सुधा राजे का शब्दचित्र -"" छलनी - छलनी चाँद"""

मुझे अच्छा लगता है ज़मीन से चाँद
को देखना ',
तब से जब से कोई नहीं था उस चाँद और
मेरी टकटकी लगी दो आँखों के बीच '
चाँदी की कटोरी में खीर और
चाँदी की थाली में पेङे नारियल पूङे
खङपुरी बताशे दूध और परमल के साथ
चौमुख दीप बाती से सजी थाली से चाँद
देखने की बेला से पहले से ही चंद्रमा के
अमृत से शीतल खीर सदा से ही चुन चुन
कर काजू बादाम चम्मच में भरकर
खाना ',तब से जब से कोई
नहीं था मेरी खीर की कटोरी और
चम्मच के मेरे मुँह तक बिना झिझके चलते
रहने के बीच ',
कभी अधीरता नहीं आई न
कभी चंद्रमा की प्रतीक्षा लंबी लगी ',कदाचित
विचित्र ही हूँ मैं और चित्र के सिवा कुछ
नहीं मेरे लिये ये सारी सृष्टि ',फिर मेरे
और चंद्रमा के निहारने के बीच एक
चेहरा आ
गया 'तुम्हारा 'अजनबी अपरिचित
सर्वथा अलग ',मेरी हर बात से, चाँद
तुम्हारा हो गया और
निहारना भी 'मेरा न रहा, न
रही खीर पर पहली कटोरी का अमृत
मेरा वह भी तुम्हारा हो गया और सारे
बादाम काजू भी चुनकर स्वमेव
स्वचालित हाथों ने अपनी प्याली से
निकाल कर दूसरी कटोरी में रखते
जाना सीख लिया ',कल्पनाओं के
पारदर्शी सफेद चित्र 'लाल
गुलाबी पीले इंद्रधनुषी होते होते रह
गये 'पीला चाँद पूरा होते होते
तुम्हारा हो गया और मेरे हिस्से में आ
गया अनंत तारे 'निहारने का हक 'और
'कदमों की चाप पर
दिनचर्या को चलाने की अभ्यस्त आँखें मन
के भीतर से गंध शब्द रंग स्पर्श आभास
की सब परिकल्पनायें 'आकार लेते लेते रह
गयीं 'चाँद ज़मीन पर नहीं आ सकता 'मैं
पहाङ को सामने से नहीं हटा सकती 'छत
पर चढ़कर चाँद देखना मुझे पसंद नहीं '
हो तो हो क्या इसीलिये मेरे हिस्से
का चंद्रमा सदा ही दो घंटे चार
घङी देर से ही निकलता रहा है ',मुझे
मालूम है चांद कभी धरती पर
नहीं आयेगा वह एक उपग्रह है और
वहाँ जाना मेरे वश में नहीं ',मैं चांद
को निहारने से पहले एक
जलता दिया एक छलनी सदा लिये
रही हाथ में और तारों को निहारने से
पहले 'धुँधली डबडबायी बूँदे आँखों और
तारों की गिनती के बीच आतीं रहीं 'तुम
'इसी तरह मेरे और चांद तारों के बीच
आते रहो, हँसते, हुये 'इसीलिये तो चाहे
परिकल्पित ही सही 'चंद्रशेखर अमृतेश
और सुधाकर की कल्पना करके विध्नेश के
निराकार रूप को 'तुम्हारे पीछे
खङा करके अपनी साँसों का बँटवारा कर
लेती हूँ हर साल हर वर्ष, बस
उतनी ही साँस जब तू है पास 'ये मंत्र न
सही न सही विधिवत प्रार्थना न
सही तुम्हारा इन सब बातों में यकीन
और भले ही मैं चाहूँ कि आने
वाली पीढ़ी की कोई लङकी 'जब तक
चाहे तब तक चाँद निहार सके,
बिना किसी छलनी दिये और
