूर खेतों और मिलों कारखानों फैक्ट्रियों में काम करने
मानसून के निकट होते ही बिहार से बाहर निकल पङते हैं मुंबई कलकत्ता मदरास
पंजाब दिल्ली जयपुर अजमेर """""जहाँ कहीं भी सूचना मिलती है काम की ।
एक दो आँखों देखी घटना है कि ट्रेन के जनरल डिब्बे में ठसाठस बैठे बिहार
के लोग रोजगार की तलाश में जो चले जा रहे होते हैं अजनबी मंजिल की तरफ
उनको हाथ पकङ कर बिचौलिया ठेकेदार अलग अलग कार्य में लेबर सप्लाई के लिये
बीच में ही किसी भी स्टेशन पर उतार लेते हैं और कई गुटों में इन मजदूरों
को उतारने के पीछे झगङा भी हो जाता है कि ये मजदूर पहले मैंने छेके ',तो
मेरे हुये ।
मामूली मेहनताने पर ये मजदूर मिलों कारखानों निजी घरों और खेत खलिहानों
में काम करते है ।
हर नया मालिक इनको बेकार बचे कपङे पहनमे को देता है और बस यूँ ही कहीं
पङे रहने भर को ठिकाना देकर नौकरी करता है ।
होली के ठीक पहले ये मजदूर अपने देश लौटने लगते हैं ।
तो भी मालिक को सौ सौ वादे करके कि वापस आकर फिर काम करेंगे ',कुछ तो
लौटते हैं और कुछ उम्दा रोजगार की तलाश में फिर नयी जगह चल पङते हैं ।
ये नई मंजिल कई बार घर मकान ढोर गिरवी रखकर अरब देश या थाईलैंड या खाङी
देश भी होते हैं ।
बिहारी हर देश हर प्रोफेशन हर जिले में मिलेगा ',
लेकिन सौ टके का सवाल है कि अपनी माटी अपनी भाषा अपने प्रदेश से जी जान
से प्रेम करने वाला पूरबिया आखिर क्यों विवश हो जाता है घर में माँ पत्नी
बच्चे बहिन भाई त्यागकर बाहर देश परदेश भागने को??
ये कारण है जातिवाद की अफीम पिलाकर मजहब की मदिरा में डुबोकर 'बिहार को
रोजगार न मिलने वाला प्रांत बना डालने वाले नेता और प्रशासक, 'आज भी
बिहार दक्षिण से अघिक हरा भरा और खनिज संपदा संपन्न है और संपन्न है माटी
नदी पहाङ मैदान की विविधता से ',न मरूस्थल की तपती धूल न ही पठार का
वीराना ',जहाँ तक नजर जाती है सब हरा भरा और ',सांस्कृतिक विरासत से भरा
पूरा बिहार ',चोखा लिट्टी भात भुजिया दाल चावल सत्तू पिट्ठी अचार छनौरी
दालपूङी बखीर और भेली राब का देश जहाँ कंठ कंठ में सुरीली ताने बसी हैं
और युवाओं के सीने में "मल्ल होने का सा जोश ',बेहद मेहनतकश मानव संपदा
पूरे भारत ही नहीं विश्व को देने वाला यह चंद्रगुप्त का देश ',बुद्ध की
चैत्यभूमि और शिवतीर्थ, क्रांति की पहली ज्वाला का प्रांत ',आज ऐसा
मुहावरा कैसे बन गया कि "सौ पर भारी एक बिहारी "वाला नारा दब कर रह गया
और ''बिहरिए "पुरबिए होना एक "गरीब हुनरविहीन अविश्वसनीय
""खानाबदोश का पर्यायवाची बन गया??
