सुधा राजे का लेख :- ग्राम्य जीवन और गऊ

गौमांस खाना भारत में 'अब कोई बङी अनोखी बात नहीं है '
किसी जमाने में बल्कि आज भी जिन गाँवों नगरों में ग़ैर हिंदू जैन और गौ
मांस खानेवाले नहीं रहते या बहुत कम रहते हैं वहाँ गौएँ झुंड के झुंड
गौचारण के लिये घरों से निकल कर चरवाहों के आगे आगे चरती हुयीं जंगलों तक
जातीं हैं और देर साँझ को घंटियाँ टनटनाती हुयी आती है ।
अपने बचपन के अनेक सुमधुर दृश्यों में से एक दृश्य यह भी था टनटनटन की
ध्वनियों के साथ घर में गौशाला के नन्हे बछङे रँभाने लगते और गाएँ भी जोर
से ''अंबाह "की सी आवाज निकालतीं रँभाती तब हम बच्चे तालियाँ बजाकर छतों
पर से चढ़कर गगन तक उङती पीली धूल को देखते और देखते कि हमारी गैया
लक्षमी गौरा भूरी और यमुना के साथ बङे बछङे मंगल और बुध भी अपना दरवाजा
आते ही गौशाला की तरफ झपटते और फाटक पर गरदन रगङने लगते जब तक कि
'तुलसीकाका दरवाजा खोलते गायें और बङे बछङे अपने अपने खूँटे पर अपनी अपनी
नाँद पर जा खङे होते जहाँ पानी के बङे बङे "बाल्टे भरे रखे होते ''दूसरे
वाले बाङे में छोटे बछङे कुदक रहे होते जो "माँ के आने का पता चलते ही
खिलंदङी पर उतर आते और मुँडेर से चढ़ने की कोशिश करते ',
हम बच्चे उनको खोल देते और तुलसीकाका ''हल्ला मचाते भागते ''अरे चोंख लओ
चोंख लओ ''काये बिन्नू राजा हरौ जौ का करौ अपुन ने 'अबई नन्नासाब हमें
डाँटन लगहें '
और हम लोग भाग जाते तुलसीकक्का की 'बेशरम बेल की छङी देखकर '
हालांकि पता था कभी मार नहीं पङेगी फिर भी ।
बछिया बाँधते बाँधते ढेर सारा दूध पी जाती और कई बार अफारा हो जाता, तब
कोंसा बाई और वैद्यजी की 'दवाईयाँ 'हिमालयन बत्तीसा और न जाने क्या क्या
घोलकर नन्हीं बछिया बछङों को पिलाया जाता बाँस की नली में भरकर '।
नगर कसबे गाँव में कोई भी घर ऐसा न था जहाँ गाएँ खङी होकर ''हुंकार न
भरती हो, 'बहुयें निकल कर पहली रोटी गुङ और मुट्ठी भर दूब या पालक चना
आदि की पत्ती लाकर गौमुख में रखती और गौ माता की गरदन पीठ खुजलाती ',
अगर गोबर मिल जाता यदा कदा तो घर भीतर ले जाती ',
गोवर्धन पूजा 'गौवत्स द्वादशी गुरुवार पितृपक्ष और लगभग हर त्यौहार पर गौ
माता को तिलक लगता आरती होती और सींग खुर पर वार्निश रंग गेरू केल रँगे
जाते ',ग्वालों को कपङे और रुपये पैसे दिये जाते और गौमाता के लिये हर
साल जाङों में ''कपङों में कपङों की परतें बिछाकर ओढ़ने हेतु "झूल "नामक
पहरावन कपङा सिला जाता 'पाँव में गोल खोखले पीतल के पैजना और सीगों पर
रंगीन मोती गले में घुँघरू और घंटी ।
कोई कोई गाय बहुत तेज भागती तो बङी भी भारी लकङी गले में टाँग दी जाती
जिससे गाय धीरे चलती और फसलों में नहीं जा पाती ।
लोग जब कटाई करते तो ''बालिश्त भर खूँटिया छोङकर काटते कटे खेतों में
',गरीब परिवार "सिलौ "बीनते यानि गिरी हुयीं बालियाँ उठाते 'जो कई
क्विंटल तक हो जाती इकट्ठी होने पर और बरसात आने तक गौएँ सबके खेतों में
निर्बाध चरतीं ।
बरसात की पहली फुहार पङते ही 'हरे हो जाते चारागार और गोबर पाथना बंद
करके खाद के लिये पङने लगता ।
कोई धोखे से भी गौ को डंडे से नहीं पीटता, 'बस ऐसे ही आवाजें लगाकर हटा
देते या बुलाते ।
गाएँ सङक के एकदम किनारे चलतीं किसी दक्ष मानव की भाँति ',और चरवाहे की
आवाज पर रुक जाती मुङ जाती, 'तालाब में पानी पीती नहातीं और पीली सफेद
लाल कत्थई भूरी चितकबरी गौएँ, 'घर घर दूध दही घी माखन छाछ मट्ठा पनीर
