Monday 8 April 2013

प्रौढ़ प्रेम :विवाह औरपरिवार सेविश्वासघात।

शादी के बीस साल
बाद???
किसी स्त्री का पर पुरूष से
प्यार के नाम पर
पति को धोखा देना ।
ठीक वैसा ही है जैसे चार
बच्चों की माँ होने पर रूप
रंग यौवन
खो चुकी स्त्री जो दिन
रात
खटती रही हो परिवार के
लिये बाल बिखेरे ।
उसे छोङकर किसी पर
स्त्री पर डोरे डाल
उसका हो जाये
कि बीबी को मेरी परवाह
नहीँ
प्रौढ़ आयु में बच्चे प्रधान
हो जाते हैं और
यही सार्थकता भी है
कुदरत का नियम भी पचास
तक आते मेनोपोज का अर्थ
है कुदरत अब
नहीं चाहती कि भोगवाद
हावी रहे ।
विवाह किया है
को निभाओ भी ।
बीस साल पहले
छोङा होता तो वह
किसी को अपना सकता था ।
रहा सवाल प्यार???!?
तो बच्चो?!!??!
जवानी में जब इश्क़ ने
पुकारा तो काहे
नाहीँ चला गया???
अरेंज मैरिज में प्यार
होता नहीँ करना पङता है
जरा सा प्यार खूब सारे
फर्ज़ और ढेर सारी परस्पर
निर्भरता से मिलकर
बनता है परिवार।
बुढौती में मन भटके
तो पराया मर्द
परायी नार नहीँ मन
को झाँकिये।
दिल के ऊपर दिमाग है।
और ये समाज आपके बाप
का नौकर नही जो आप
कुछ भी करें फिर भी नाम
सलाम चाहें ।
धोखा या अलगाव
का सही वक्त तो मार
खा के गुजार दिया । अब
जब पशुपन बंद
हो गया तो बजाय समाज
को सुधारने सृजन करने के ।
फुरसत का धोखा करने
चले???? ।
और वह दूसरा मर खप
रहा है??
दया ममता का पात्र है वह
तो । कि हाँ मैँ हूँ तुम्हारे
साथ
बुढ़ौती में पराये स प्रेम और
क्या
जिस्म को ही मकसद
मानने के मिजाज
की कथा है ।
एक व्यक्ति सिर्फ जिस्म
नहीँ होता । बहुत
अराजकता फैल
जायेगी अगर निरीह
पति पर पैसा मकान बच्चे
दवा आराम मनोरंजन
का बोझा छोङकर औरतें
सिर्फ
शरीर
की उपेक्षा का दुखङा चालीस
के बाद रोने लगी तो ।
पचास पर मेनोपोज
वासना को भी पोज करने
का संकेत है ।
अपने अनुभव से कोई
भी स्त्री समाज
का सुधार सृजन
छूटी तूली कलम और फीके
पङे रिश्तो में जान डाल
सकती है ।
माफ करे । फेस बुक के पहले
भी फटाफट
बुङौतिया इश्क़ होते रहे है