चुनाव जैसे ही आते है बिहार का बच्चा बच्चा किसी मँजे हुए राजनेता की
भाँति बातें करने लगता है ',और चुनाव के दौरान भीषण गुचबंदी हिंसा शराब
बाहुबल और धन रुपया आदि का सैलाब गंडक कोसी की बाढ़ से भी अधिक उफान पर
रहता है ।
जातियाँ जो पूरे पाँच साल अन्योन्याश्रित जीवन जीती हैं 'चुनाव आते ही
'पासी कुरमी कोईरी बाँभन ठाकुर नाई कहार मोची जमादार भील में चीखपुकार कर
फटी चादर से बिखरते चावलों की तरह यत्र तत्र हो जाने लगती हैं 'लोग एक
खास तरह की नफरत और दूरी बनाकर व्यंग्य से ही फिर राम सलाम करते है '। इस
जहरीले विचार को भङकाते हैं छुटभैये स्थानीय नेता जिनपर आश्रित हैं गाँव
टोला पुरवा के गरीब और मध्यमवर्गीय लोग 'जब तब उधार रुपया पैसा गहना जमीन
घर गिरवी रखकर इन्हीं नवधनिकों से लेना देना पङता है ।
परदेश पराये प्रांत में रोजगार की तलाश में गये पुरुषों के पीछे गाँवों
के झोपङों में कराहती बूढ़ी माँ युवा वियोगिनी पत्नी और सुनबरे कल की आशा
में डेंगू चिकुनगुनिया जापानी इंसेफेलाईटिस स्वाईन फ्लू मलेरिया हाथी
पाँव घेंघा और कुपोषण एनीमिया से जूझते 'बच्चे 'और प्रौढ़ 'सब परिवार
इन्ही स्थानीय नेता भैया जी और साहबों के भरोसे ही तो छोङकर निकलता है
बिहारी 'जनरल डिब्बे की सीट पर दस और रेलगाङी के डिब्बे के फर्श पर ही
गमछा बिछाकर 'विरहा कजरी विदेसिया 'गुनगुनाता ।
चुनाव आते ही दस की जगह दौ सौ रुपया रोज दिहाङी जैसे बरसने लगती है और
चोखा भात की जगह दाल-भात ,भुजिया ,पकौङी ,जुट्टी, सुठौरा, ताङी, और ठर्रा
भी घर की ओसारी तक पहुँचने लगता है ।
जाति मजहब और रुपयों का तमाशा भी जिन लोगों पर नहीं चलता उनपर 'भय 'चलता
है और ये भय तरह तरह के रूप शक्ल और कमिटमेंट लेकर आता है । ये
प्रतिबद्धता किसी को तब याद नहीं रहती जब उसे अपने परिवार के सदस्य खोने
पङते हैं बीमारी और दुर्घटना में ',न तब जब बाढ़ में हर साल ढह जाते है
कच्चे घर और सपने, 'न तब जब बङी उमर की लङकी को विवाह के नाम पर बेमेल
शादी करके घुट घुट कर बंधुआ मजदूर बनना पङता है, न तब जब गणित और विज्ञान
में बहुत होशियार होने पर भी उसकी संतान 'दिल्ली मुंबई चेन्नई 'जैसी
संस्थाओं से कोचिंग और पढ़ाई ना कर पाने के कारण 'फ्रस्ट्रेशन की गिरफ्त
में आकर बरबादी की राह पर चल निकलता है ।
वही वही गिने चुने चेहरे बार बार बिहार की शासन व्यवस्था और नीति के
कर्णधार आखिर क्यों बन जाते हैं?
क्या बिहार के पास बिहार में ही पला जन्मा बढ़ा कोई बेहतर विकल्प नहीं है????,
जो नेता पढ़ा लिखा हो!!!!
जो जाति बिरादरी टोला और कुनबे के नाम पर नहीं केवल बिहार को "अपराध और
बेरोजगारी से मुक्त करके अग्रणी राज्य बनाने की गारंटी लेता हो!!!
क्या कारण है कि केरल के लोग शतप्रतिशत साक्षर होते आये हैं और
पाटलिपुत्त 'तक्षशिला के प्रांत में निरक्षरता आज भी बङे पैमाने पर वजूद
में है? क्या कारण है कि साहित्य संगीत और धर्म की राजधानी होतर भी आज
बिहार रोजगार के मामले में दक्षिणभारत से पिछङा हुआ है??
