लेख :नक्सलवाद घरेलू समस्या नहीं रहा
नक्सलवाद???
घरेलू समस्या नहीं रही ।
घरेलू समस्या है जंगलों से हथियार बंद
गिरोहों को खदेङना और जेल में
डालना ।घरेलू समस्या है वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराना ।
पूरा बिहारी ग्रामीण इलाका गरीब है ।
सारा बुंदेलखंडी ग्रामीण इलाका बेहद
गरीब है ।उङीसा कालाहांडी इलाका आजभी गरीब है । तमिलनाडु के सुदूर
गाँवों मेंआज भी भयंकर गरीबी है । बंगाल यूपी बिहार और तमिलनाडु के
बाढ़ग्रस्त इलाके आज भी गरीब हैं । राजस्थान के बेघर बंजारे खानाबदोश
गाङिया लोहार कंजर कालबेलिया सहारिया आज
भी बेहद गरीब हैं ।गरीबी बाढ़ सूखा राहत पुनर्वास और प्राकृतिक आपदायें
किसी एक राजनैतिक दल पर नहीं टाली जा सकती ।आज किसी भी एक पार्टी की
सत्ता पूरे अट्ठाईस राज्यों में हो और केंद्र में भी यह असंभव है ।अक्सर
मतदाता टूटा भग्न जनादेश दे रहे हैं । निष्ठा पार्टी नही अब प्रत्याशी की
दम खम और छवि पर ज्यादा निर्भर है ।
तो हर दल को इस मसले पर सोचकर बहुत गंभीरता से बोलना चाहिये । आज रमणसिंह
हैं कल कोई और जीत सकता है ।वनवासी जो आम तौर पर तंग आ चुके है
परेशानियों से । अगर प्रशासन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके और पुलिस सेना
सिपाही स्थानीय लोग ही हों बाहरियों के साथ साथ तब ये उन
जंगलवालों की अपनी भी समस्या है
कि सिपाही ज़िंदा रहें । स्थानीय
भाषा और रीति रिवाज सोच विचार
और जंगल की जानकारी भी होगी ।
पैसा बाँटना किसी को कपङे
खाना पहुँचाना हक़ नहीं भीख
हो सकती है । दुर्भाग्य से जीत प्राप्त करने के लिये यू पी बिहार बंगाल
छत्तीसगढ़ के भीतर यही हो रहा है ।वजीफा खाना रूपया कपङा मुआवजा जैसे हक
बनता जा रहा है । रोजगार ही जबकि एकमात्र स्थायी समाधान है। ये वैकल्पित
रोजगार चाहे वनोपज के विविध संवर्धन परिवर्धन से मिले या खनिज संपदा के ।
मुख्यधारा में
लौटाने को जरूरी है
कि वनवासी शहरों में आय़ें और पूरे भारत
औऱ भारत के इतिहास भूगोल विरासत
संस्कृति सभ्यता को समझे । हमें बहुत मौके मिले उनको बेतकल्लुफी से देखने
को तो ये समझ लीजिये कि परिवर्तन वे जल्दी स्वीकार नहीं करते । बच्चों
में शिक्षा की बजाय वजीफा पाने का ही मकसद है । और बाहरी लोगों से वे मन
नहीं मिलाते विश्वास नहीं करते ।लेकिन जिस कदर संगठित सेना का शस्त्र
प्रशिक्षण चल रहा है वहाँ वनवासी नक्सलवादियों के भीतर
वो अचंभे में डालता है । वैकल्पिक
रोजगार बन गया नक्सलवादी बनना ।
औऱ दिमागी जुनून भी । लोग आतंकित
रहते नक्सल सरगनाओं से । वे जिसे चाहे उठवा लें और जंगल में नक्सल सेना
में भर्ती कर दें । अँधेरे का डर दिखा कर टॉर्च बेची जा रही है । लिट्टे
की तरह नासूर बन गया नक्सलवाद केवल योजनायें बनाने से ठीक नहीं होगा जंगल
की जल थल नभ से सफाई करनी होगी ।और गाँव पुरवे के लोगों को इस में साथी
बनाना होगा पका घाव है मवाद
चीरकर निकाली नहीं तो गैन्ग्रीन
हो जायेगा ।सेना ऐसा कर सकती है मात्र कुछ सप्ताह में । बस दृढ़ संकल्प
से निर्दोष को बचाते
हुये ऑपरेशन संपूर्ण कॉम्बिंग
छेङना होगे
जब विभिन्न वर्गों में
दूरियाँ होंगी तो वंचित वर्ग
सुविधा सम्पन्न वर्ग को कभी चैन से
नहीं सोने देगा .... हम भी तभी तक
ईमानदार हैं न जब तक हमें रोटी मिल
रही है .....