धूपबत्ती कपूर के 'न जल छोङे न अन्न,
किंतु मैं कैसे छोङ सकती हूँ ये सब तुम न
चाहो तब भी 'ये
मेरा अपना ही तो वचन है
अपनी ही तो प्रतिज्ञा और
अपना ही तो संकल्प ',न सही तुम
परमात्मा न सही तुम परमेश्वर ढेर
सारी शिक़ायते तुम्हें मुझसे है और
मेरी बस एक 'काश कि तुम मुझे समझ पाते
'न मुझमें कोई सुधार आने वाला है न तुम
कभी मुझे समझ सकोगे ',मेरा परमेश्वर
निराकार ही रहेगा 'और
रहेगा अनादि अनंत विराट्
ही मेरा दाता फिर भी न आसक्ति न न
मोह न क्रोध न लोभ ' न जाने किस
अजीब सी भावना से भरी में बिना कोई
विशेष श्रंगार सजाये
बिना किसी प्रकार का आडंबर धरे
'अनंत ईश्वर से हर बार
यही कहती रहूँगी 'मुझे वे सब साँसें
नहीं देना, ताकि में पहले यह
दुनियाँ छोङ सकूँ तुम्हारे सामने
ही 'हो तो अच्छा नहीं तो कहीं भी 'वहाँ जहाँ ये
पता चलता रहे तुम सुखी हो खुश
हो स्वस्थ हो और मेरे बिना भी तुम्हें
कोई तकलीफ नहीं । जीवन
जैसा चाहा था वैसा नहीं रहा, हम
भी जैसा तुमने चाहा वैसे नहीं रहे ',न तुम
वह हो जैसा मैंने अनुमान
लगाया था ',तुम्हारे पास ध्वनियाँ है
शब्द हैं और हैं अधिकार सारे ',मेरे पास
प्रार्थनायें हैं दुआयें हैं, मौन है और हैं
कर्त्तव्य अनंत ',कुछ हो न हो मेरे बाद
भी ये चंद्रमा तो निकलेगा ही ',याद
रह सके तो कहना चाहती हूँ देखना और
सोचना कि अब 'तुम्हें चांद
ज़मीन से देखने की जरूरत नहीं 'तुम छत
पर जाकर चांद देख सकते
हो ',बिना किसी, दीपक
छलनी धूपबत्ती और कलश करवा कटार के
',जिससे नजर हर बार उतारी वह राई
नमक चोकर भी अब नहीं धुँधायेगा न
गुलाबी पाँव गीले होगें ठंड में रजाई से
निकलकर ',बस हो सकता है
मेरी कल्पना में कहीं आकाश से ओंस टपक
कर तुम्हे भिगोने की कोशिश करे ',न ये
दावा है न शिकवा 'इसलिये इसे
भी कदाचित तुम तब जानो पढ़ो जब
',हम न हो और चाँद
अकेला ही पूरा का पूरा तुम्हारी खिङकी पर
हो जब तुम्हें उठकर न जाना पङे हरी दूब
पर और यूँ ही 'कदाचित तुम कभी न जान
सको 'कि ये सब है तो है क्या 'मैं न जाने
क्यों हर साल सोचती हूँ दिन जरा धीरे
धीर ढले चाँद
जरा आहिस्ता आहिस्ता निकले 'कैसा है
ये धैर्य न जिसमें तृषा न थकान न
बुभुक्षा न कोई शोर ',मन
हमेशा की तरह भीगा और आँखें
हमेशा की तरह सूखी ',जकङन
संस्कारों की कह सकते हो तुम और मैं? मैं
क्या कहूँ? मुझे तो हर वो बहाना 'खोजते
रहने की आदत पङ चुकी है ताकि मैं 'इस
असंपृक्त चित्र सरीखे संसार से खुद
को किसी बहाने जोङ सकूँ तुम और
तुम्हारा सारा परिवेश, जब नहीं बाँध
पाता तो घुल जाती हूँ में
हवा चाँदनी गंध शब्द रूप रस स्पर्श