गेंहूँ मक्का चावल अरहर दालें तिलहन कपास आम अमरूद से भरपूर रहने वाले
खेतिहर किसान आज पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भी कृषकों तक
से पिछङ रहे हैं दशकों से? कृषक और मजदूर दोनों ही एक शोषित बिहारी की
शक्ल में नजर क्यों आने लगे हैं?
बिहार की सङके केवल महानगरों को छोङ दें तो साफ साफ बताती है कि ""खोया
कहाँ स्वराज्य?
बिजली आज भी बिहार के अनेक गाँवों के लिये एक विलासिता की वस्तु है ।
कितने ही गाँव है जहाँ पाँच पाँच किलोमीटर तक स्कूल ही नहीं है ।
सारा विकास बिहार के महानगरों और बङे शहरों तक ही सिमटा नजर आता है सो भी
"बेतरतीब और करोङों खर्च परंतु वास्तविक हालत बस जैसे मिरगी के मरीज को
सङा जूता सुँघाकर होश में बिठा दिया हो ',।
ये दिल्ली के लोग भी बिहार सा तो वोट माँगने जाते हैं या फिर उद्घाटन में
। घोटालों का राज्य कहा जाने लगा है बिहाल को ।
चंद नेता अपने ठेठ देशी अंदाज को स्टाईल की तरह यूज करके लोगों का दिल
लूटने के टोटके करके उनको मुसीका बँधे बैल की तरह वोट दो और कुछ मत सुनो
सोचो की पाह पर चलाते रहे ',वरना यदि बिहारी जागृत होता तो क्या जेल जाते
'लालूयादव 'राबङी जैसी आम घरेलू लगभग अनपढ़ महिला को बिहार का ताज पहना
कर जा सकते थे!!!!!!!!!!
क्या विधायकों के पूरे महामंडल में तब कोई ही न रहा था समुचित प्रभारी??
नीतेशकुमार ने भी नरेन्द्रमोदी की जीत पर 'शहीदाना अंदाज दिखाकर जीतनराम
माँझी को '''''त्यागी भरत "की तरह राजकाज खङाऊँ देकर चलवाना चाहा ।
पासवान हो चाहे कोई और बिहार के लोगों की प्रतिभा बिहार के काम नहीं आती
'और बिहार के संसाधन बिहार के काम नहीं आते 'कैसे बिहार को इस लायक बनाया
जाये कि 'बिहारी खानाबदोश न रहकर अपनी माटी अपने ही प्रांत में रहकर अपने
सपने साकार कर सके!!!!
कोई स्पष्ट योजना किसी के पास है ही नहीं केवल 'आरक्षण की अफीम और वजीफों
के लालच या कभी कोई और सामान या पैसा मुफ्त में देकर तत्काल एक 'समुदाय
या वर्ग या जाति के वोट ले लिये जायें ।
किंतु बिहार के 'हर बच्चे को 'दिल्ली स्कूलों जैसी शिक्षा मिले और हर
युवा को चेन्नई बैंगलोर कोटा की पढ़ाई की तरह रोजगार मिले और पंजाब
हरियाणा की तरह कृषक संपन्न और आधुनिक तकनीकों से लैस होकर सिर उठाकर शान
से कहें हाँ मैं किसान हूँ,,,,,,,, बिहार की बेटियों को कहीं बाहर "विवाह
के कपट के नाम पर दहेज के अभाव में बंधुआ दासी का जीवन न जीना पङे '।
बिहार में मुंबई और वाशिंगटन जैसा इलाज मिले ।
गंदगी और कुपोषण से न जूझना पङे बचपन को ',और हिंसा बलात्कार छेङछाङ
मानवदेह व्यापार और अपराध से मुक्त हो बिहार?????
सवाल हमारा, 'जवाब हर बिहारी को देना है ""क्यों भइया है कोई ऐसा मैदान
में??? जो जाति मजहब नहीं ''अपने बिहार में रहकर सबको रोजगार सुखी शांत
सुरक्षित जीवन और अपराध मुक्त मानवोचित रहन सहन की राह पर चला सके????
©®सुधा राजे


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