नक्सलवाद
दरअसल देश के खोखले
स्वप्नजीवी बुद्धिमान वर्ग
की नाजायज
औलाद है । नक्सली भूख
गरीबी साधनहीनता की लङाई लङ रहे
है!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
जो भी यह कहता है वह सिरे से
ही अतिवादी है ।
आपको पता है दीवाली के
फुलझङी पटाखों की कीमत ।
??????
ये बम बारूद ये बारूदी सुरंगे ये बंदूकें ये
कारतूस ये तकनीक ये अत्याधुनिक मारक
हथियार??????
कहाँ से आये भूखे नंगे वनवासियों के
हाथों में???
जिनके पास चावल खरीदने को चालीस
रूपया रोज नहीं वो सौ रूपये से हजार
रूपये तक का कारतूस रोज कहाँ से
खरीदते
है???????
एक बंदूक कई लाख की आती है???
और इतना पेट्रोल फूँकने को पैसा कहाँ से
आता है??
पिछली बार सात
सिपाहियों की हत्या करके पेट चीरकर
उनमें हैंड ग्रेनेड भर दिये गये थे
कि जो लोग लाशें उठाने आयें वो भी मारें
जायें ।
पिछले बीस सालों में गिनती कीजिये
कितने सिपाही मारे गये?????
कितने थाने लूटे गये कितनी संपत्ति आग
के
हवाले कर दी गयी??????
ये लाल क्रांति का झूठा सपना देखने
वालों का बोया जहर है ।
जल जंगल जमीन
का
नारा व्यक्तिगत रूप से हमें भी पसंद है ।
लेकिन किसी भी तरह भारत
की तुलना रूस के जारशाही से
नहीं की जा सकती ।
यू पी बिहार से
ज्यादा बिजली पानी सङक और
नागरिक
सुविधायें छत्तीस गढ़ को लगातार देने में
लगीं हुयी है केंद्र और राज्य सरकारें ।
भारत में लालक्रांति की चरमपंथी सोच
सिरे से ही गलत है ।
भारतीयों को अकाल
तक में वैसे
हालातों का सामना नहीं करना पङा
जो
औऱ चीन में हुआ आम शासन के दौरान ।
लगातार सिपाहियों पर आऱोप है
कि वनवासियों पर अत्याचार होते है
औऱ
उनको झूठा फँसाया जाता है ।
लेकिन
क्यों नहीं ये सवाल कि चंबल की तरह
सिख अलगाववादियों की तरह ।
नक्सली हथियार फेंक कर देश
की मुख्यधारा में शामिल हो जाते????
