Monday 26 May 2014

कविता - बीहङ मन """"""

मुझे देखना था विराट आकाश '''
अनंत तारे और असीम ब्रह्माण्ड """"
मुझे छूने थे क्षितिज के ओर छोर और
धरती की कोर '''हवाओं का आदि और
महासागरों का अंत """"
मुझे सूँघने थे चंदन के वन
फूलों की घाटियाँ मानसरोवर के
ब्रह्मकमल और कस्तूरी के
हिमाद्रि हरिण, तृण तृण कण कण
पराग राग और आग ',
मुझे चखने थे अमृत के सब भंडार सारे
विस्तार ',
और पहनना था अनंत सुर घ्वनि शब्द
को सुनते हुये
बुना गया सारा गांभीर्य
सारा चापल्य सारा आल्हाद """"
ये यात्रा अब आगे अनवरत
रहेगी पान्थ ',तुम्हारा मार्ग जनपद
को जाता है मेरा विजन को ""
कभी लौटे तो कुछ पवन गंध मधु राग
अमृत और स्परश के मृसण आभास
तुम्हारी भेंट करेगे।
तुम्हारे मिथ्या आश्वासन टूटे वचन
पर टिका मेरा प्रासाद ढह रहा है
और मुझे जाना होगा पांथ आभार
तुम्हारा इस मुक्ति और विश्रांति के
लिये ।
जीव की श्वसन क्रिया के लिये पवन
का भ्रमण रत रहना आवश्यक है और
मेरे लिये 'स्वप्नों को चित्रकथागीत
में विचरते रहना ',
जब मेरी बात समझ न आ ये तो मेरे
विगत मौन को बाँचना कुछ अनलिखे
महाकाव्य वहीं रह गये हैं ',
©®सुधा राजे

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