Friday 8 March 2019

लेख: जाति के पीछे, कुल, ल

यह किसने कहा कि ब्रह्मतत्व के बिना ब्राह्मण ??
किंतु यह बहुत अहंकृत सोच है कि यदि ,
पादरी कुछ नहीं कमाता तो भी सब उसको रहने खाने पहनने को देते हैं,
यदि मौलवी कुछ भी नहीं कमाता तो भी लोग रहने खाने पहनने को देते हैं,
यदि दिगंबर और पंचप्यारे पंथी ग्रंथी कुछ नहीं कमाते तो भी लोग पहनने रहने खाने को देते हैं।
,
अब
ब्राह्मण जब पृथक से कुछ नहीं कमाता तब ????  लोग उसकी विद्वत्ता योग्यता कर्मकांड ज्ञेयता पर सौ-सौ सवाल उठाते हैं ?
हम कहते हैं "जन्मना जायते विप्र" ,
क्यों
बुरा लगा ?
तो समझो कि ज्ञान एक यात्रा है डीएनए की , ये डीएनए और आरएनए वही तत्व है जिससे हूबहू वही क्लोन तैयार किया जा सकता है यह विज्ञान साबित कर चुका है।
अब जिनकी पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान परंपरा में "अब उससे आगे बढ़ो वत्स, इस तक तो मैं लिख कर मर रहा हूँ" ,
की यह तपश्चर्या रही हो , उनका डीएन ए,
कितना निखर चुका होगा यह कहने की नहीं, सुबूतों सहित देखने की चीज है।
मेंडल के पीली मटर , गोल मटर , झुर्रीदार मटर के सिद्धांत को मानते हो ,
कि शक्तिशाली प्रभाविता तीसरी चौथी पीढ़ी तक आती है और कुलक्षण वाहक रहते हैं प्रकट नहीं परन्तु अगली पीढ़ी में होते हैं !!
तो
यह भी मानना ही पड़ेगा कि मार में बोओ चाहे ऊसर में, रेगर में चाहे दलदल में ,
चने से चना ही निकलेगा ,
चाहे पनप न पाये , चाहे लहलहा जाये ।
इससे हमने सहमति नहीं माँगी है ,
विज्ञान ने माँगी है ,
और
नीग्रो माता , गोरे पिता का बच्चा ,
पिता या मां या फिर सात पीढ़ी पहले के किसी दो कुल में से एक का या , दोनों के सुमेल से तीसरी ही ईज़ाद का होगा।
तो ,
मानसिक गुण भी आते हैं नयी संतान में ।
यह सब तो पहले ही ब्राह्मणों ने खोज लिया था,
और सगोत्र विवाह वर्जित करके ,
वर्ण व्यवस्था बनायी। जिसमें पुरखों की (हुनर) कला बारीकी से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते रहने की खूबी छिपी थी ।

दूसरी ओर ,
स्वयं वेदव्यास जी कहते हैं ,
"शुचि चैव श्वपाको च ब्राह्मण: समदर्शिन:"
अन्यथा मल्लाह की पुत्री की संतान पूज् होती ,न ही वाल्मीकि पूज्य होते ,
भारत में ज्ञान की पूजा होती रही ।
ब्राह्मण ज्ञान कर्म में कंठ तक धँसे रहे ,
और यह कार्य सौ वर्ष की आयुमान में नहीं हो सकता था । कि एक कार्य आरंभ तो किया 19 वर्ष की आयु में 70 में थक गये तो छोड़ दिया! उसे आगे नयी पीढ़ी ले जायेगी ,
यह कौन सी नयी पीढ़ी ? वह जो तीन माह की पालना वाली चेतना से तीस वर्ष तक के प्रशिक्षण में वह सब देखती समझती करती रही ।
वे नहीं जो , किसी अन्य खानदानी कार्में से अचानक बालिग होकर आए और बोले मैं करूँगा पंडिताई ! करो भई ,
हो सके तो करो ,
किंतु वह जो गर्भावस्था में आने के पूर्व का डीएनए शुक्राणु का शिक्षण है जो , गर्भ से रहती स्त्री के आस-पास का वातावरण है , वह जो पालने से परिणय के दिन तक का संस्कार वातावरण है वह तो "रह ही गया"
अब वह आवे तो कहाँ से ,
पुस्तकेषु का विद्या ?????
परहस्ते गतं धनं !!!!!
यही मूल बात है ,
ब्राह्मण बनने से भारतीयता में कहीं भी रोक नहीं है , परन्तु यदि शहीद की संतान का सम्मान है , अधिकारी के परिवार को पेंशन है , शरणार्थी की संतानों को मुआवजा है तो , ज्ञान तप में रही पीढ़ियों की संतानों को भी सामाजिक सम्मान मिलना ही चाहिये ।
"बंदऊ प्रथम महीसुर चरणा, मोह जनित संशय सब हरणा"

देखिये "ब्राह्मणवाद" कहकर जिस ज्ञान तत्व को कुटिया में रहकर याचक होकर भी धर्म धारा से कण कण जोड़े रखने के लिये दुत्कारा जाता है तो कारण है कि न ब्राह्मण होगा न ही कोई रिलीजनीकरण मजहबीकरण में बाधा बनेगा। क्योंकि यही तो वह अमूर्त तत्व है जो सबको बता जता समझा देता है कि तुम हो कौन ? करना क्या है ? क्या नहीं। और सनातन है क्यों, इसकी श्रेष्ठता क्यों है ? इसी वर्ग के कारण संस्कृत, हवन, होम वैदिक पाठ, कथा, मंत्र, जनेऊ, तिलक जीवित हैं अन्यथा तो गए कब के गए .

अपनी दुर्दशा के स्वयं ब्राह्मण दोषी तो हैं ही,परन्तु उनको बनाया गया साजिशन।

पांडित्य कर्म को छोटा ,
बतवाया गया ,
हर कहानी का खलनायक बनाया गया ।
शिखा , मुंडन, तिलक, जनेऊ, पीले वस्त्र, खड़ाऊ देखते ही साष्टांग प्रणाम हो जाने वाला भारतीय उनका मज़ाक बनाने लगा। जबकि ऊँचे पाजामे, लंबी दाढ़ी, केश कच्छा कड़ा कृपाण, नग्न दिगंबर, सफेद चोगें का मजाक कभी नहीं बनाया गया ।
क्यों ?
क्योंकि
यह "साष्टांग दंडवत्" करते रहने वाला भारतीय कभी धर्म परिवर्तन को राजी ही नहीं होता ।
मुझे बहुत से दूर पास के कुटुंबी नहीं चाहते कि मैं रहूँ , क्योंकि मेरे न होने से यह सब जायदाद उनकी होगी। यह बिलकुल वैसा ही है।

नारि मुई गृह संपति नासी
मूड़ मुड़ाई भए संन्यासी
जाके नख अरु जटा विशाला
सोई तपसी कलिकाल कराला
(सादर साष्टांग दंडवत् प्रणाम समस्त ब्राह्मणों को )
-सुधा राजे

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