मानवाधिकार व्यवस्था औऱ
शांति की कीमत पर नहीं बचाये
जा सकते
। जो हत्यारा है वो सजा पाये
यही कानून है ।
सिपाही निजी दुश्मनी से नहीं तैनात है
।
उनकी जरूरत ही न पङे फेंक दो हथियार
औऱ चलो करो संरक्षण जल जंगल जमीन
का ।
हिंसा कभी पोषणीय नहीं ।
मजदूर या दलित सरकार ने
नहीं बनाया वहाँ जो हालात आजादी से
पहले थे आज संसाधन से भरे हैं ।
सरकारी नौकरियों में
आदिवासियों को आरक्षण है ।
औऱ अगर सारी ताकत हथियार खरीदने
में खऱच कर रहे हैं तो विकास
होगा ही कैसे ।
ये
ज़ंग प्रशासन के खिलाफ है क्योंकि लाल
शासन का सपना दिखाया जाकर
आतंकवाद की तरह पृष्ठ पोषण
किया जाता रहा ।
लंबे समय तक हम जंगलों के संपर्क में रहे है
। वहाँ पूरी गुप्त
योजना मिशनरियों और
लालक्रांतिवादियों की काम करती है
।
ये लोग दिल्ली मुंबई कलकत्ता जैसे
महानगरों में वातानुकूलित कमरों में बैठे
हवाई यात्रायें कर रहे हैं औऱ साम्यवाद
के नाम पर विश्वगाँव की कल्पना करते
हैं
। पूँजीवादी कहकर जिस धनसमग्र
की निंदा करते है वही धन तो ध्येय बन
जाता है । हम सब एक सपना देखते है
जाति धर्म पंथ विहीन समाज का । ये
हमारे सपने चुरा लेते हैं । लेनिन नाम
रखने से कोई लेनिन नहीं हो जाता ।
लेनिन ने गाँधी को जिया और
महाराणा को भी । इनमें से कोई
भी जमीन जंगल जल जङ का नेता नहीं ।
भारतीय जनमन
की सहानुभूति संवेदना हमेशा
वनवासियों के
साथ हैं लेकिन सरकार चलाने के लिये
किसी भी पार्टी को लॉ एंड ऑर्डर
तो हर हाल में चाहिये । नागरिक
वही जो संविधान कानून सरकार
तिरंगा देश की अस्मिता औऱ
संप्रभुता का पालन करे बाकी सब देश से
गद्दारी है भारत को लोकतंत्र चाहिये
मजदूरों की तानाशाही कतई नहीं ।
क्योंकि तब हर मजदूर अवसर रखता है
संसद तक जाने
ये बारूद को साफ करने में
गिरफ्तारियाँ और मुठभेङें होगी ।
ये लोग रोयेंगे इंटरनेशनल लेबल पर
कि हाय हाय अन्याय अत्याचार ।
लेकिन
सिपाही गरीब
का बेटा किसी का सपना साया सहारा
तब
ये नहीं कहते कि
हाय
हाय गद्दार????
अगर ये वनवासियों के हितेषी हैं
तो?????
उनके कंधों से बारूद बम बंदूक उतरवायें
और
घूमे
दिल्ली मास्को ढाका छोङकर जंगल
जंगल
।
और
विचार
धारा के नाम पर अनपढ़
वनवासियों का मानसिक शोषण बंद
करके
उनको जीने दें???
लेकिन नहीं इनको वनवासी हित से कोई
लेना देना नहीं
ये
तो लालक्रांति की सपनीली दुनियाँ में
बैठे इंटरनेशनल गा रहै है ।
Ma
सारे वनवासियों का लोकतंत्र में ही हित
सुरक्षित है। और जो सपना ये
लालक्रांतिवादी दिखाते है उसमें मजदूर
गरीब को कुछ भी मिलने वाला नहीं ।
ना तो हक़ ना मौलिक अधिकार
ना ही प्रशासन में भागीदारी ।
क्योंकि
सारे अंग्रेजीभाषी उच्च शिक्षित्
जा बैठेगे सोवियत में ।
मजदूर तब ढाबे में सत्ता के खिलाफ
बोलता पकङा गया तो प्राण दंड
मिलेगा ।
ये ।
रोटी चावल
रोजगार
शिक्षा
आवास
संरक्षण सुनवाई
अगर मजदूर हथियार फेंक दें तो बेहतर
तरीके से लोकतंत्र में ही मिल सकती है
औऱ शासन सत्ता में भागीदारी भी ।
लेकिन
लालविचारकों को
ये
पसंद नहीं की उन वनवासियों को ये सब
मिले ।
"उनको
तो
लालशासन ही चाहिये ।
जैसे सोलोमन की कथा में बच्चा चुराने
वाली औऱत कहती है कि ठीक है
बच्चा काट कर बाँट दो आधा आधा।
औऱ
माँ कहती है तब मैं माँ होने
का दावा छोङती हूँ
बच्चा चोरनी ही को दे दें ।
वही हाल है लालविचारकों का
ये बच्चा वनवासी का जीवन
खुशहाली पोषण नहीं चाहते ।
ये
