कविता ::उत्तरप्रदेश
Sudha Raje
हे मेरे उत्तर प्रदेश!!!!!
मुझे मुक्ति दे दो ताकि मैं अपनी उस भूल
का सुधार कर सकूँ कि मुझे एक दिन
लगता था यही भारत का सर्वोत्तम
प्रदेश है और यहीं सब कुछ सुंदर ।
किंतु देख लिया कि सङकों के किनारे
किनारे के सारे शीशम साल नीम बरगद
पीपल कट गये और बचा है पॉलिथीन
का नरक ।
खेतों में बाढ़ के बाद भर गयी है रेत और
दलदल और जो खेती बची है वहाँ नहीं है
अब खेती करने से लाभ
क्योंकि गर्मियों में आ जाते हैं भेङिये
गीदङ तेंदुए और जाङों में नीलगाय सुअर
हाथी अजगर और बरसात में दुर्गम
हो जाता है खेतों तक जाना भयंकर
विषैले जीवों से प्राण बचानाऊपर से आ
जाती है हर साल बाढ़ और रह जाता है
विकराल विनाश ।
क्योंकि नगर के प्रवेश पर बने है
करोङों की लागत के भव्य द्वार किंतु
नहीं है रैन बसेरे यात्री विश्रामगृह
बेघरों को आसरा और नहीं है
बच्चों को खेलने के लिये मैदान
स्त्रियों को टहलने चहलकदमी करने
को सुरक्षित वृक्षपथ ।
क्योंकि लगा रहता है हर पल डर घर से
कहीं भी जाते समय ताले कट जाने और
गृहस्थी चोरी हो जाने का ।
नहीं होती कभी रात्रिकालीन गश्त
और नहीं कभी रात में घूमती है पुलिस
जागते रहो की सीटी पर ।
कभी नहीं देखे गश्ती सिपाही बस्ती में
रात या दिन में घूमते । हाँ अकसर
लोगो के घरों में रातों को मचते हैं शोर
चोर चोर चोर ।
डर ही डर है कि हर तरफ चिपके हैं
अशलील पोस्टर अकसर सीडी वाले
की दुकान पर भऱे पङे है अशलील
चलचित्र गीत और बजते रहते हैं हर तरफ
कानफोङूँ बाजे ध्वनिस्तारक और कोई
भी नहीं है दर्द निवारक ।
नहीं होती कोई सुनवाई जब
नहीं होती देने को कङक
कागज़ी पत्तियाँ और नहीं लेना होता है
वोट ।
रिश्ते तक तो माँगते हैं हर कदम हर
खुशी मदद मुलाक़ात के बदले नोट
अगर लग गयी कोई गंभीर चोट
तो नहीं है कोई अस्पताल नहीं है
दवा नहीं है सही पहचान को चिकित्सक
उपचार और तीमारदारी ।
अकसर मौत ही बनकर आती है गरीब और
आम आदमी को चोट या बीमारी।
डर डर डर
हर समय दाङी वालों से भगवों से
त्रिशूलों चापङों खंज़रों लाठियों तमंचों
।
मेले में बाज़ार में मंदिर पे मज़ार पे ।
अस्पताल थाने
पाठशाला कचहरी गली मुहल्ले खेत जंगल
दरबार पंचायत और घर घेर बाऱ् ह में
डर डर कर मर मर जीतीं है न जाने
कितने कङवे सच पीतीं हैं स्त्रियाँ
कोई नहीं सुनवाई
क्योंकि गरीब की लुगाई जगत
की भौजाई
आम आदमी की जोरू डंगर ना गोरू।
घर की जनानी औक़ात से नान्हीं
चुप रहे तो सहे ।
बोले तो जगहँसाई
डर डर
सिपाही से डर
नेता से डर
गुंडे से डर
मौलवी से डर
साधु से डर
धनवान से डर
भगवान से डर
शैतान से डर
नहीं डरते तो लोग नहीं डरते संविधान
से कानून से जेल हवालात कचहरी नरक
पाप परपीङा से नहीं डरते
एक
तरफ भूख बीमारी ठंड बाढ़ गरमी जहर
दंगे आग सङक दुर्घटना से मरते रहते हैं
लोग
दूसरी तरफ
उत्सव ही उत्सव
नाच गाना शराब कबाब शबाब नबाब।
बेहिसाब लाजवाब
जो जिस जाति का नेता सत्ता में
आजाता है गली गली उसकी जात
वालों का ही रौब ग़ालिब
हो जाता है।
हर
महकमें बंद हो जाती है उनके
विपक्षियों की सुनवाई.
