संस्कृति और धर्म
सिख अपने को हिंदू नहीं मानते
बौद्ध अपने को हिंदू नहीं मानते
जैन अपने को हिंदू वहीं मानते
दलित अपने को हिंदू नहीं मानते
सवाल उठता है कि
तब हिन्दू बहुसंख्यक कैसे हैं
क्योंकि
अनेक वनवासी
असुर दैत्य राक्षस परंपरा से हैं और वे अपने को हिंदू नहीं मानते
दक्षिण की अनेक जातियाँ खुद को हिंदू नहीं मानती
इसी पर मुसलिम पारसी ईसाई है और उनमें भी शिया सुन्नी बहाबी कुर्द आदि का
भेद है कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट का भेद भी है
उपरोक्त सबको निकाल कर ही गणना होनी चाहिये कि
हिंदू कितने है
और आज आधुनिक भारत में कौन कौन हिंदू सनातन धर्म वैदिक धर्म से स्वयं को मानता है
ईसाईकरण
मुसलिमकरण
की तरह ही
जनेऊ शिखा और गर्भाधान पुंसवन कर्ण वेध उपनयन नामकरण जातिकरण विवाहवैदिक
रीति से गुरूदीक्षा आदि
वैदिक संस्कार
कितने हिंदुओं के हुये है
तब
आपको दावे से कहना चाहिये कि समाज में
आज
सिख
जैन
बौद्ध
दलित
ईसाई
पारसी
मुसलिम
बहाबी
और
नास्तिक
के बाद
नपुंसक लोग भी है जो अलग ही गुरूवाद संस्कार को मानते हैं।
इसी बीच कुछ अन्य पंथ भी जनमे हैं जो
न जनेऊ उपवीत उपनयन गुरूदीक्षा हवन यज्ञ करते हैं न ही ।
दान
तीर्थ
नित्यहोम
त्रिसंध्या गायत्री
एकादशी तुलसी सालिगराम शंख कंठी आदि धारण करते हैं
हिंदू जन्म लेते ही परंपरा से हो जाता है हिंदुस्तान में होने से
अगर
क्रिस्चियनकरङ हुआ तो ईसाई
अगर मुसलमानी हुयी खतना तो मुस्लिम
अगर उपवीत करणवेध गुरूदीक्षा यज्ञ वैदिक पाठ किया तो हिंदू सनातन वैदिक
और गुरूवाणी के संस्कार से सिख
मोटे तौर पर
हिंदू में सब गैर ईसाई
गैर मुसलिम
गैरपारसी
गैरबहावी
सारे
जैन बौद्ध सिख वनवासी किन्नर शामिल है
ये सब वर्तमान में बहुदेववादी है
यथा सब की आस्था अमृतसर
बदरीनाथ
कैलाश
अमरनाथ
गया
पुरी
गंगा
आबू पावापुरी
आदि में है
अधिकांश
हिंदू
अज़मेर आगरा मुंबई
की दरग़ाह
पर
चादर चढ़ाने भी जाते हैं
और मजारों पर भी चर्च भी और गुरूद्वारे भी
आज अधिकांश हिंदू न तो जनेऊ पहनते हैं
न लंगोट बाँधते हैं
न तीन बार दीपक जलाकर आचमन करके आरती और वंदना करते हैं ना ही स्कूल जाने
से पहले वसंतपंचमी और विजयादशमी को विद्यारंभ संस्कार करके गुरूदीक्षा
गुरुमंत्र लेते हैं।
ना ही ऋगवेद की ऋचायें पाठ करते हैं।ना ही नित्य पंचहोम करते हैं।ना ही
पाक्षिक यज्ञ।यहीं नहीं तुलसी पीपल बरगद बेल आवला केला अशोक आदि की
साप्ताहिक पूजा करते हैं
यहाँ तक कि हर घर में अब शंख घङियाल मंदिर तुलसी सालिग्राम गीता वेद और
हवनवेदी भी नहीं मिलेगी।
लोग शिखा भी नहीं रखते ना ही तिलक अपने इष्ट के मुताबिक लगाते हैं
लोग
पहनावे से ईसाई
आहार से असुर
विचार से नास्तिक हैं
ये जितना शोर पाखंड प्रवचन लीलायें गायन वादन यात्रायें धर्म के नाम पर
दिख रहीं हैं
दरअसल द
तीन प्रेरक हैं
1--मनवांछित वस्तु की याचना
2--मनोरंजन बोरियत का बहलावा
3--व्यापार
केवल विवाह औऱ दाहसंस्कार
के अलावा अधिकांश हिंदू
वैदिक हिंदू नहीं
वे जो वैदिक मंत्रों यज्ञ के बिना अदालत में शादी करने का कांट्रेक्ट
करते हैं उनका केवल एक ही संस्कार हो पाता है दाहसंस्कार
कईबार वह भी नहीं
तो? ?
