Saturday 2 March 2019

संस्मरण:

होलिका बुआ...होलिका बुआजी (भाग दो )::::::संस्मरण :सुधा राजे
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भाभी को शाॅट लगते ,इंजेक्शन लगते दवाईयाँ दी जातीं और वे वहीं पागल खाने में रहतीं ,जब होश सही रहने लगे तो एक दिन पागलखाने की स्टाफ नर्सों की लापरवाही का परिणाम यह हुआ कि वे भाग लीं वहाँ से ,बरसात की रात ,बड़ा महानगर उनके लिए सब अजनबी और दिमाग में बस पागलखाने से दूर भागने की धुन । उनमें एक चीज थी वे बहुत अच्छी तरह से लिख पढ़ लेतीं थीं सुलेख बढ़िया था सो न जाने क्यों किसी फितूर के सवार होने के पहले पूरे कुटुंब का नाम पता अपने हाथ पाँव पेट पर लिख लेतीं थी । डाॅक्टर नर्स सब घबराये हुये थे टेलीफोन एक्सचेंज पर काॅल करके तब काॅल बुक होती थी काले डेढ़चून के डायल वाले फोन या पीतल के फोन होते थे सूचना आने जाने में घंटों लगते थे । भाभी लापता और सब पुरुष तलाश में सारी पुलिस परेशान ,तभी वे मिल गयीं ,क्योंकि उनको भूख लगी और वे एक सब्जी वाले के पास बैठ गयीं । पुलिस ने फिर बापू के सुपुर्द कर दिया और भाभी फिर पागल खाने । हम सब दुखी रहने लगे थे । बिन माँ का बच्चा पालना सरल नहीं होता एक विद्यार्थी बालिका के लिए । पुरुष शिशु पालन नहीं कर सकते ,बहुत ही कोई विरला होगा जो माँ पुरुष बन सके । किंतु हमारा मन रम चुका था दोनों बच्चों में और हमारी आगे की शिक्षा इसी भाँति चलती रही ,उन बच्चों को विद्यालय छोड़ते हुए अपने विद्यालय जाना और आते हुए उनके लिए अपने जेब खर्च से चिज्जियाँ लाना । आप विश्वास न करें किंतु यह सत्य है कि हमने बचपन जैसे जी ही नहीं पाया ,गैया गौरैया ,खरगोश ,तोते और बच्चे ,सब जैसे हमारी ही प्रतीक्षा करते ,मातृत्व जैसा वह भाव विह्वल कर देता था जब नन्हे बच्चे कमरे के बाहर बैठे बिना खाये प्रतीक्षा करते ,बुआजी आ गयीं बुआ जी आ गयीं । पूछते भोजन किया ,उत्तर वही मिलता आपके साथ काएँगे .....। बच्चों को चोट लग जाती और हमारी चीख रुदन निकल पड़ते हम भागते तेज लूना या साईकिल या पैदल ही डाॅक्टर की ओर पीछे घर के अन्य सदस्य दौड़ते ,मार्ग में हमें रोता देख चोटिल बच्चा कह देता 'बुआ 'रोओ मत आपकी आँखें छोटीं हो जायेंगी हमें अब दर्द नहीं हो रहा । क्योंकि जब बच्चे रोते तो हम यही कहते थे रोना मत नहीं तो आँखें छोटी हो जायेंगी और बच्चे बहल जाते । मन और पीड़ा से भर जाता उफ् इत्ती सी बच्ची ,बहता लहू और ये इसलिये चुप है कि कहीं बुआ न रोये ! भोर चार से छह तक व्यायाम दौड़ पढ़ाई नाश्ता टिफिन सब निश्चिंत रहने लगे थे क्योंकि बुआ हैं न । वे बच्चे भी तो मानते ही नहीं थे बिना हमारे हाथ से खाये पिए । दूसरे फिर तीसरे भाई का विवाह हुआ उनके भी बच्चे उसी ""बुआ परिवार ""में शामिल हो गए । जब हम स्नातक की परीक्षायें दे रहे थे तब हाल यह था कि एक छह माह का बच्चा हमारी चुन्नी से एक टाँग से बँधा चटाई पर बिछे गद्दे पर पेट के बल खेल रहा होता ,दो बच्चे सामने बैठे