सुबूत और स्त्री

Sudha Raje
सुबूतों की आवश्यकता मुझे कभी नहीं थी ।
कभी नहीं थी मुझे शिकायतों की ज़रूरत।

मुझे चाहिये थे हिमायती ।न कभी खोजे
प्रसंशक संरक्षक और अनुयायी।
क्योंकि ।
मैं स्त्री हूँ ।
संपूर्ण स्त्री ।
जिसे हमेशा गाँव जन्मभूमि कुनबा और
परिवेश त्याग कर जाना होता है
नितांत अपरिचित के साथ ।
जहाँ न कोई पुरानी पहचान होती है न
कोई प्रमाण ।
सब फिर से बनाने होते हैं नये नवीन और
पृथक।
सीखना ही नहीं सिद्ध
भी करना होता है।
कोई
नहीं आता बचाने ।
न शब्दों के प्रहार से

पदार्थ के वार से
नितांत
एकाकी ।
कोई प्रमाण साक्ष्य
नहीं होता वहाँ उसके साथ घट रहे दुख
का न ही टूट रहे मन का न बिखर रहे
साहस का न ही विलीन हो रहे अस्तित्व
का ।
अज़नबी शहर गली घर लोग
हवा पानी पदार्थ और विचार।
कोई पहचान नहीं रहती उसकी ।
रह जाती है बस उसपर
थोपी गयी रिवायतें उम्मीदें और फर्ज़ ।
अधिकारों की सूची तो कब की लाल जोङे
की तरह तह करके रख दी जाती हैं
लपेटकर । कभी कभी देखकर मन भिगो लेने
के वास्ते ।
कब कह पाती है वह सहेली से भाभी से
माँ से ।
नीले कत्थई दागों की बातें ।
रक्त के छीटे।
फफोले
और
कब समझ पाते हैं पिता भाई मित्र सुर्ख
होठों कजरारी आँखों पर
दमकती हँसी का रात के अँधेरों में धुल
जाना ।
कोई ग़वाह कब होता है दीवार पर
टकराते सिर का । कब अनुकरण चाहती है
वह अपने तिल तिल मरण का । कोई
हिमायती कब ला पाती है वह अपने माथे
पर लगे निपूती होने के धब्बे का । कब
साबित हो सका है दर्द मन से तन के एक
एक पोर तक बिछी कीलें
कहाँ दिखा पाती है । प्रेम की फसलों के
सपनों का घूँघट डाले वह हर
चलती रहती है चटकते रेगिस्तान में
ओढ़कर
धानी चुनरी ओंठ पर नम बूँदे आँख मूँदकर
पीती कभी माथे से बहता खून
कभी आँखों से बहते आँसू।
इस बोध में भी हर बार भेजना होता है
सुसमाचार । जन्मभूमि के बिछुङे
प्रदेशों को ताकि वे हरे रह सकें आँसुओं के
बादलों से ।
sudha Raje
©सुधा राजे
Apr 23

Comments