परछाईयाँ बढ़ रहीं हैं घना होता जाता है
एकांत उदासियाँ अपने अपने घोसलें से झाँक रही हैं """"
एक एक करके टपकते जाते हैं सब जमा नाते रिश्ते
और छोङते जाते हैं गहरा निशान कभी मन पर
कभी तन पर हल्का और हल्का और और और हल्का
भारहीन मानस विचरने को उस पल की प्रतीक्षा में है
जब हर नाता छोङ जायेगा एक एक गहरा निशान
और सारे डैने नये उग आयेंगें नये पंजे होकर
नये परों पैरों से माप लेगा नभ प्राणान्त!!!
कहते हो इसे विश्व की भाषा में किंतु मेरी परिभाषा में
मोक्ष कहते हैं जमा भीङ से छुटकारा पाने का
अहर्निश आनंद बढ़ता ही जाता है और मैं
मनका मनका मुक्त हो रही हूँ "तुम
"विदा देने आओगे न!!
कदाचित अंतिम वेदना
यही दूँगी मैं तुम्हें ।
©®सुधा राजे
Thursday 7 March 2019
गद्यगीत: ~अन्तिम वेदना
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