मावा ''की मटकियाँ भरे रखती ।
स्मृतियों का दूसरा चित्र बहुत धुँधला नहीं है, 'कि हम सब बच्चे रात को
बङे बङे नक्काशीदार पीतल के गिलासों में दूध पीकर सोते थे और सुबह दही की
लस्सी या दूध रोटी खाते, अकसर परांठे देशी घी से ही बनते या नैनू (नवनीत)
रोटी का नाश्ता होता, खीर महेरी दलिया और मावों से बनी घर की मिठाईयाँ
सदा ही अदल बदल कर घर के किसी न किसी बुखारी आलमारी या लकङी के संदूकनुमा
जाली में रखी ही रहती 'नाम बदल जाते अतिथियों के किंतु पकवान सारे हम लोग
ही खाते विशेषकर ''मगद के लड्डू मालपुआ और लौकी की बरफी तथा कत्थई वाले
पेङे ""
एक दो घटनायें सुनी और समझी सुधि आतीं है कि किसी ने जंगल में ज्वार
बाजरा के खेत मे घुसी गौ को हटाने के लिये उलटी कुल्हाङी की बेंट मारी और
लोहे का फाल लग गया, या किसी से लाठी लग गयी गुस्से में 'गौहत्या का कोई
इरादा नहीं था फिर भी ""पाप ""हो ही गया तो, घर के भीतर नहीं गया बागर से
ही ''दो कपङे और "भीख माँगकर ''तीर्थ पर चला गया "प्रायश्चित्त का सप्ताह
बिताने '। वहीं रहकर अनेक घरों से भीख माँगकर ""पूँछ के बाल दिखाकर लाठी
पर ""दोषी है भाई,,,
लोग चुपचाप भीख दे देते और 'उससे गौदान करके हवन यज्ञ करके तब घर आते और
फिर गौ सेवा में लग जाते ।
चौथ के दिन ग्वाले दूध नहीं बेचते ',बच्चों को हर पंद्रहदिन पर मुफ्त दूध
मिलता, 'जी भरकर ।
ये तब की बातें है जब "इंटरनेट मोबाईल कलरटीवी नहीं थे और '
लोग शैम्पू से बाल नहीं धोते थे पेस्ट और ब्रुश नहीं करते थे और हर घर
में यूरोपियन कमोड भी नहीं थे तब, जन्मदिन पर केक नहीं कटते थे और लोग
दहेज में लैपटॉप बाईक कार नहीं माँगते थे ',तब बारातघरों में शादियाँ
नहीं होती थी और झूले बालकॉनी में नहीं बाग में होते थे ।
तब लङकियों को कोई इतना घूरता नहीं था और पानी फ्रिज से नहीं घङे और
डंडीवाले लोटे से निकालकर "गंगासागर से पिया जाता था 'तब थालियों में
कटोरियाँ होती थी और तब 'मील "को भोजन कहा जाता था ।
जनमानस के भीतर गौ 'धरती कृषिभू राष्ट्र जन्मभूमि माता पिता गुरु और अपने
परिवार के प्रति 'अपनत्व के संस्कार थे ।
तब गाय बिआने पर 'सात दिन तक 'तेलू (खीस) बाँटी जाती थी गुङ सोंठ मिलाकर
पकाकर ',तब घर में दूध पीने से पहले 'अनाज में पकाकर खीर बनाकर और घी
निकालकर दिये देवस्थल पर चढ़ाकर ही लोग घर में दूध पीते ।
ग्रामीण जीवन की रीढ़ रहा है पशुपालन "कृषक के जीवन की कल्पना भी बिना
पशुओं के की ही नहीं जा सकती ।
गाय कोई मांस या दूध मात्र का जानवर न होकर एक परिजन होती ''अम्मा के बाद
गौ माता का ही दूध दही घी मावा छाछ पीकर लङके पट्ठे हो जाते और अखाङों
में लंगोट के झंडे बनाकर मुकाबिले जीते जाते अखाङा "ब्रह्मचारी होने की
पहली सीख से प्रारंभ होता और विवाह होते ही बंद हो जाता ',किंतु नयी
पीढ़ी आकर जगह ले लेती ।
लङके केवल हुल्लङ नहीं करते थे तब,, दम साध कर घंटों कसरत करते खेतों को
सोना उगलने पर विवश कर डालते और देश की सेवा में सीमा पर जा भिङते ।
गाँव नगर कसबे के बङे बुजुर्ग सबके बङे होते थे और किसी का भी बच्चा गलती
कर ही नहीं पाता क्योंकि कोई न कोई बङा बुजुर्ग तो देख कर टोक ही देता था

तब लोग टीवी नही देखते थे कबड्डी और खोखो के मुकाबले जीतते और तैराकी की होङ लगती ।
गौ बचेगी तो भारत फिर से बचेगा
©®सुधा राजे


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