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Showing posts from October, 2013

अपने ज़खम दुखाने आते है

सपना देखें

फिर मुँह दिखाई सी

लगी फिर मुँह दिखाई सी

मेंढकी की नाल और घोड़े का तालाब

दिल अंगारे और भी है

दुनियाँ मिटाने में लगे हैं

सुधा कहानी लहू भरी लिखती हूँ जो अ'श'आरो

सुबूत और स्त्री

मुझे जाना पङेगा

मुझे जाना पङेगा

दीवारों में हमको चिन गये

हवा शरमाई सी क्यूँ है

मैं तेरा ज़ाम हो जाऊँ

कोई याद आ रहा है

निशा किसे बुला रही

गीतों के गाँव गाँव के सपने

राजेन्द्र यादव के अमूल्य शब्द। सुधा राजे की डायरी से एक साक्षात्कार के दौरान।

परछांई

सुधा राजे की 8 कविताएँ।

कुछ दर्द अकेले ही सहने पङते है ऐ दिल सहने दो

दर्द को रिंद के मानिंद पिये जाती है

हवा शरमायी सी क्यूँ है??

हवा शरमाई सी क्यूँ है

ठहरो ये उत्तर प्रदेश

ग़म यूँ समझाने आते हैं

सुधा चाँद की नींद खुली

हमारे मर्ग़ पे भी आँख नम नहीं रखता

बिटिया हरखूबाई की

खाक़ मले जा आईना

vande mataram bol

वन्दे मातरम् बोल।

पत्थर पत्थर बोलेगा

माँ की बङ बङ

पत्थर चाकू लेकर सोये

साँवली का घर

प्रवासी देश की माटी

जिंदगी कोई गुलाबी खत नहीं

पगली माँ और पाप का बच्चा

रो बैठे

सुधा दोस्ती दिल की है या फिर है असबाबों की

बागी देश

मनचल मनचल तुम साजन

निशा तुम्हें बुला रही

पा लिया सर्वस्व खोकर जो वही भव सार था

भँवरी हुये सिरानी सरिता

रस्ते पर मर जाना है

घर स्त्री की टाँगों से बँधा होता है

माँ हो तुम

मजदूरी ते इब थारी तकदीर बणैगी नेत्ताजी

सुधियों के बिखरे पन्ने ::एक थी सुधा

रात गये

मन के दहके दावानल

हम औरत है घूरा

टूटे ताले हैं

व्यंग कविता ---लानत्त

भूख और मुहब्बत

पत्थर चाकू लेकर सोयेगाँव शहर से परे हुय

आपदा और आम आदमी का प्रबंधन बनाम सरकारी अमला

हुयी शह मात मैं तेरे लिये

ये हिंद स्त्रियों का भी हिंदोस्तान हो।

तिमिर नेह का भूखा।

प्रकाशन हेतु रचना--: निकलो लङ़ते भात पे भूखे

हम गँवार गंदे किसान की फूटी लोटा थाली

हम गँवार गंदे किसानकी फूटी लोटा थाली