सुधा चाँद की नींद खुली

Sudha Raje
मैंने सबकुछ दाँव लगाकर
हारा जिसको पाने में ।।
वही इश्क़ लेकर आया अब दर्दों के मयखाने
में ।।
दिल पर ऐसी लगी ,कि सँभले बाहर,,
भीतर बिखर गये ।।
पूरी उमर गँवा दी हमने बस इक घाव
सुखाने में ।।
अक़्सर बिना बुलाये आकर
जगा गयीं पुरनम यादें ।।
दर्द रेशमी वालिश रोये पूरी रात
सुलाने में
।।
अपना बोझ लिये गर्दन पर कब तक ज़ीते
यूँ मर गये ।।
एक ज़नाजा रोज उठाया ।
अपने ही ग़मखाने में ।।
ता हयात वो खलिश नहीं गयी चार लफ्ज़
थे
तीरों से ।।
जलते थे औराक़ लबों पर जलती प्यास
बुझाने में ।।
आहों के अंदाज़ दर्द के नग्मे खुशी भर
गाता
।।
कितने दरिया पिये समंदर ।
दिल -सहरा को बहलाने में ।।
नदी रेत में चली जहाँ से
भरी भरी छलकी छलकी ।।
सबको मंज़िल मिले नहीं था ये आसान
ज़माने में ।।
शायर जैसी बातें करता पागल कमरे के
अंदर ।।
ले गये लोग शायरी पागल फिर भी
पागलखाने में ।।
कभी यहीँ पर एक रौशनी की मीनार
दिखी तो थी ।।
हवा साज़िशे करती रह
गयी जिसको मार गिराने में ।

मर मर कर ज़िंदा हो जातीं प्यासी रूहें
रात गये ।।
सब आशोब तराने गाते है
डरना बस्ती जाने में ।।
हाथ न छू इक ज़मला बोली
"""ये मेंहदी है जली हुयी""" ।।
मौत मेरे दरमियाँ कसम है तुझको गले
लगाने में।
मुट्ठी में भर आसमान ले बाहों में
जलता सूरज ।
सुधा चाँद की नींद खुली तो टूटे ख़ुम
पैमाने में
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सुधा राजे
sudha Raje
पूर्णतः मौलिक रचना सर्वाधिकार लेखिका सुधा राजे बिजनौर /दतिया

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