विचारणीय है बहुसंख्यक शब्द
शेष फिर
©®सुधा राजे
बौद्ध अपने को हिंदू नहीं मानते
जैन अपने को हिंदू वहीं मानते
दलित अपने को हिंदू नहीं मानते
सवाल उठता है कि
तब हिन्दू बहुसंख्यक कैसे हैं
क्योंकि
अनेक वनवासी
असुर दैत्य राक्षस परंपरा से हैं और वे अपने को हिंदू नहीं मानते
दक्षिण की अनेक जातियाँ खुद को हिंदू नहीं मानती
इसी पर मुसलिम पारसी ईसाई है और उनमें भी शिया सुन्नी बहाबी कुर्द आदि का
भेद है कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट का भेद भी है
उपरोक्त सबको निकाल कर ही गणना होनी चाहिये कि
हिंदू कितने है
और आज आधुनिक भारत में कौन कौन हिंदू सनातन धर्म वैदिक धर्म से स्वयं को मानता है
ईसाईकरण
मुसलिमकरण
की तरह ही
जनेऊ शिखा और गर्भाधान पुंसवन कर्ण वेध उपनयन नामकरण जातिकरण विवाहवैदिक
रीति से गुरूदीक्षा आदि
वैदिक संस्कार
कितने हिंदुओं के हुये है
तब
आपको दावे से कहना चाहिये कि समाज में
आज
सिख
जैन
बौद्ध
दलित
ईसाई
पारसी
मुसलिम
बहाबी
और
नास्तिक
के बाद
नपुंसक लोग भी है जो अलग ही गुरूवाद संस्कार को मानते हैं।
इसी बीच कुछ अन्य पंथ भी जनमे हैं जो
न जनेऊ उपवीत उपनयन गुरूदीक्षा हवन यज्ञ करते हैं न ही ।
दान
तीर्थ
नित्यहोम
त्रिसंध्या गायत्री
एकादशी तुलसी सालिगराम शंख कंठी आदि धारण करते हैं
हिंदू जन्म लेते ही परंपरा से हो जाता है हिंदुस्तान में होने से
अगर
क्रिस्चियनकरङ हुआ तो ईसाई
अगर मुसलमानी हुयी खतना तो मुस्लिम
अगर उपवीत करणवेध गुरूदीक्षा यज्ञ वैदिक पाठ किया तो हिंदू सनातन वैदिक
और गुरूवाणी के संस्कार से सिख
मोटे तौर पर
हिंदू में सब गैर ईसाई
गैर मुसलिम
गैरपारसी
गैरबहावी
सारे
जैन बौद्ध सिख वनवासी किन्नर शामिल है
ये सब वर्तमान में बहुदेववादी है
यथा सब की आस्था अमृतसर
बदरीनाथ
कैलाश
अमरनाथ
गया
पुरी
गंगा
आबू पावापुरी
आदि में है
अधिकांश
हिंदू
अज़मेर आगरा मुंबई
की दरग़ाह
पर
चादर चढ़ाने भी जाते हैं
और मजारों पर भी चर्च भी और गुरूद्वारे भी
आज अधिकांश हिंदू न तो जनेऊ पहनते हैं
न लंगोट बाँधते हैं
न तीन बार दीपक जलाकर आचमन करके आरती और वंदना करते हैं ना ही स्कूल जाने
से पहले वसंतपंचमी और विजयादशमी को विद्यारंभ संस्कार करके गुरूदीक्षा
गुरुमंत्र लेते हैं।
ना ही ऋगवेद की ऋचायें पाठ करते हैं।ना ही नित्य पंचहोम करते हैं।ना ही
पाक्षिक यज्ञ।यहीं नहीं तुलसी पीपल बरगद बेल आवला केला अशोक आदि की
साप्ताहिक पूजा करते हैं
यहाँ तक कि हर घर में अब शंख घङियाल मंदिर तुलसी सालिग्राम गीता वेद और
हवनवेदी भी नहीं मिलेगी।
लोग शिखा भी नहीं रखते ना ही तिलक अपने इष्ट के मुताबिक लगाते हैं
लोग
पहनावे से ईसाई
आहार से असुर
विचार से नास्तिक हैं
ये जितना शोर पाखंड प्रवचन लीलायें गायन वादन यात्रायें धर्म के नाम पर
दिख रहीं हैं
दरअसल द
तीन प्रेरक हैं
1--मनवांछित वस्तु की याचना
2--मनोरंजन बोरियत का बहलावा
3--व्यापार
केवल विवाह औऱ दाहसंस्कार
के अलावा अधिकांश हिंदू
वैदिक हिंदू नहीं
वे जो वैदिक मंत्रों यज्ञ के बिना अदालत में शादी करने का कांट्रेक्ट
करते हैं उनका केवल एक ही संस्कार हो पाता है दाहसंस्कार
कईबार वह भी नहीं
तो? ?
विचारणीय है बहुसंख्यक शब्द
शेष फिर
©®सुधा राजे
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