पाँव खुद काट के दिये उसनेजैसे बैसाखियों के कहने पै ।।

पाँव खुद काट के दिये उसने
जैसे बैसाखियों के कहने पै ।।
चुन लिया दर्द का घना जंगल ।
जैसे आबादियों के कहने पै ।।
जो गिरा दें तो उठ नहीं पाते
साथ वो उनको ले चली आयी ।।
हर तरफ अज़नबी निग़ाहें थी ।
सख़्त बरबादियों के कहने पै ।
जल उठे जब जहेज़ के दोज़ख ।
सुर्ख जोङे बरीं के रोते थे ।
तख्ते शब आँसुओं की शहनाई
झूठ की शादियों के कहने पै
इक सहेली की याद यूँ आई
तू जो ज़िंदा है खुद उठा ख़ुद को ।
ग़ैर के दोश पर ज़नाजे सी ।।
क्यों सुधा हादियों के कहने पर ।
©सुधा राज

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