कविता: :ढोलकें.....स्त्रियाँ
मृत हुयी आश के चर्म से जो बनी उत्सवों में बजायीं गयीं ढोलकें ।
हत हुयी प्यास के मर्म से भी घनी
ज्यों शवों पर नचायीं गयीं ढोलकें ।
खोखले वृक्ष के तन से लिपटी रहीं ।
जब कटे वन तो आहों से चिपटी रहीं ।
कीर्ति में जब अहेरी के गायन हुआ
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युद्ध में ज्यों जलायीं गयीं ढोलकें ।
ये रूदन ये नयन ये शयन जागरण
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वो हवन वो मरण वो चयन वो शमन
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जब विरह की कथा हुयी व्यथा श्याम की ।
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वंशियों पर सजायीं गयीं ढोलकें ।
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थी सुधा मुग्ध जब रास में राधिका ।
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रूप में चंद्रमा प्रेम रवि लालिमा।
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डूबते चिरमिलन खो चुके लास्य पर ।
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त्राहिमम आज़मायी गयीं ढोलकें ।
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विश्व का एक दस्तूर है रस्म है ।
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मारकर भी नहीं छोडता भस्म है ।
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मृग बिछुङ कर मृगी से तङपता सुने ।
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हर्ष को यूँ बनायी गयीं ढोलकें ।
©®सुधा राजे
Sudha Raje
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