चाहते हैं चाहे काट
दो वनवासी बच्चा लेकिन
लालक्रांति साकार करके दिखा दें लाल
विश्व को कि लो हमने कर दिखाया ।
©सुधा राजे
May 26
2013
घरेलू समस्या नहीं रही ।
घरेलू समस्या है जंगलों से हथियार बंद
गिरोहों को खदेङना और जेल में
डालना ।घरेलू समस्या है वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराना ।
पूरा बिहारी ग्रामीण इलाका गरीब है ।
सारा बुंदेलखंडी ग्रामीण इलाका बेहद
गरीब है ।उङीसा कालाहांडी इलाका आजभी गरीब है । तमिलनाडु के सुदूर
गाँवों मेंआज भी भयंकर गरीबी है । बंगाल यूपी बिहार और तमिलनाडु के
बाढ़ग्रस्त इलाके आज भी गरीब हैं । राजस्थान के बेघर बंजारे खानाबदोश
गाङिया लोहार कंजर कालबेलिया सहारिया आज
भी बेहद गरीब हैं ।गरीबी बाढ़ सूखा राहत पुनर्वास और प्राकृतिक आपदायें
किसी एक राजनैतिक दल पर नहीं टाली जा सकती ।आज किसी भी एक पार्टी की
सत्ता पूरे अट्ठाईस राज्यों में हो और केंद्र में भी यह असंभव है ।अक्सर
मतदाता टूटा भग्न जनादेश दे रहे हैं । निष्ठा पार्टी नही अब प्रत्याशी की
दम खम और छवि पर ज्यादा निर्भर है ।
तो हर दल को इस मसले पर सोचकर बहुत गंभीरता से बोलना चाहिये । आज रमणसिंह
हैं कल कोई और जीत सकता है ।वनवासी जो आम तौर पर तंग आ चुके है
परेशानियों से । अगर प्रशासन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके और पुलिस सेना
सिपाही स्थानीय लोग ही हों बाहरियों के साथ साथ तब ये उन
जंगलवालों की अपनी भी समस्या है
कि सिपाही ज़िंदा रहें । स्थानीय
भाषा और रीति रिवाज सोच विचार
और जंगल की जानकारी भी होगी ।
पैसा बाँटना किसी को कपङे
खाना पहुँचाना हक़ नहीं भीख
हो सकती है । दुर्भाग्य से जीत प्राप्त करने के लिये यू पी बिहार बंगाल
छत्तीसगढ़ के भीतर यही हो रहा है ।वजीफा खाना रूपया कपङा मुआवजा जैसे हक
बनता जा रहा है । रोजगार ही जबकि एकमात्र स्थायी समाधान है। ये वैकल्पित
रोजगार चाहे वनोपज के विविध संवर्धन परिवर्धन से मिले या खनिज संपदा के ।
मुख्यधारा में
लौटाने को जरूरी है
कि वनवासी शहरों में आय़ें और पूरे भारत
औऱ भारत के इतिहास भूगोल विरासत
संस्कृति सभ्यता को समझे । हमें बहुत मौके मिले उनको बेतकल्लुफी से देखने
को तो ये समझ लीजिये कि परिवर्तन वे जल्दी स्वीकार नहीं करते । बच्चों
में शिक्षा की बजाय वजीफा पाने का ही मकसद है । और बाहरी लोगों से वे मन
नहीं मिलाते विश्वास नहीं करते ।लेकिन जिस कदर संगठित सेना का शस्त्र
प्रशिक्षण चल रहा है वहाँ वनवासी नक्सलवादियों के भीतर
वो अचंभे में डालता है । वैकल्पिक
रोजगार बन गया नक्सलवादी बनना ।
औऱ दिमागी जुनून भी । लोग आतंकित
रहते नक्सल सरगनाओं से । वे जिसे चाहे उठवा लें और जंगल में नक्सल सेना
में भर्ती कर दें । अँधेरे का डर दिखा कर टॉर्च बेची जा रही है । लिट्टे
की तरह नासूर बन गया नक्सलवाद केवल योजनायें बनाने से ठीक नहीं होगा जंगल
की जल थल नभ से सफाई करनी होगी ।और गाँव पुरवे के लोगों को इस में साथी
बनाना होगा पका घाव है मवाद
चीरकर निकाली नहीं तो गैन्ग्रीन
हो जायेगा ।सेना ऐसा कर सकती है मात्र कुछ सप्ताह में । बस दृढ़ संकल्प
से निर्दोष को बचाते
हुये ऑपरेशन संपूर्ण कॉम्बिंग
छेङना होगे
जब विभिन्न वर्गों में
दूरियाँ होंगी तो वंचित वर्ग
सुविधा सम्पन्न वर्ग को कभी चैन से
नहीं सोने देगा .... हम भी तभी तक
ईमानदार हैं न जब तक हमें रोटी मिल
रही है .....
