प्रेम झंझावात् सा आया उङा कर लेगया ।

प्रेम झंझावात् सा आया उङा कर ले
गया ।
इस जगत् की वाटिका में जो भी कुछ
निस्सार था ।
थे अपरिचित से कई नाते कई संबंध भी ।
तोङ डाले सूखते द्रुम व्यर्थ का
कुछ विस्तार था ।
थी त्रिपथगा नेह की मन आत्मा तन
जीव जग ।
उत्तप्लवन में बह गया सब मैल
जो अधिभार था ।
आँसुओं ने धो दिये सारे कलुष हर
कामना ।
प्रेम डूबी सुक्ति मुक्ता शुद्ध
शुचि संसार था ।
खोये बिन पाता नहीं कोई यहाँ कुछ
भी सुधा ।
पा लिया सर्वस्व खोकर जो वही भव
सार था ।
©सुधा राजे

Comments