लेकिन ये एक
बङा विचित्र मोङ है ।
वीरान सुनसान स्थान पर
भोग ही नहीं । विचार
साधना सृजन और
सेवा भी की जाती है ।
अक्सर वे
बीबीयाँ ही दुखी होने
का दोष पति पर मढ़ती है
जो केवल पति के लिये रूज
लिपिस्टिक
मलती रहीं हो ।
पति का पौरूष और मन
भी ढाल पर प्रभावित
होता है । कैसे कोई बीस
साल साथ रहकर अपने
साथी की कुरबानियाँ बस
एक मुट्ठी वासना जी लेने
को भुला सकता है?!!!!!!!
अपवाद है हो रहे है
कहानी अपनी जगह है ।
अब भी साठ
का बूढ़ा बीस
की छोरी को इनबॉक्य
अश्लील चैट
करना चाहता है । परंतु
इसका समर्थन संस्कृति और
कला के नाम पर
नहीँ किया जा सकता ।
हम सब एक आयु पर
वैरागी हो जाते है । प्रेम
देह से हटकर मन की प्यास
बन जाता है । विचार
समान रखने वाले पर प्यार
आता है दोस्ती पर संदेह
नहीँ रहता । लेकिन इस
का अर्थ भोग नहीँ । मन
बाँटना है अनुभव विश्लेषण
बाँटना है । और यही इस
पकी आयु की सार्थकता है
। जीवन को मकसद देना ।
अब बिस्तर नहीँ समाज
की गलियाँ सजाओ ।
सचमुच ।ऐरे मन तोरे हाथ
पाँव
बाँधि बोरतो नियंत्रण
वाहन
पशुव्यवहार पर ही नहीँ मन
पर भी जरूरी है ।
एक
षोङसी खिलती तरूणाई
प्रसंशा की शै
है उकसा बहका छीन
भगा ले जाने की नहीं ।मन
की तनहाई को मनोरंजन
नहीँ दो डूबने दो ।और
ये
डूबना लायेगा कशीदाकारी बुनाई
कविता शिल्प बच्चों पर
पूरा प्यार अच्छे
कौटुम्बिक सामाजिक
रिश्ते परिपक्व स्नेह
बेबाक़ विचार
निष्कर्ष
लगाम छोङ मत
देना ये मन कभी पालतू
नहीँ और जहाँ मन पसंद
चीजें देखी ललकता है ।
जिन चीजों को तरसाये
गये वही माँगता है ।लेकिन
दिमाग हमेशा दिलसे ऊपर
है ।और मोक्ष कुछ
नहीँ सिर्फ स्व
का विसर्जन है ।
एक सरल सा बंधन है । जवान
मिले घर बनाया । प्रेम
किया बच्चे किये। बच्चे पल
गये । अब??????
वह सब करो जो हॉबी के
नाम पर छूट गया ।
पति बेचारा कहाँ जिम्मेदार
है???
वह भी तो खटता है दिन
रात!!!!!
अब एक लेखक
को सीधी घरेलू
बीबी मिलती है तो । वह
कविता में रस लाने के लिये
पर स्त्री को माध्यम
बनाने लगे तो????
यह गलत है विवाह के भरोसे
का कत्ल है ।
वैसे ही जटिल
चेतना वाली स्त्री का सरल
सीधा सामाजिक
पति दोषी नहीँ ।
ये रोक न पाये वह तो पशु
ही रहा
भारत जैसे देशों में
जहाँ विवाह वर खोज कर
जात बिरादरी गोत्र
कुंडली मिलाकर और कुटुंब
से बाहर किये जाते हैं तब
नितांत
अजनबी ही मिलते हैं
प्रायः । और ये
अजनबी लङकी के बाप
की औकात न
कि लङकी की मनःस्थिति को देखकर
प्रायः खरीदे जाते है ।
प्रारंभिक वर्षों में जहाँ ये
विपरीत माहौल
परेशानियाँ अनबन देता है
। वहीं एक दैहिक
रिश्ता बाँधता भी है।
विरले विवाह दैहिक बंधन
के बिना भी निभाये
जाते है । और एक
साथी दूसरे
की शारीरिक
तकलीफों के चलते अपने
जिस्म को भुला देता है ।
संताने भी हो लेती हैं और
भीष्म
या सुकन्या का सा जीवन
भी जी लिया जाता है
आज विज्ञान है कुंती के
आगे मंत्र थे । लेकिन परस्पर
विश्वास और निष्ठा में
कमी नहीँ आती ।
समस्यायें हैं तो । संसार के
सामान रिवाज़ और
बच्चों के हित । धोखे
की गुंजाईश कहाँ???
निष्कर्ष
यही कि कुरबानी और
जिम्मेदारी के बीच
ही कहीँ साथी की तरफ
खङे होकर
देखना भी जरूरी है । चाहे
पति हो या पत्नी ढलती उमर
में दुनिय़ादारी और परस्पर
रिश्तों की खींचतान के
बीच बढ़ी हुयी दैहिक
तकलीफें
कमजोरिया बेडौल और
अनाकर्षक
हो जाना मोटापा गंजापन
सफेद बाल झुर्रियाँ ये
पङाब है । उत्सव की तरह
हर दिन निरपेक्ष होकर
जीना और साथी के
प्रति संवेदनशीलता ये
ईमानदार रहना ही इंसान
होना है । जो पंद्रह बीस
साल साथ रहकर
भी धोखेबाज रहे चाहे
पति हो या पत्नी वह स्वयं
को तो छलता ही बने
बनाये संसार को भी अपने
हाथों मिटाकर
पछताता है ।
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सुधा राजे

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