Sunday 28 April 2019

कविता, गद्य चित्र: :लकड़ी पहाड़ और प्रकृति

तुमने देखी पहाङ पर खिलखिलाती लङकी ',
तुमने पहचानी मैदान में गुनगुनाती लङकी
तुम्हें भायी छत पर थिरकती लङकी '
तुमने एक रिश्ता बना लिया लङकी की "शराबी आँखों से, गुलाबी गालों से, हिरनी सी चाल से, और बलखाते बाल से,
कभी
कहीं
एक लङकी पहाङ पर टीले के पीछे, चट्टानों को हराकर पानी बना रही थी तुम नहीं देख पाये जब मैदानों में कोई लङकी लंबी फसलों को एक एक करके उगा रही थी और न तुम समझ सके जब छत पर से एक लङकी ने छलाँग लगा दी आकाश गंगा में तैरने को ',
आँखे बाल गाल और चाल की रंगत मादकता और सौन्दर्य के सुर थिरक कर विशाल पेङ बनकर "स्त्री "होते रहे मैदान पहाङ नदी आकाशगंगा और छतें सब मिलकर ढोते रहे "तुम्हें "और तुम कभी नहीं जान सके कि लङकियाँ पेङ बनकर "पैर जमाये खङी रही लोग फल फूल ईँधन और खाद लेते रहे "पेङ वहीं रहे "कैद "में जमीन की लङकियाँ चिङियाँ होकर आकाश नापती रहीं पेङ वहीं रहे और जब जब एक पेङ गिरा धरती पहाङ मैदान नदी और छतें "और वीरान सब कुछ और कमज़ोर हो गये "लङकियाँ "तारे बनकर आकाश में टिमटिमाती रहीं औरतें लालटेन बनकर घरों में ',और पेट बदन दिमाग की भूख के बाद जो बचा वह सारा कलुष कल के लिये खाद बनता रहा ',अब तक न लङकियों ने "पहाङ मैदान नदी पेङ आकाश को हराना छोङा है न जिन्दा रहने का बहाना छोङा है ',तुमने कभी महसूस किया कि जब धूप थी तो एक लङकी पेङ थी और जब भूख थी तो एक लङकी फल जब तुम पेङ काटते हो लकङियाँ बनकर लङकियाँ भी कटतीं है ये चिता पर जायेंगी या चली चूल्हे पर या बनेगी छप्पर कौन जाने
©®सुधा राजे

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