Sunday 27 October 2013

पत्थर चाकू लेकर सोये

Sudha Raje
पत्थर चाकू लेकर सोये
गाँव शहर से परे हुये
रात पहरूये बरगद रोये
अनहोनी से डरे हुये
कब्रिस्तान और शमशानों
की सीमायें जूझ पङीं
कुछ घायल बेहोश तङपते
और गिरे कुछ मरे हुये
रात रात भर समझाती है
पायल वो बस धोखा है
ख़त चुपके से लिखे फ़गुनिया
जब जब सावन हरे हुये
फुलझङियाँ बोयीं हाथों पर
बंदूकों की फसल हुयी
जंगल में जो हरे कुञ्ज थे
लाल खेत हैं चरे हुये
बारीकी से नक्काशी कर
बूढ़े नाबीने लिख गये
पढ़ कर कुछ हैरान मुसाफिर
रोते आँखे भरे हुये
ज्यों ज्यों दर्द खरोंचे मन की
कालकोठरी पागल सा
मेरे गीत जले कुंदन से
सुधा "हरे दुख खरे हुये।
©®sudha raje
Jul 20

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