बचा वही जितने सत्ता की पगधूल माथे
लगाई
कहीं बनते हैं करोङों के हार हीरे
हाथी और प्रतिमायें।
कहीं केवल एक ही मजहब
को बाँटी जाती हैं रेवङियाँ
और सिसक कर घुट घुटकर
दम तोङती रहती हैं
आम मामूली हैसियत के घर विलक्षण
प्रतिभायें।
करते रहते हैं लोग पलायन
सत्ता करती रहती है जात मजहब
भाषा का विषैला गायन
बाहर भी होते हैं अपमानित
ओहह भइये ! !ये वासी हैं उत्तरप्रदेश के
बीज हैं ईर्ष्या कलह कुंठा कलेश के
मैं ये सब सह नहीं पा रही हूँ
बहुत कुछ ऐसा है जो कह नहीं पा रहीं हूँ
छोङकर जाऊँ कहाँ
और चैन से रह भी नहीं पा रही हूँ
काश मिल जाये सपरिवार बाहर
कहीं रोजी दाना पानी ठौर सुरक्षित
समुचित पर्याप्त ठिकाना सच कहती हूँ
कभी नहीं चाहती हूँ
पर्यटन तक को उत्तरप्र्देश आना
©®सुधा राजे
©®Sudha Raje
हे मेरे उत्तर प्रदेश!!!!!
मुझे मुक्ति दे दो ताकि मैं अपनी उस भूल
का सुधार कर सकूँ कि मुझे एक दिन
लगता था यही भारत का सर्वोत्तम
प्रदेश है और यहीं सब कुछ सुंदर ।
किंतु देख लिया कि सङकों के किनारे
किनारे के सारे शीशम साल नीम बरगद
पीपल कट गये और बचा है पॉलिथीन
का नरक ।
खेतों में बाढ़ के बाद भर गयी है रेत और
दलदल और जो खेती बची है वहाँ नहीं है
अब खेती करने से लाभ
क्योंकि गर्मियों में आ जाते हैं भेङिये
गीदङ तेंदुए और जाङों में नीलगाय सुअर
हाथी अजगर और बरसात में दुर्गम
हो जाता है खेतों तक जाना भयंकर
विषैले जीवों से प्राण बचानाऊपर से आ
जाती है हर साल बाढ़ और रह जाता है
विकराल विनाश ।
क्योंकि नगर के प्रवेश पर बने है
करोङों की लागत के भव्य द्वार किंतु
नहीं है रैन बसेरे यात्री विश्रामगृह
बेघरों को आसरा और नहीं है
बच्चों को खेलने के लिये मैदान
स्त्रियों को टहलने चहलकदमी करने
को सुरक्षित वृक्षपथ ।
क्योंकि लगा रहता है हर पल डर घर से
कहीं भी जाते समय ताले कट जाने और
गृहस्थी चोरी हो जाने का ।
नहीं होती कभी रात्रिकालीन गश्त
और नहीं कभी रात में घूमती है पुलिस
जागते रहो की सीटी पर ।
कभी नहीं देखे गश्ती सिपाही बस्ती में
रात या दिन में घूमते । हाँ अकसर
लोगो के घरों में रातों को मचते हैं शोर
चोर चोर चोर ।
डर ही डर है कि हर तरफ चिपके हैं
अशलील पोस्टर अकसर सीडी वाले
की दुकान पर भऱे पङे है अशलील
चलचित्र गीत और बजते रहते हैं हर तरफ
कानफोङूँ बाजे ध्वनिस्तारक और कोई
भी नहीं है दर्द निवारक ।
