गजल::मुझे ऐ ज़िंदगी जीने की मुहलत दे दुबारा से
मुझे ऐ ज़िन्दग़ी ज़ीने की मुहलत दे दुबारा से
कि मैं बस सांस लेने को तरसती रह गयी थी कल
कि मैं बस सांस लेने को तरसती रह गयी थी कल
सितारों की चमकती रौशनी बस कल्पना ही थी
कि मेरे अर्श तक को रात डँसती रह गयी थी कल
कि मेरे अर्श तक को रात डँसती रह गयी थी कल
जले दामन से आँसू पोंछते भी तो कहाँ तक हम
दरकते कांच की किरचें कसकती रह गयीं थी कल
दरकते कांच की किरचें कसकती रह गयीं थी कल
हवा ने एक ही साज़िश रची थी बस डराने की
बुझा गयी सब चिराग़ों को सिसकती रह गयी थी कल
बुझा गयी सब चिराग़ों को सिसकती रह गयी थी कल
न इस करवट न उस करवट न सीधे बैठना मुमकिन
कि हर पहलू चुभे खंज़र सँभलती रह गयी थी कल ©®™सुधा राजे
कि हर पहलू चुभे खंज़र सँभलती रह गयी थी कल ©®™सुधा राजे
मैं मरती भी भला कैसे मुझे था इश्क़ ज़ीने से
कि हर इक सांस की खातिर मैं जलती रह गयी थी कल ©®™सुधा राजे
कि हर इक सांस की खातिर मैं जलती रह गयी थी कल ©®™सुधा राजे
मेरे हिस्से के सूरज ने बदल दी राह तक अपनी,
कि मैं बस रात वाले दिन सी ढलती रह गयी थी कल
कि मैं बस रात वाले दिन सी ढलती रह गयी थी कल
हवा बेहोश करके यूँ चली गयी साजिशें करने
कि सूखे लब लिये प्यासी मचलती रह गयी थी कल
कि सूखे लब लिये प्यासी मचलती रह गयी थी कल
मेरे हिस्से में कैदे बा मशक्कत दर्द रुसवाई
कि तदबीरें मेरी सारी मचलती रह गयीं थीं कल
कि तदबीरें मेरी सारी मचलती रह गयीं थीं कल
बहुत ही सख़्त ज़ां हूँ अब तलक हूँ ज़िन्दा ऐ लोगो
कि टूटे पर घिसटते पांव चलती रह गयी थी कल
कि टूटे पर घिसटते पांव चलती रह गयी थी कल
मुहब्बत आरज़ू अरमान उल्फ़त आशियाना घर
कि सब के सब छलावे जिसमें छलती रह गयी थी कल
कि सब के सब छलावे जिसमें छलती रह गयी थी कल
तुझे ऐ ज़िन्दग़ी किस्सा मेरा सबको सुनाना है
कि मैं ज़िन्दा ग़जल लब से निकलती रह गयी थी कल
कि मैं ज़िन्दा ग़जल लब से निकलती रह गयी थी कल
"सुधा" ये ख़ून के रिश्ते लहू के अश्क़ देते हैं
कि मैं वो इश्क की मूरत पिघलती रह गयी थी कल
कि मैं वो इश्क की मूरत पिघलती रह गयी थी कल
हर इक उँगली जो उठती गयी मेरे क़िरदार पर टूटी
कि मैं वो इन्तिहाई हद जो गलती रह गयी थी कल
©®™सुधा राजे
कि मैं वो इन्तिहाई हद जो गलती रह गयी थी कल
©®™सुधा राजे
©®™सुधा राजे
©®™सुधा राजे
©®™सुधा राजे
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