सुधा राजे का स्तंभ :- '

सुधा राजे का लेख ''कॉलम ''स्त्री ''
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"ये धर्म भक्ति है या भय? ''
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बॉलीवुड की फिल्म या सास बहू छाप टीवी सीरियल में जब भली बहू को पसंद
किया जाता है 'या कोई भली बुरी स्त्री की तुलना होती है तो कुछ पहचान आम
होती है भली बहू की ',वह भोर बङी सुबह सबसे पहले जागकर घर की झाङू लगाकर,
सबसे पहले नहाकर, सीधे पल्लू की साङी सिर पर ओढ़े पीठ पर लंबे बाल फैलाये
बङी सी बिंदी लगाये तुलसी मईया को पीतल या तांबे के लोटे से जल चढ़ाती
हुयी बङी ही सुरीली मीठी आवाज में भजन गाती है, और जब वह मगन होकर आरती
करती है तो सब, अलसाते हुये देर तक सोने वाले चिढ़कर उठते है और एक दो
लोग चौंककर उस भली "बहू "पर वारी वारी जाऊँ की तरह मोहित हो जाते हैं ।
रोजमर्रा के जीवन में भी देखें तो महिलाओं की सबसे अधिक कतारें मंदिर,
मज़ार, दरग़ाह, सतसंग, प्रवचन, भजन, और धार्मिक कार्यक्रमों में दिखती है
'फिर चाहे चारधाम यात्रा हो या सांई दरबार या पीर मजार चर्च हो 'धर्म का
सारा कारोबार और धूमधाम सबसे अधिक स्त्रियों के दमखम पर जारी है ।
चाहे नवरात्रियाँ हो, या कोई गुप्त पूजा पाठ, कर्मकांड से परे व्रत
अनुष्ठानों की अपनी ही एक दुनियाँ स्त्रियों की आस्थाओं की रची बसी खङी
है ।
भली बहू बेटी माँ दादी मतलब वह स्त्री जो, सुबह जल्दी उठकर बारहों महीने
जस्दी नहाकर बिना कुछ खाये पिये पूजा पाठ करती हो ।बचपन से ही । और विवाह
के पहले से ही सोलह सोमवार या शुक्रवार या प्रदोष या गुरूवार या अन्य कोई
व्रत पूजा पाठ करके भावी पति ससुराल और घर वर 'माँग कर अपना भाग्य जगाती
हो ।जो विवाह के बाद इतनी सती तेजस्वी हो कि उसके "सत्त" के प्र्ताप से
हर संकट ससुराल पर से पति पर से हट जाये जैसे आग से तपकर कागज जल जाता है
वैसे ही हर परस्त्रीवांछा रखने वाला कामी चरित्रहीन उस "सत्त धारिणी ''की
ओर देखते ही अंधा हो जाये छूते ही जल मरे ।
जो यमराज से भी अपने पति को छीन ले अपने सुहाग व्रत की भयंकर साधना के तपबल से ।
वही भारत की महान नारी है ।यदि पति को जरा भी कुछ होता है तो उस नारी के
"सत्त "में तेज और सतीत्व में प्रताप नहीं, व्रतोपवासादि में साधना नहीं,

इसीलिये करोङों भारतीय स्त्रियाँ प्रतिवर्ष दर्जन भर व्रत "सुहाग "की
दीर्घायु के लिये रखतीं हैं ।जैसे करवाचौथ, वटसावित्री, गणगौर, हरितालिका
हङतालतीज, सौभाग्यसुंदरीव्रत,और विविध तिथि त्यौहारों के व्रत '।
ये स्त्रियाँ पुत्र पाने के लिये और पुत्र हो जाने पर पुत्र की दीर्घायु
के लिये भी अनेक व्रत रखती हैं ',अहोई अष्टमी, हलषष्ठी,,संतानसप्तमी,
लोलार्क षष्ठी, पुत्रदा एकादशी, प्रदोष, द्वादश फाल्गुन पयोव्रत आदि, ।
वैसे भी साल भर में कभी 'वैभव लक्ष्मी कभी एकादशी कभी आशादशमी तो कभी चौथ
और साँते आँठे 'के अनेक व्रत करतीं रहतीं है ।कुछ नहीं तो विविध ग्रहों
की शांति और देवताओं की कृपा के लिये व्रत पूजा और फिर कथा रामायण सतसंग
तीर्थाटन मंदिर मजार पीर जियारत अलग से ।
प्रश्न उठता है कि, क्या वास्तव में स्त्रियाँ "ईश्वर की भक्त हैं ईश्वर
पाकर मोक्ष औऱ आत्मकल्याण माँगतीं हैं अथवा इन सब व्रत उपवास पूजापाठों
के पीछे "कहीं 'डर 'भय 'आतंक, रहता है? जबकि लगभग हर स्त्री है कि
माँगती रहती है "सुहाग, भाई भतीजे 'पुत्र और क्या!!!!!