नहीं होती कोई सुनवाई जब
नहीं होती देने को कङक
कागज़ी पत्तियाँ और नहीं लेना होता है
वोट ।
रिश्ते तक तो माँगते हैं हर कदम हर
खुशी मदद मुलाक़ात के बदले नोट
अगर लग गयी कोई गंभीर चोट
तो नहीं है कोई अस्पताल नहीं है
दवा नहीं है सही पहचान को चिकित्सक
उपचार और तीमारदारी ।
अकसर मौत ही बनकर आती है गरीब और
आम आदमी को चोट या बीमारी।
डर डर डर
हर समय दाङी वालों से भगवों से
त्रिशूलों चापङों खंज़रों लाठियों तमंचों
।
मेले में बाज़ार में मंदिर पे मज़ार पे ।
अस्पताल थाने
पाठशाला कचहरी गली मुहल्ले खेत जंगल
दरबार पंचायत और घर घेर बाऱ् ह में
डर डर कर मर मर जीतीं है न जाने
कितने कङवे सच पीतीं हैं स्त्रियाँ
कोई नहीं सुनवाई
क्योंकि गरीब की लुगाई जगत
की भौजाई
आम आदमी की जोरू डंगर ना गोरू।
घर की जनानी औक़ात से नान्हीं
चुप रहे तो सहे ।
बोले तो जगहँसाई
डर डर
सिपाही से डर
नेता से डर
गुंडे से डर
मौलवी से डर
साधु से डर
धनवान से डर
भगवान से डर
शैतान से डर
नहीं डरते तो लोग नहीं डरते संविधान
से कानून से जेल हवालात कचहरी नरक
पाप परपीङा से नहीं डरते
एक
तरफ भूख बीमारी ठंड बाढ़ गरमी जहर
दंगे आग सङक दुर्घटना से मरते रहते हैं
लोग
दूसरी तरफ
उत्सव ही उत्सव
नाच गाना शराब कबाब शबाब नबाब।
बेहिसाब लाजवाब
जो जिस जाति का नेता सत्ता में
आजाता है गली गली उसकी जात
वालों का ही रौब ग़ालिब
हो जाता है।
हर
महकमें बंद हो जाती है उनके
विपक्षियों की सुनवाई.
बचा वही जितने सत्ता की पगधूल माथे
लगाई
कहीं बनते हैं करोङों के हार हीरे
हाथी और प्रतिमायें।
कहीं केवल एक ही मजहब
को बाँटी जाती हैं रेवङियाँ
और सिसक कर घुट घुटकर
दम तोङती रहती हैं
आम मामूली हैसियत के घर विलक्षण
प्रतिभायें।
करते रहते हैं लोग पलायन
सत्ता करती रहती है जात मजहब
भाषा का विषैला गायन
बाहर भी होते हैं अपमानित
ओहह भइये ! !ये वासी हैं उत्तरप्रदेश के
बीज हैं ईर्ष्या कलह कुंठा कलेश के
मैं ये सब सह नहीं पा रही हूँ
बहुत कुछ ऐसा है जो कह नहीं पा रहीं हूँ
छोङकर जाऊँ कहाँ
और चैन से रह भी नहीं पा रही हूँ
काश मिल जाये सपरिवार बाहर
कहीं रोजी दाना पानी ठौर सुरक्षित
समुचित पर्याप्त ठिकाना सच कहती हूँ
कभी नहीं चाहती हूँ
पर्यटन तक को उत्तरप्र्देश आना
©®सुधा राजे
©®Sudha Raje
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