सुधा राजे का स्तंभ:- स्त्री और समाज - घरेलू हिंसा

घरेलू हिंसा
:सुधा राजे ' का लेख '
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इसकी मूल वज़ह आर्थिक निर्भरता तो है ही साथ ही साथ समाज का वह ताना बाना
भी है जिसमें ग्रामीण कसबाई स्त्री हो या महानगरीय आधुनिक उच्चशिक्षिता
',लोग एक स्त्री को खेत पर चारा काटते घास छीलते फसल उसाते पशु चराते
'कंडियाँ बीनते और बोझ भर लकङी सिर पर उठाकर घर लाते या सब्जी बेचते
देखकर घरों में बर्तन झाङू पोंछा कपङे धोने की महरी दाई सफाई वाली या
शौचालय साफ करती, या सङकों पर झाङू लगाती देखकर जरा सा भी नहीं चौंकते ',
किंतु जैसे ही एक लङकी आधुनिक सुविधाजनक पोशाक पहन कर बाईक या कार
चलाती हुयी ऑफिस के लिये निकलती है लोग आज भी ''एलियन ''समझकर घूरना
फिकरे कसना चाहने लगते हैं ।कौन है किस घर से है किसकी बेटी है शादी हुयी
या नहीं, बच्चे कितने हैं, लङके कितने कितनी लङकियाँ, बाप करता क्या है
'भाई कितने हैं कौन हैं 'पति कैसा है दिखने में कौन है क्या करता है 'ये
स्त्री क्या करती है कितनी पढ़ी लिखी है किस पद पर है???????????
सवालों का अंत नहीं!!!!!!!!!!!!!
जैसे उसका सबसे बङा गुनाह स्वावलंबी होना है या स्त्री होना ये पता लगाना
बङी ही कठिन परीक्षा ।
स्वावलंबी तो वे महरी दाई मजदूर किसान साफ सफाई वाली स्त्रियाँ भी हैं
किन्तु अन्तर है "सत्ता का हक़ का हनक और दमक का और निर्णायक भूमिका का ।
समाज को सदियों से 'निम्नकोटि का समझे जाने वाले कार्यों को स्त्रियों से
करवाने की आदत पढ़ चुकी है।शूद्र और स्त्री दोनों को हर तरह के अधिकार से
वञ्चित रखा गया ।शूद्रों के परिवार में भी पुरुष उस समुदाय के निर्णायक
और स्त्रियाँ सेविकायें और निम्न समझी जाने वाली सेवाओं को करनेवाली मशीन
'।
लोगों को अभ्यास पङ चुका है स्त्रियों को कुट्टी काटते, उपले कंडे पाथते,
गाय भैंस नहलाते चराते दुहते, घर सङक और हॉस्पिटल साफ करते शौचालय साफ
करते झाङू लगाते बर्तन माँजते कपङे धोते, गोबर उठाते, फसल काटते, गन्ना
छीलते, घर के बाहर के लोगों की सेवा करते आवभगत और जूठन उठाते, खाना
पकाते, रोटी बेलते आटा गूँथते, स्वेटर बुनते, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई करते,
देखते रहने और सेवायें कराने की ।इन सेवा कार्यों को भी अगर स्त्रियाँ
बङे और व्यवसायिक पैमाने पर करना शुरू कर दें कि आय बढ़ जाये और वे
पूर्णतः आर्थिक आत्मनिर्भर ही नहीं परिवार का संतान का और अपनी
आकांक्षाओं का सारा व्यय स्वयं वहन करने लग जायें, 'तो यह एक बग़ावत जैसा
क़दम माना जाता है मसलन 'धुलाई का काम करने के नाम पर पुरुष सारा कपङा घर
लाकर पटक देते और स्त्रियाँ दिन भर कपङे नदी तालाब या घर के हैंडपंप पर
कूटतीं रहतीं थीं ।आज भी कसबों गाँवों में यही हाल है ।किंतु यदि स्त्री
पिता पति की गुलामी को जरा सा परे रखकर 'लॉउण्ड्री "खोलने और रफू,
ड्राईक्लीन 'आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक मशीनों से कपङे धोने सुखाने रँगने प्रेस
करने जरी पर टरक चढ़ाने आदि की पूरी व्यवसायिक यूनिक खोल ले तो???
