कविता: :::हमारी माटी ही धन दौलत
तुम शहरों के लोग ,गाँव की व्यथा कहाँ से समझोगे
कीचड़ दलदल रेत धूप की कथा कहाँ से समझोगे
गए जो भी स्वारथ से अपने नीचा हमें दिखाने को
हम गँवार ना होते बाबू तो क्या पकता खाने को
हम मटमैले लोग हमारी माटी ही धन दौलत है
हम मटमैले लोग बनैले क्या औक़ात हमारी है ,
गाँव गँवारन देहातन की कब कब आती बारी है
शहर बजबजा रहे गटर के ऊपर चिकने पत्थर हैं
नीचे नर्क पड़ा फुटपाथों पर दमकीले दफ्तर हैं
ठेठों वाले हाथ हमारे ,थाली इसी बदौलत है
हम मटमैले लोग.......
महँगे वस्त्र दमकते वाहन चम चम करते भवन बड़े
मिलना तक नामुमकिन बाहर पहरा भीतर श्वान खड़े
वोट माँगने आते जब तब शकल सुहानी दिख जाती
दारू दाम दमन दौलत के दम पर किस्मत लिख जाती
देहाती ग्रामीण जंगली जाहिल कह के तौलत है
हम माटी के लोग ,......
शहरों वाले साब कदाचित अंतरिक्ष से टपके हैं
गाँव बताते लजियाते ,बस खेत बेचने लपके हैं
कंकरीट कर डाली सारी हरी भरी माटी धरती
ताल तलैया नदी नहर तक बंजर होती गयी परती
नोटों वाले गद्दों पर भी नींद नहीं दिल खौलत है
हम माटी के लोग ....
बेर मकोर करौंदे कुँदरू राब ककोरा बिसर गए
कुक्कुरमुत्ता खाएँ कँदौरा सवाँ नौनिया किधर गए
भुट्टे हो गए पाॅपकाॅर्न मक्के की रोटी साग नहीं
शहर ! तुम्हारे सीने में अब वो अलाव की आग नहीं
सोयी पुत्रियाँ लखेँ नशे में नीयत नागिन डोलत है
हम माटी के . .
आते तो हैं शहर गाँव कुछ देने नहीं चुराने को ,
जड़ी बूटियाँ बेटी बहिनें या फिर खेत बिकाने को ,
नीयत ही है क्रूर ,दया ममता अपनापन कहा बचा
शहरों ने ही गाँव बुरा कहने का सब षडयंत्र रचा
माँ को डायन बता ,गुलामों वाली भाषा बोलत है
हम माटी के लोग
सड़े हुए मैदे के बिस्कुट खाएँ गकरियाँ क्या जानें
सूखे सड़े चबाएँ शहर जी ,पुआ पपरियाँ क्या माने
नैनू मठा महेरी तज गए कोला पी पी फैल चले
घी गोरस बिसराएँ नशे में धुत्त पतन की गैल ढले
कहाँ अखाड़े झूले मिचकीं वृषभ हाँकनी बोलत है
हम माटी के लोग ...©®सुधा राजे
©®सुधा राजे
©®सुधा राजे
©®सुधा राजे
..©®सुधा राजे
...©®सुधा राजे
©®सुधा राजे
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