कविता, गद्यगीत....साँवली लड़की का घर, सपना
1999...Sudha Raje
सांवली लङकी
सोचती रही देखती रही एक सपना ।
एक घर हो अपना।
रेत पर पाँव जमाये कितने ही घरौंदे
बनाये।
ये अहाता
ये बगीचा
ये चारदीवारी
ये बैठक ये दफ्तर
ये रसोई
ये भंडार
ये पूजाघर।
ये अतिथि कक्ष
ये मेरा कमरा
ये गाय का
ये कुत्ते का
ये संतरी का
ये बङों का
ये बच्चों का
ये कमरा सबका।
लेकिन यथार्थ रेत तो नहीं ।
मिट्टी कम पङ गयी कम पङ गयीं ईटें
पत्थर पानी समय और सहयोग
अगला घरघूला बना माटी का चौका चूल्ह
जिसमें कमरे रह गये बस चार
कुत्ता गाय
गाङी संतरी को मिला बरामदा और
कमरे हो गये छोटे।गुङियों की शादी में
सब बैठे खुले आकाश तले।
किंतु यथार्थ
गुङियों का घरघूला ही तो नहीं!!!
सांवली को गोरा करने की तमाम
कोशिशें थक गयीं ।
घर की कल्पनायें
गोरे रंगरूप पर अटक गयीं
बार बार हलदी चंदन उबटन फिर
नहीं मिला वर की पसंद का तन ।
एक समझौता हुआ रंग के तराजू पर तुल
गया बाबुल का बटुआ।
घर अब
और छोटा हो गया
सांवली की जगह उसमें और भी कम ।
एक कमरा एक बिस्तर वह भी आधा ।
अब नहीं था मरज़ी का मोहन
संझा की राधा।
हर तरफ आदेश उपदेश और श्रम का निवेश।
सपना फिर उङ चला ।
चल किसी नये बङे शहर चलें
जी मचला
बना लिये मानचित्र
पसंद के कमरे
कमरों के मनमाने चित्र।
अखबार जब आता।
विज्ञापन के घर पर दम अटक जाता ।
पचास लाख!!!!!!!!!
और
सपने हो जाते खाक़
एक दिन सपना धूल मिट्टी से अँट गया
घर छह टुकङों में बँट गया।
सांवली
दिनों दिन बुढ़ाती जाती
फिर फिर फिर घर का सपना सजाती।
पूरा कमरा
पूरा बिस्तर
पूरा दफ्तर
पूरी आलमारी।
मन ही मन करती रोज पसंद के घर में
गृहप्रवेश की तैयारी।
कहीं नहीं है आज भी जो घर ।
बच्चे हो गये सयाने बङे और समझदार
विवाहित होते ही घर टुकङे हो गये
चार।
दो टुकङे मिले सांवली को
कौन समझाये बावली को ।
एक कमरा कमरे में अब भी गत्ते काँच
का खिलौना घर।
एक रसोई
झमाझम जिसमें हर रात रोई
घर है कि कहीं नहीं है
लेकिन
सपना छोङ दे सांवली
अब तो मुझे भी लगता है
ये कहना सही नहीं है।
पिछली दीवाली पर बङा बेटा पोती के
साथ रहने आया
सांवली ने छत पर माटी का बङा सा घर
पोती की गुङियों के लिये बनाया।
घर
?कौन कहता है दीवारों कमरों से
बनता है।
इसे तो औरत का दिल
बच्चों ही की तरह लहू लहू हो
हो कर जनता है।
©®सुधा राजे
Sudha.Raje
Aug 6
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