ये पूजा पाठ आस्था ईश्वर के दर्शनों या ईश्वरीय दुनियाँ में जाने के लिये
"कितनी स्त्रियाँ करती हैं जिसमें "आत्म कल्याण मुक्ति मोक्ष या
भगवत्कृपा प्राप्ति की साधना है?
बेचारा भगवान और निरीह औरतें!!!!!
डरी हुयी बेबस स्त्रियाँ? या वाकई आस्था?
वह पूजा तो बेशखक करती है भगवान की किंतु माँगती है "पुत्र? पति की लंबी
उमर सुहागिन मरने की कामना? ससुराल की प्यारी? रूपवती ताकि पति सौत न
लाये? पिता को धन के अंबार ताकि लोग दहेज पा सकें,? रोजी रोजगार पति के
लिये ताकि बच्चे पल सकें? पुत्र संतान ताकि उसका उत्पीङन न हो और अपमान
से बची रह सके?
मतलब ये आस्था और पूजा पाठ व्रत उपवास केवल "भय "की वजह से!!!!!!!
डर विवाह न होने पर समाज की नजरों का?
डर पति को कुछ हो न जाये वरना विधवा होकर तबाही झेलने का?
डर पुत्र न होने पर तानों और अपमान और नीची हैसियत रह जाने का? डर रूप
रंग धन कम होने होने पर सौत का या पति की प्यारी न रह जाने का?
हजारों तरह के भयों और डरों "की मारी स्त्रियाँ, तरह तरह की 'इच्छायें
लेकर जब चंट चालाक बाजारी बाबाओं साधु संत औलिया मौलवी पादरी तांत्रिकों
के पास जातीं हैं तो अपनी अनुभवी कुशल मनोवैज्ञानिक बातचीत से वे उनको
फाँस कर तरह तरह के प्रलोभन उनकी मनोकामना पूरी करने के देते हैं और ठगते
हैं ।अनेक बार तो स्त्रियाँ लूटपाट बलात्कार और ब्लैकमेलिंग की' शिकार तक
हो जाती हैं ।
फिर भी गजब है कि सबसे ज्यादा भीङ धर्मस्थलों पर स्त्रियों की ही है।
जैसे जैसे स्त्रियाँ 'स्वावलंबी और कमाई, पढ़ाई लिखाई, ताकत हिम्मत दौलत
शोहरत हुकूमत और हुनर में स्वयं के दम पर न केवल अपना बल्कि परिवार का
जीवन पाल पोसने लायक होती जाती है
""ये डर कम होते जाते है "
और 'शुद्ध भक्ति तो बङी ऊँची शै है, 'किंतु ऐसे मजबूत स्त्रियों की
आस्था चूँकि निर्भीक होती है तो आध्यात्मिक स्तर पर उनका ज्ञान विज्ञान
विचार सोच और अभिव्यक्ति ही केवल शक्तिशाली नहीं होता अपितु उनको 'ठग
साधु संत मौलवी पादरी और भयादोहन करने वाले फकीर तांत्रिक भी नहीं ठग
पाते ।
वस्तुतः तब ही कहीं जाकर ''स्त्री का भगवान से परिचय होता है, 'जबकि
स्त्री होने मात्र से जुङे भय समूल खत्म हो चुके होते हैं ।
रहा प्रश्न धर्म में स्त्री का स्थान? तो कुतर्क से चाहे भले ही कोई
मुर्गे की तीन टाँग बोलता रहे ', मोक्ष, संन्यास, मठ, आश्रम, संतई और
भगतगीरी में स्त्री का कोई स्थान धर्म नहीं देता है, '।
स्त्री का भगवान पति को बताकर 'पति की ही सेवा पूजा आराधना करके ही मोक्ष
मिल जायेगा यह भी घोषित कर दिया गया है ',और तर्क दे दिया गया कि 'अंध
बधिर रोगी अति दीन, ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री सौ सौ नर्क भोगने
पङते हैं ।
मरकर वह क्या भोगेगी क्या नहीं किंतु एक सामान्य आदमी की स्त्री को "पति
की नाराजी, मन से उतरने, रूठने, क्रोधित होने, छोङ देने या मर जाने पर
जीते जी वास्तव ही में सौ सौ नर्क झेलने पङते हैं । ऐसा सब केवल इसलिये