नक्सलवाद
दरअसल देश के खोखले
स्वप्नजीवी बुद्धिमान वर्ग
की नाजायज
औलाद है । नक्सली भूख
गरीबी साधनहीनता की लङाई लङ रहे
है!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
जो भी यह कहता है वह सिरे से
ही अतिवादी है ।
आपको पता है दीवाली के
फुलझङी पटाखों की कीमत ।
??????
ये बम बारूद ये बारूदी सुरंगे ये बंदूकें ये
कारतूस ये तकनीक ये अत्याधुनिक मारक
हथियार??????
कहाँ से आये भूखे नंगे वनवासियों के
हाथों में???
जिनके पास चावल खरीदने को चालीस
रूपया रोज नहीं वो सौ रूपये से हजार
रूपये तक का कारतूस रोज कहाँ से
खरीदते
है???????
एक बंदूक कई लाख की आती है???
और इतना पेट्रोल फूँकने को पैसा कहाँ से
आता है??
पिछली बार सात
सिपाहियों की हत्या करके पेट चीरकर
उनमें हैंड ग्रेनेड भर दिये गये थे
कि जो लोग लाशें उठाने आयें वो भी मारें
जायें ।
पिछले बीस सालों में गिनती कीजिये
कितने सिपाही मारे गये?????
कितने थाने लूटे गये कितनी संपत्ति आग
के
हवाले कर दी गयी??????
ये लाल क्रांति का झूठा सपना देखने
वालों का बोया जहर है ।
जल जंगल जमीन
का
नारा व्यक्तिगत रूप से हमें भी पसंद है ।
लेकिन किसी भी तरह भारत
की तुलना रूस के जारशाही से
नहीं की जा सकती ।
यू पी बिहार से
ज्यादा बिजली पानी सङक और
नागरिक
सुविधायें छत्तीस गढ़ को लगातार देने में
लगीं हुयी है केंद्र और राज्य सरकारें ।
भारत में लालक्रांति की चरमपंथी सोच
सिरे से ही गलत है ।
भारतीयों को अकाल
तक में वैसे
हालातों का सामना नहीं करना पङा
जो
औऱ चीन में हुआ आम शासन के दौरान ।
लगातार सिपाहियों पर आऱोप है
कि वनवासियों पर अत्याचार होते है
औऱ
उनको झूठा फँसाया जाता है ।
लेकिन
क्यों नहीं ये सवाल कि चंबल की तरह
सिख अलगाववादियों की तरह ।
नक्सली हथियार फेंक कर देश
की मुख्यधारा में शामिल हो जाते????
