स्त्री और समाज

Sudha Raje wrote a new note:
Sudha Rajeकभी आपने बच्चियों से होने
वालेअनाचार की वजह
को मनोसामाजिकनज़रिये से देखने
की कोशिश की?????...
Sudha Raje
कभी आपने बच्चियों से होने वाले
अनाचार की वजह को मनोसामाजिक
नज़रिये से देखने की कोशिश की?????
चलिये आज ये गरम रेत पर चलते है ।
एक गीत है --तुम कमसिन
हो नादां हो सोचता हूँ मैं
कि तुमको प्यार न करूँ
****
ये एक गीत नहीँ पूरा पुरूष मनोविज्ञान
है जिसमें भारतीय लोगों ने सोच
लिया न
जाने कि महात्मा के शास्त्री के नितांत
निजी अनुभव से कि पुरूष की आयु स्त्री से
दो गुनी हो तो भी ठीक है क्योंकि तब
पुरूष को लंबी आयु तक कमसिन
बीबी का सुख मिलता रहेगा हमउम्र
स्त्री तो शीघ्र ही विगत
यौवना हो जायेगी और पुरूष के लिये
भला हमउम्र स्त्री में क्या आकर्षण
हो सकता है?? तब मुंशी तोताराम
को निर्मला जैसी कमसिन सुशील
युवती यूँ ही मिलती आयीँ हैं जो पुत्र
की आयु तक की रहीं ।प्रसव और
बहुसंतान
बहुपुत्रैष्णा के कारण और घरों में
असुरक्षित प्रसव की वज़ह से अक्सर
स्त्रियों की मृत्यु ।।एक पुरूष
की दो तीन शादियाँ । और तब
चूकि बरतन माँजना झाङू लगाना कपङे
धोना खाना पकाना गैँहू फटकना दाल
दलिया दलना
उङावनी कुट्टी सानी ढोरों का पानी

उपले और खेत में खर पतवार
निकालना कटाई गहाई करना और
सिलाई बुनाई कढ़ाई करना
ये स्त्रैण कार्य पुरूष
द्वारा किया जाना दयनीय निंदनीय
समझे जाते
बेचारा!!!!
तब तो हर हाल में स्त्री चाहिये ही घर
में????
और हम उम्र स्त्रियाँ या तो पाँच सात
बच्चों की अम्माँ दो चार
की दादी हो चुकीँ होती या फिर
विधवा
अब???? तो फिर ये आयु का बंधन
तो बङा चक्कर?? औरत को क्या चाहिये
चार जोङी कपङे सालाना और पेट
को आधे
बरस का भोजन सालाना पङी रहेगी एक
कौने । मर्द तो साठे पै पाठा??? कौन
से
बच्चे जने है बाल तो काले खिज़ाब से
भी हो लेते हैं । रही बात दैहिक
रिश्तों की तो हिंदुस्तान में कब
इसकी इजाजत है
स्त्री को तो ना पुकारने का हक है
ना ही नकारने
का ज्यादा ज़वानी फूटैगी तो मार
लाठी सब निकाल देगे
माँ भाभी चाची दादी पहले से
ही चेतावनी आज भी देती रहती है
चमङी उधेङ देगा वो औऱ
य़े मान लिया कि लङकी की चमङी लङके
की दमङी देखो बस
क्रमशः
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sudha Raje
सुधा राजे
Mar 19
·.? ? काश लोग चेते !!
निरभरता?????
आर्थिक न न न ।।
स्त्री के श्रम का मूल्य नहीं देते परिजन
और बाहर
कौन निकलने देता है लङको की तरह
कमाने????
अरे स्त्री पर हर घर ऐसे निर्भर है
कि कोई नहीँ चाहता कि स्त्री खुद
अपने
लिये जी ले
जो जी रहीँ है
वो अंगारे सी खटक भी रहीँ है
ये स्वालंबी तथाकथित पुरूष सही में एक
अपाहिज है
और ऐसे स्वारथी कि स्त्री के श्रम
का मूल्य चुकाना नहीँ चाहते
ये अत्याचार पुरूषों पर पुरूष करे
तो मार्क्सवाद खङा हो जाता है
औरत चाहिये!!!! उसकी कोख से संताने!!!!
रसोई और घर बच्चो से बेफिक्री
दैहिक भोग!!!
जरा बाजार से खरीदिये एक सेरोगेट
बच्चा एक वेश्या
एक आया
एक कुक
एक धोबिन
एक ट्यूटर
एक नर्स
एक वाचमैन
स्त्री ही स्वावलंबी है और उसे कोई
फर्क
नही पङता कि उसके श्रम का मूल्य
नहीं दिया जा रहा
भावना प्रधान स्त्री स्वार्थ प्रधान
पुरूष के चंगुल में भी स्वावलंबी है
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