क्योंकि न तो उसके पास ज़मीन ज़ायदाद होती है, न ही बैंक में धन और बँधी
हुयी रोजी रोजगार न ही, समाज ऐसा है जो एक साधारण स्त्री को, अकेली बिना
टोके रोके छेङे, डराये धमकाये जी लेने दे ।
विवाह की अऱेंज मैरिज की भारतीय प्रणाली ही 'लङकी को पहले ही मोङ पर कमतर
और अपाहिज बना देती है जहाँ लङकी केवल पसंद की जाती है ।
चार आयु आश्रमों की व्यवस्था देनेवाला भारतीय धर्मसंकलन भी इज़ाजत नहीं
देता कि 'स्त्री आत्म कल्याणार्थ पति के जीवित रहते धार्मिक कारणों से
वैराग्य ले ले 'या वनवास पर कुटिया में बिना परिजनों को लिये चली जाये,
'।
स्पष्ट व्यवस्था वेद न पढ़ने की उत्तरवैदिक युग में कर दी गयी, और हर
स्तोत्र, सूक्त आदि में "प्रार्थनायें पुरुष वाचक है और सब प्रार्थनाओं
का सार यही है कि ' "इस पाठ को पढ़ने पूजने से ""धर्म अर्थ काम मोक्ष इन
पुरुषार्थ चतुष्टय की कामना पूरी होगी ',न कोई स्त्री हेतु पूजाफल है न
कोई बिना पुरुष के करनेवाली पूजा यज्ञ हवन समाधि की व्यवस्था ।
तो क्या ""धर्म और ईश्वर स्त्री के लिये नहीं????
या ये ईश्वर वह केवल पिता पुत्र पति के लिये रिझाने वाली मध्यस्थ
"पुजारिन मात्र है?????
या इस देवीपूजकों के देश में जहाँ अब तक बहुत कम कोई शक्तिपीठ ऐसा हो
जहाँ पुजारिन की गद्दी पर स्त्री हो?
आधुनिक काल मनमानी पूजा का संक्रमण काल है और इसलिये तरह तरह की ""माताजी
""नित नये समाचार बन जाती है 'किंतु पूजा के व्यवसायिक संगठनात्मक रूप
पुरुष का ही बोलबाला है और स्त्री पुरुष पुजारियों से घिरे मंदिर में
भूखी रहकर पुरुष के लिये पद पैसा सोना चांदी रोजगार पुत्र पति की लंबी
आयु आदि माँगने जाती ।
कुमारी कन्या को दुर्गा का विग्रह मानकर पूजता पुरुष 'पुजारी हेता वक्ता
स्वयं है, विवाहोपरांत मात्र बांयी तरफ बंधन ओढ़कर बैठने को 'ईशाराधन का
हक नहीं कहा जा सकता, ।
एक कृष्ण के पीछे 'गोपी सखी बनी 'स्त्री की चर्चा किये बिना बात पूरी
नहीं होगी, ' कि मिथक या कथा जो भी माने यह तय होता है कि स्वयं कृष्ण ने
'विरही गोपियों को निराकार ब्रह्मोपासना करने और कृष्ण को भुलाने का
निवेदन उद्धव के द्वारा करवाया, जबकि ब्रजमण्डल की गोपियों ने जिद वश
कृष्ण की भक्ति की '। यह वही मथुरा वृन्दावन है जहाँ दो सौ सालों से
बंगाल और दक्षिण भारत से विधवायें, अकेली भटकने जबरन छोङ दी जाती हैं लो
करो अब भक्ति ',क्योंकि स्त्री को विधवा होने से जलाना कानूनन भयंकर
अपराध क्षमा नहीं होगा ।
यह शोध का विषय है कि 'स्त्री की आराधना में उसका निजी आध्यात्म धर्म और
ईशप्राप्ति की कितनी हिस्सेदारी है और वैधव्य बाँझपन सौत और पति का साथ
छूटने अच्छा घर वर न मिलने का भय कितना ।
नोट --अपवादों के आधार पर समाज नहीं चलता ।हर चीज के अपवाद की तरह बहुत
कम स्त्रियाँ विशुद्ध ईशाराधन के लिये भक्त हो सकतीं है बात गिनी चुनी
नहीं समग्र आम घरेलू स्त्रियों की है '।
©®सुधा राजे
ग्वालियर —&—बिजनौर


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