Saturday 19 September 2015

सुधा राजे की एक अकविता :- "आश्रय स्थल"

मैं
जब मैं के अंतिम आश्रय स्थल अपने ही आप के मनन और आस्था की गुफा में आकर
अपने ही आप पर अपने भरोसे की चट्टान पर खङी होती हूँ तो सब विकार पिघल
जाते हैं और गौमुखी अलकनंदा गंगा जान्हवी मंदाकिनी की भाँति मेरा सारा
रोष पिघल जाता है मैं तुम्हें तो कब की क्षमा कर चुकी होती हूँ हर बार
यहाँ आने से पहले बस मुझे अपने आप को क्षमा करना किंचिंत दुरूह लगता है
हर बार जब मेरा ही अपना अस्तित्व मुझसे प्रश्न करता है अब भी!!!!!
क्यों??? तब धृति और करुणा के द्वंद्व के मध्य से निकलकर मैं पंजों के बल
सरक कर चढ़ती हुयी यहाँ इसी अपने आप के ही अपने पर भरोसे की शिला रचित
अंतस गुहा में आकर विराम कर के मुक्त कर देती हूँ अपने आभऱण केश पाश में
बँधा संयम और तरल तरंगिणी की प्रवाहमयी कवितीवीथिका में छिप जाती हूँ तब
तक "जब तक मेरा मैं मुझे क्षमा नहीं कर देता हर बार '
मन पर लगाये तुम्हारे घाव के लिये तुम्हे क्षमा करते चले जाने को

कहो क्या कहना है
मैं प्रस्तुत तो हूँ न ',
वैसी ही प्रसन्न निर्भार और निर्विकार
सारी सुधियाँ गँठी रख कर
रीती रिक्त
अब तक इसीलिये तो हर बार भर लाती हूँ अँजुरी भर हँसी और दिन भर के लिये
मौन मुस्कान चाहे साँझ जैसी भी हो मैं 'दिन भर यहीं हूँ ऐसी ही स्मिता
सुधा 'विषपायिनी निरापद '
©®सुधा राजे


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