सुधा राजे का आत्मालाप *मुक्ता या जूता*

आत्मालाप 
*मुक्ता या जूता*
भाग्य को कोसने और भगवान को मनाने से भी जब हालात नहीं बदलते तब मनुष्य स्वयं के आदर्शों पर से विश्वास खो देेता है ,अच्छा होने का उसे पुरस्कार चाहिये हर तरफ केवल सबकुछ अच्छा ही हो उसके साथ और वह सुखी रहे स्वस्थ रहे संपन्न रहे लोग उसे जाने पहचाने माने सम्मान प्रेम और उपहार दें ,मनुष्य के लिये सबसे कठिन होता है रिश्तों से निज़ात पाना । भारत हो या यूरोप माता पिता बहिन भाई पति पत्नी पुत्र पुत्री और मित्र बाॅस पड़ौसी सहयात्री और दुकानदार ग्राहक क्लाईंट ............प्राय: सब के सब में कोई न कोई कमी हम सबको लगती ही है ,ठीक वैसे ही जैसे हम जिन जिन के जो जो लगते हैं हमसे भी हमारे पड़ौसी सहयात्री माता पिता भाई भाभी बहिन जीजा सास ननद देवर साले साली सलहज जेठ जेठानी देवरानी पति पिता पुत्र पत्नी बहू नाती पोते समधी .......बाॅस ग्राहक क्लाईंट ....कर्मचारी सहायक मातहत .....शिकायती ही रहते हैं ।
आज एक लेख पढ़ा ""स्टेपनी "बदल दीजिये बाबूजी ,शब्द गहन विचारों में उतर गया । बार बार रिपेयरिंग माँगता जूता हो या पहिया बदल ही दिया जाना चाहिये ...........ऐसे """#रूठे सुजन मनाईये जो रूठैं सौ बार ""का आदर्श हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है ..........आज मुक्ता फिर फिर पोने की बात गलत साबित हो रही है । पदार्थवाद हावी है और "सुजन "जब प्रेम सेवा सद्भाव सुश्रूषा से अधिक बहुत अधिक ,,,,,,,,,,,धनलोभी पदार्थ बुभुक्षु हो जाते हैं "~~~~~तब उनको फिर फिर पोने से भी हार नहीं बनता बल्कि "हार"होती है मन की आदर्श की संबंधों के सांस्कृतिक स्वरूप की । एक पुरुष यदि भोजन वस्त्र भवन संतान पिता माता सबकी भरपूर सेवा और कठोर सुदृढ़ सतीत्व का पालन करने वाली पत्नी से भी अपनी क्रूरता नशाबाजी गलत सोहबतों दहेज और उपदहेज और छटी भात चौथ त्यौहारी नेग तीज आदि की वसूलियाँ लेकर भी असंतुष्ट रहता है । तब स्त्री क्या करे ?स्टेपनी बदल ले या जूता ?या फिर मुक्ताहार पिरोती रहे "सौ "बार से भी ऊपर ?,,,,,,ठीक इसी तरह पूरी कमाई लेकर हर तरह की सुख सुविधा पाकर श्रम दायित्व कम से कम होने पर भी पति पुत्र पिता भाई सबसे सुखी रहकर भी यदि स्त्री का मन नहीं भरे और वह लालच लिप्सा कलह क्रोध से आलसी द्वेषी दंभी ही रहकर सबके लिये कलंक मढ़ती रहे तो ,,,,,,,,पति क्या करे ?स्टेपनी बदल ले ?पिता क्या करे ?जूता बदल ले ?भाई क्या करे दूसरी गाड़ी में जा विराजे ?:::::::::सवाल हर नाते रिश्ते की अस्मिता पर हैं !!!!
हममें से बहुत से लोग दुखभरा कंटकाकीर्ण वेदनामय जीवन मात्र किसी या कुछ लोगों के नाते रिश्ते को ""विवश ""होकर ढोते रहने के कारण ही जीते रहते है मर मर कर जहर पीते रहते हैं । 
क्योंकि रिश्ता स्पेपनी नहीं है 
क्योंकि रिश्ता जूता नहीं है 
क्योंकि रिश्ता गाड़ी नहीं है 
पति से तलाक लेकर बच्चों का शान से स्वयं की कमाई पर पालन पोषण करने में सक्षम कितनी स्त्रियाँ है ???
वे स्टेपनी नहीं खरीद सकतीं ,ना उनको सही गैराज का मूल्य चुका पाना है ?
पत्नी के तलाक उपरांत बनते भरण पोषण व्यय बच्चों के जीवन में अचानक आपड़ने वाला भूकंप झेलने और कचहरी अदालत का चक्कर चलाने की मोहलत नहीं है तो ?
बुरी संतान से छुटकारा पाना तो सबसे कठिन कार्य है 
क्योंकि संतान से तो तलाक भी नहीं होता !!!!!!
रोज पढ़ते हैं हम सब वर्गीकृत विज्ञापन "मेरा उससे कोई लेना देना नहीं उसके किसी भी कृत्य का मैं जिम्मेदार नहीं "
परंतु क्या सचमुच !!!!
इतने विज्ञापन से पीछा छूट जाता है ??
हम में से बहुत लोग मकान नहीं बदल सकते क्योंकि मकान मुहल्ले में होता है और मुहल्ले के हिसाब से कीमत लगती है तो पड़ौसी से तो न तलाक हो सकता है ना ही उसको विज्ञप्ति देकर संबंध मिटा सकते हैं वह जो भी जैसा भी है उस मकान उस मुहल्ले में रहने तक झेलना ही पड़ता है ।
गाँव त्यागकर नगर , नगर त्याग कर महानगर ,वहाँ से भी विदेश जाने वाले ,पड़ौसियों से परेशान लोग........सरकार से परेशान लोग ,,,,,कर्मचारियों व्यवस्था और समाज से दुखी लोग ......कैसे बदलें जूता स्टेपनी गाड़ी ????
कचहरी थाना अस्पताल आॅफिस से जिसका वास्ता पड़ता है वही तो जानता है कि वह इस नाते से कितना आहत रहता है !!
खेत की मेंड़ जिससे लगती है उसे डौलिया कहते हैं वह दुख देने पर उतारू हो जाये तो जीवन भर दुख देता है ।
मार्ग में सहपथिक वाहन में सहयात्री तक दुख दे देते हैं !!!!
कम या अधिक सही लोग सदा ही दुखी रहते है दुख सहने पर विवश हैं ।
ये विवशता सबसे अधिक तब बढ़ जाती है जब आप स्टेपनी बदल सकते हैं जूता पहन सकते हैं नया वाहन ले सकते हैं परंतु "बार बार पिरोने पर भी साबित होता है मुक्ता नहीं वह नाता तो कीलों भरा जूता ही निकला ""
सादर 
विचारार्थ 
सुधा राजे ©®सुधा राजे

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