अकसर यह बात हज़म नहीं होती । घर की हाथ वाली सिलाई मशीन और सुई धागे से
हजारों कपङे सिलतीं शरणार्थी सिन्धी पंजाबी मुसलिम स्त्रियाँ हमने अपने
बचपन में देखीं, किन्तु बाज़ार में दरजी हमेशा पुरुष ही देखा, जैसे ही एक
स्त्री ने विधिवत टेलरिमग मार्ट या वर्कशॉप बङे पैमाने पर करना शुरू किया
'वह समाज की बाग़ी लगने लगी और अखरने लगी ।
ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ ऐसा नहीं कर सकतीं 'या कर ही नहीं रही है 'बेशक आज
बहुत सी स्त्रियाँ अपने सीमित स्तर पर सिमट कर रह गये हुनर को 'बङे स्तर
पर व्यवसायिक रूप देकर काम करने के साथ निर्णायक भूमिका निभा रहीं हैं
किन्तु पचास करोङ के लगभग महिलाओं की तुलना में उनकी गिनती नहीं के ही
बराबर है 'और आज भी वही रवैया जारी है कि 'पति या पिता की दुकान तक पर
स्त्री का काऊन्टर पर बैठना 'दुर्लभतम 'अवसर की श्रेणी में आता है ।जहाँ
दस साल का लङका कमाने के बारे में सोचने लगता है और बीस का होते होते घर
के व्यवसाय में हाथ बँटाने या अपना कारोबार खङा करने की सोचता है वहीं
'लङकी को परिवार की सेवा में माता और दादी की ही तरह खपाने की सोच हावी
है ।विवाह को जो लङकियाँ मायके के बंधनों ये मुक्ति की वजह मानतीं हैं वे
ही अकसर विवाह के बाद खाई में जाकर सदा सर्वदा को खप कर अस्तित्वविहीन
होकर बँधुआ बेगार मजदूरी में फँसी रहकर जीवन भर पछतातीं हैं ।
स्त्री को उच्च शिक्षा के सिवा कोई मार्ग ही नजर नहीं आता स्वावलंबी होने
का । और जो जो छोटे मोटे सेवा कार्यों से निम्नकोटि का जिन्हें समझकर
बेसहारा गरीब या कमजोर वर्ग की समझकर स्त्रियों को करने दिया जाकर 'चंद
रुपये मिलते हैं या 'रहने खाने पहनने भर की सहूलियत वह सब इतना पर्याप्त
कतई नहीं होता कि एक स्त्री अपने 'माँ बाप और बेसहारा भाई बहिन या संतान
का बोझ आराम से उठा सके ।
ये सब समझने की बात है 'कि कम पढ़ा लिखा पुरुष दरजी, हेयर ड्रेसर, किराना
दुकानदार, बेकरी, लॉण्ड्री पॉल्ट्री, फिशरी, मधुमक्खी पालन, रेशम
उत्पादन, खादी या थोक सामान सप्लाई की दुकान, रेडीमेड वस्त्रों की दुकान
या कपङों की थान या सोना चांदी हीरों का 'व्यापारी हो सकता है!!!!!!!!
किन्तु कम पढ़ी लिखी या सामान्य पढ़ी लिखी स्त्री का 'सरकारी या प्रायवेट
नौकरियाँ छोङकर अन्य कोई कार्य व्यवसायिक रूप से पूँजी या हुनर के दम
पर करना आज भी अजूबा है ।
ऐसा माहौल बनाकर रखा गया है कि 'स्त्री दुकानदार या स्त्री प्रोफेशनल्स
को "एलियन "की तरह देखा जाता है ।
इस सबसे बाहर निकलना तो आखिर स्त्री को ही होगा ।
किंतु शासन प्रशासन में भी बङी भेदभावी मनोवृत्ति के लोग बैठे है 'स्त्री
बङे नगर में बहुमंजिला इमारत की मजदूर तो हो सकती है ',किंतु
कॉन्ट्रेक्टर तब तक नहीं जब तक कि उच्च शिक्षित और बङी मजबूत बैकग्राऊण्ड
वाली फैमिली से ना हो ।ऐसी ही सोच के चलते 'स्त्रियों को रोज़गार देने की
जब नीतियाँ बनायीं जाती है तब उनको मजदूरी और मामूली आय के हुनर भर की
कमाई वाले कार्यों में खपाने की सोच लेकर योजनायें रखी जाती है ''ताकि वे
केवल अपने खुद के खर्च उठा सकें "जबकि आज हर तीसरे चौथे घर की स्त्री
घरेलू हिंसा की शिकार सिर्फ इसलिये बरसों तक होती रहती है कि वह अपना पेट
तो जैसे तैसे भर लेगी किंतु अपनी संतानों या बुजुर्गों सहित पूरे परिवार
का 'मकान कपङा भोजन दवाई पढ़ाई और आवागमन का व्यय कैसे उठाये?????
इसलिये क्या अब सही वक्त नहीं है कि एक स्त्री की "सामान्य शिक्षित या
अल्पशिक्षित या अनपढ़ होने पर भी "वह कम से कम पाँच लोगों का पूरा व्यय
उठा सके सामान्य घर भोजन पढ़ाई और आवागमन का ''इतनी तो आय़ के साधन संसाधन
और काम काज करने देने की सामाजिक समझ मानसिकता अनुकूल माहौल विकसित हो ही
जाना चाहिये!!!!!
©®सुधा राजे


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