दर्द को रिंद के मानिंद पिये जाती है

Sudha Raje
आग के फ़र्श पे इक रक़्श किये जाती है ।
दर्द को रिंद के मानिंद पिये जाती है ।
इक जरा छू दें तो बस रेत
सी बिखरती है ।
एक दुल्हन है जो हर शाम को सँवरती है ।
एक शम्माँ जो अँधेरों को जिये जाती है ।
दर्द रिंद के मानिंद पियेजाती है ।
कुछ तो सीने में बहकता है दफ़न होता है ।
आँख बहती भी नहीं बर्फ़ हुआ सोता है ।
तन्हा वादी में छिपे राज़ लिये जाती है

दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है

जो भी मिलता है धुँआ होके सुलग जाता है

इश्क़ है रूह है आतश में जो नहाता है ।
अपनी ही धुन में वो शै क्या क्या किये
जाती है ।
दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है

सख़्त पत्थर की क़लम है कि वरक़ वहमी हैं

कितनी ख़ामोश जुबां फिर भी हरफ़
ज़ख्मी हैं

ज्यों सुधा दश्त-ए-वहशत में दिये बाती है

दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है
।30/4/2013
All rights ©®¶©®©सुधा राजे ।
Sudha Raje

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