ध्वनि और विचार में 'सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
होकर 'मैं कभी नहीं कह
सकती तुम्हारी तरह कि मुझे तुमसे प्रेम
है 'न कभी नकार सकती हूँ कि मुझे तुमसे
प्रेम नहीं है 'यह क्या है जो मैं
ही नहीं जान सकी तो तुम्हें
क्या समझाऊँ ',तुम्हारे पास
सारा संसार है ',और मेरे पास 'तुम संसार
में होने का एक बहाना ',काश कोई दुआ
करता कि मेरी हर दुआ जो तुम्हारे लिये
हो वह पूरी हो जाये 'ताकि मैं संसार से
कटने से पहले देख लूँ कि तुम्हें वह सब कुछ
संसार से मिल गया जो जो तुम्हें चाहिये,
न सही 'अब 'कभी भी चाहे मेरे जाने के
ही बाद 'तुम एक बार तो यकीन कर
सको कि 'ईश्वर और तुम्हारे बीच एक
चाँद बराबर फासला देखने वाली इन
तार्किक आँखों के पीछे एक
सदियों पुराना मन भी है
जो देखता रहा कि 'ईश्वर जब
भी "मूर्तिमान होता तो 'तुम
उसकी प्रतिमा विग्रह होते 'किंतु न
मेरी आस्था कदाचित इतनी बलवान
थी कि में निराकार को सशरीर
पा लेती 'न
मेरी कामना इतनी बङी कि मैं साकार
के लिये शरीर हो पाती ',ज्योति पुंज
को मुट्ठी में धरे में आज भी सोचती हूँ मुझे
वह सब होना था जो तुम चाहते थे,
'नहीं हूँ क्योंकि मैं मनुष्य हूँ ईश्वर
नहीं 'मेरी आस्था जब तुममें
परमात्मा देखती है तो ये प्रश्न क्यों!!
और ये प्रश्न है तो तुम
परमात्मा की मूर्ति भर
हो परमात्मा कहाँ है ',मेरी निष्ठा मुझे
धिक्कारती है और चेतना ',इन
मान्यताओं को उखाङ कर फेंक
देना चाहती है ',किंतु मैं संकल्प वचन और
मन कर्म से 'जो भी हूँ
जैसी भी कभी कदाचित ही तुम्हें
पता चले कि ',चांद निहारने
की कल्पना में तब से तुम रहे हो जब तुम
कहाँ हो पता ही नहीं था 'चाँद
को छलनी दिखाने की आस्था में भी तुम
रहे हो जब कि तुम्हें कभी ये कोई
नहीं बताने वाला कि तुम
किसी का संसार हो 'संसार वहीं से शुरू
वहीं से समाप्त हो जाता है जहाँ से तुम
मुस्कुराते और रूठ जाते हो 'मेरे मौन और
तुम्हारे शब्द के बीच की धारा पर
तैरकर 'रोज ही तो होती है करवा चौथ
कोई इसरार नहीं जल्दी घर आने और
बगीचे की दूब पर चलने का '
चंद्रमा का क्या है घटता बढ़ता रोज़
ही तो समय बदल कर निकलता है '
हाँ मेरे लिये तब केवल तब ही ये
चंद्रमा निकलता है जब 'तुम उसके सामने
आ खङे होते हो '
हर रोज भले ही नहीं होती तो बस एक
छलनी 'दिया और थाली ',तुम्हें
पता ही कब चलता है जब अर्ध्य के जल में
गिरतीं हैं कुछ बूँदें आँखों से भी 'और
माथा झुकने के साथ झुक जाती हैं
हिमश्रंखलायें
ताकि तुम उठा सको झुके हुये पारिजात
द्रुम और महक सके कम से कम एक शाम हर
वर्ष 'इसी बहाने
©®सुधा राजे।


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