होमवर्क कर रहे होते और दो बच्चे हमारी मसहरी पर सो रहे होते । सबसे छोटा कहीं सरककर भाग न जाये इसलिये हम उसकी एक टाँग अपनी चुन्नी से बाँध कर अपने पाँव या कमर से दूसरा छोर बाँध लेते और भूमि पर गद्दा बिछाकर पढ़ते या कविता भी कंपोज करते रहते । बाल शाला में खूब लंबी छतों का बहुत योगदान मिला सो चमत्कार की भाँति वे सबके सब बच्चे अक्षर मात्रा स्वर उच्चारण उन लंबी  लंबी छतों पर लिखे गये अक्षरों से अतिशीघ्र सीखते चले गए । इतना कि उनके शिक्षक हतप्रभ रहते शुद्ध लेखन स्पष्ट उच्चार द्रुत श्रुत लेख बिना त्रुटि के करते बच्चे । नृत्य शाला जब चलती तब हमारे हाथ कभी ढोलक कभी हारमोनियम कभी थाली तो कभी कभी संदूक रहता और बच्चे नृत्य निपुण हो गए । बहुत छोटी आयु में राष्ट्रीय मंचों पर अभिव्यक्तियाँ दे सके ।पढ़ने नृत्य सीखने सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी या  साईकिल चलाने से लेकर बाईक तक बुआ जी की पाठशाला में अब उनके मित्र सहेलियाँ विद्यालय के बच्चे पास पड़ौस के बच्चे क्रीड़ा साथी भी शामिल हो गए थे । और एक समय तो ऐसा आया कि जिस ओर निकल जाते "बुआ जी "प्रणाम ,चरण स्पर्श ,सुनाई देता । हर बच्चे की माँ या पिता धमकी देने लगते बताऊँ बुआ जी को ,और वे सब बच्चे सचमुच मान भी जाते थे । जगद्जिज्जी जगद्बुआजी !! एक सैकड़ा भर बच्चों को लेकर एक बार अद्भुत पर्यावरण नृत्य भी तैयार हो गया खेल खेल में । सामग्री थी अखबार पर अखबार की सैकड़ों परत चिपका कर बनाये पत्ते फूल जड़ें तने और पोशाकें ,सस्ते सुंदर टिकाऊ ,वेश बच्चे पेड़ फूल फल पत्ते बनकर लयबद्ध आने जाने तक में अनुशासन से जब पूरा कार्क्रम कर चुके तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि  में जिले की सर्वश्रेष्ठ  कोरियोग्राफर गणतंत्र दिवस का सर्वश्रेष्ठ कार्यक्रम पुरस्कार मिला है । बच्चों ने बुआजी को गोदी में उठा लिया । कवि सम्मेलनों में कम जाते थे ,परन्तु नीरज जी ,सोमठाकुर ,अवस्थी जी ,से लेकर तब के लगभग हर बुजुर्ग लेखक कवि के साथ मंच साझा किया हरीश नवल सुधा नवल ,मैनेजर पांडे, राजेन्द्र यादव ,मैत्रैयी पुष्पा ,अन्नपूर्णा भदौरिया ,मेहरून्निसा परवीन ,मुद्गिल जी ,कटारा जी ,.......तब हम किशोर कवियत्री तरुण लेखिका थे ,बैठते उठते बुजुर्गों में थे । युवा कार्यक्रमों में कभी नहीं गए । हर तरह की समिति जो जो जिलाधिकारी के पुलिस सुपिरन्टेंडेंट के अधीन सांसद विधायक और जिला पंचायत अध्यक्ष के अधीन रहती है में न न न कहते भी कहीं न कहीं हमारा नाम रहता ही था ,तब हम परास्नातक ही तो कर रहे थे । रविवार को दूर गाँव चले जाते वहाँ बाल कक्षायें लगतीं , तब सरकारी किसी तरह का कोई साक्षरता या स्वस्थ्य कार्यक्रम नहीं था सो हमारे फार्महाऊस के विशालकाय फूलबाग वाले आँगन में हमारी बालशाला लगती या बावड़ी के तलघर में गीत नृत्य और बालसभा । कभी सामने की ऊँची चट्टों पठारों पर चढ़ने का बाल सैन्य अभ्यास होता तो कभी फार्म पर रहतीं गाएँ जो वहीं रहते पारिवारिक सहायक सँभालते थे उनको हम सब न न कहते भी रंग वार्निश माला पाॅलिश से सजा डालते । तब गोष्ठ यानि बुन्देली में "गोठ "यानि आज की पिकनिक मनाने हमारे सहपाठी भी यदा कदा साथ आ जाते । उनके लिये कभी कभी परिहास बना देते ग्रामवासी । जैसे एक सहपाठी लड़की ने जब पूछ लिया "ये हरे चने हैं , हमारे यहाँ तो लाल ही आते है गाँव से वे नहीं लगाये ? और सब हो हो हो करने लगते कौतुक से ये देखो शहर के पढ़े लिखे । किंतु उनको पता था बुआजी की बात अलग है । तब हम समझाते । भाई के बाॅटनी के सहपाठी सिंधी मित्र ने तो यहाँ तक पूछ लिया कि ""बाजार में आलू नया भरमार हो रहा है और तुम्हारे यहाँ तो अभी इसमें फूल तक नहीं निकले ""कुछ न कहिये बस उसके बाद जो चिढ़ाया सबने रट्टू तोता कहकर , कि सब आलू दरअसल शरमाकर जमीन में घुस गये ,कि एक महान वैज्ञानिक आने वाला है । कुछ को पता ही नहीं था कि गन्ना खाते कैसे हैं ,उन लोगों ने या तो जूस पिये थे या गँड़ेरियाँ चूसी थी बाजार में रुपये की बीस बिकतीं हुयीं ।
हमारी ग्रामशाला हर बार बदल जाती ,और यूँ अनेक गाँव हमारे ढेर सारे भतीजे पढ़ लिख गए भतीजियाँ पढ़ लिख गयीं । तब आया साक्षरता अभियान और हमने मास्टर ट्रैनर की डिग्री ली पहले फिर साक्षरता हेतु तकनीक से निजी अनुभवों के साथ दूसरे शिक्षकों को कई माह तक पृथक पृथक कैंप में ट्रैनिंग दी । तब मानदेय या वेतन भत्ते नहीं थे फिर भी सब उत्साह से समझते सीखते और गाँव लौटकर अपने घर पर कक्षायें चलाते । संपूर्ण साक्षर एक के बाद एक गाँव होते गए ।
एक बार एन एस एस कैंप हम लोगों ने दलदली गाँव में लगाया और बारह किलोमीटर तक छात्राओं तक ने हमारे नायकत्व में सड़क निर्माण कराया तब जब सड़क पूरी हो गयी उस वनवासी गाँव की तो हम लोगों के दवाब पर शिक्षामंत्री को आना पड़ा  बिजली की मंजूरी करानी पड़ी ,किंतु यह क्या मुखिया ने जैसे तैसे दस बारह फूलों की जुटायी माला बजाय मंत्री जी को पहनाने के हमारे गले में डाल दी ,हम मंच संचालन कर रहे थे ,और मंत्री जी को माला पहनाने को कह रहे थे ,
मुखिया ने दूसरी माला हमारे अध्यापक जी के गले में डाल दी । बोले "
"जे हमाई जगदंबा बैनें हैं जे हमाए देउता मास्साब ,का जे मंतिरीजी इतै ढूँकतै कऊँ जे मौड़ी मौड़ा देई देओता बन कैँ इतै नै आऊतै ,,जे नुंगरियाँ देखी नईँ का हमन्नने ,ठेठे पर पर गईँ रामधई ,तन तन से बारे बारे मौड़ा मौड़ी ,घिची घिची लौं जौन गैल सें बसकारन में हम औरैँ खप खफ कें निकरत्ते ,सूटऊँ सड़क डार दई ""
मंत्री जी को विवश होकर सड़क निर्माण की भी प्रतिज्ञा करनी पड़ी सब जब घर आये तो काले और कटे फटे हाथों से उन वनवासियों के आशीर्वाद के सिवा कुछ नहीं लाये थे । उन दिनों भी हमारे नवरात्रि व्रत जारी थे और भोर चार से छह रात्रि आठ से दस नवाह्न परायण पाठ भी अविरल चलता था । सेवा का सुख ,कदाचित सबसे बड़ा पुरस्कार होता है ::::शेष फिर ©®सुधा राजे

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