मानवाधिकार व्यवस्था औऱ
शांति की कीमत पर नहीं बचाये
जा सकते
। जो हत्यारा है वो सजा पाये
यही कानून है ।
सिपाही निजी दुश्मनी से नहीं तैनात है
।
उनकी जरूरत ही न पङे फेंक दो हथियार
औऱ चलो करो संरक्षण जल जंगल जमीन
का ।
हिंसा कभी पोषणीय नहीं ।
मजदूर या दलित सरकार ने
नहीं बनाया वहाँ जो हालात आजादी से
पहले थे आज संसाधन से भरे हैं ।
सरकारी नौकरियों में
आदिवासियों को आरक्षण है ।
औऱ अगर सारी ताकत हथियार खरीदने
में खऱच कर रहे हैं तो विकास
होगा ही कैसे ।
ये
ज़ंग प्रशासन के खिलाफ है क्योंकि लाल
शासन का सपना दिखाया जाकर
आतंकवाद की तरह पृष्ठ पोषण
किया जाता रहा ।
लंबे समय तक हम जंगलों के संपर्क में रहे है
। वहाँ पूरी गुप्त
योजना मिशनरियों और
लालक्रांतिवादियों की काम करती है
।
ये लोग दिल्ली मुंबई कलकत्ता जैसे
महानगरों में वातानुकूलित कमरों में बैठे
हवाई यात्रायें कर रहे हैं औऱ साम्यवाद
के नाम पर विश्वगाँव की कल्पना करते
हैं
। पूँजीवादी कहकर जिस धनसमग्र
की निंदा करते है वही धन तो ध्येय बन
जाता है । हम सब एक सपना देखते है
जाति धर्म पंथ विहीन समाज का । ये
हमारे सपने चुरा लेते हैं । लेनिन नाम
रखने से कोई लेनिन नहीं हो जाता ।
लेनिन ने गाँधी को जिया और
महाराणा को भी । इनमें से कोई
भी जमीन जंगल जल जङ का नेता नहीं ।
भारतीय जनमन
की सहानुभूति संवेदना हमेशा
वनवासियों के
साथ हैं लेकिन सरकार चलाने के लिये
किसी भी पार्टी को लॉ एंड ऑर्डर
तो हर हाल में चाहिये । नागरिक
वही जो संविधान कानून सरकार
तिरंगा देश की अस्मिता औऱ
संप्रभुता का पालन करे बाकी सब देश से
गद्दारी है भारत को लोकतंत्र चाहिये
मजदूरों की तानाशाही कतई नहीं ।
क्योंकि तब हर मजदूर अवसर रखता है
संसद तक जाने
ये बारूद को साफ करने में
गिरफ्तारियाँ और मुठभेङें होगी ।
ये लोग रोयेंगे इंटरनेशनल लेबल पर
कि हाय हाय अन्याय अत्याचार ।
लेकिन
सिपाही गरीब
का बेटा किसी का सपना साया सहारा
तब
ये नहीं कहते कि
हाय
हाय गद्दार????
अगर ये वनवासियों के हितेषी हैं
तो?????
उनके कंधों से बारूद बम बंदूक उतरवायें
और
घूमे
दिल्ली मास्को ढाका छोङकर जंगल
जंगल
।
और
विचार
धारा के नाम पर अनपढ़
वनवासियों का मानसिक शोषण बंद
करके
उनको जीने दें???
लेकिन नहीं इनको वनवासी हित से कोई
लेना देना नहीं
ये
तो लालक्रांति की सपनीली दुनियाँ में
बैठे इंटरनेशनल गा रहै है ।
Ma
सारे वनवासियों का लोकतंत्र में ही हित
सुरक्षित है। और जो सपना ये
लालक्रांतिवादी दिखाते है उसमें मजदूर
गरीब को कुछ भी मिलने वाला नहीं ।
ना तो हक़ ना मौलिक अधिकार
ना ही प्रशासन में भागीदारी ।
क्योंकि
सारे अंग्रेजीभाषी उच्च शिक्षित्
जा बैठेगे सोवियत में ।
मजदूर तब ढाबे में सत्ता के खिलाफ
बोलता पकङा गया तो प्राण दंड
मिलेगा ।
ये ।
रोटी चावल
रोजगार
शिक्षा
आवास
संरक्षण सुनवाई
अगर मजदूर हथियार फेंक दें तो बेहतर
तरीके से लोकतंत्र में ही मिल सकती है
औऱ शासन सत्ता में भागीदारी भी ।
लेकिन
लालविचारकों को
ये
पसंद नहीं की उन वनवासियों को ये सब
मिले ।
"उनको
तो
लालशासन ही चाहिये ।
जैसे सोलोमन की कथा में बच्चा चुराने
वाली औऱत कहती है कि ठीक है
बच्चा काट कर बाँट दो आधा आधा।
औऱ
माँ कहती है तब मैं माँ होने
का दावा छोङती हूँ
बच्चा चोरनी ही को दे दें ।
वही हाल है लालविचारकों का
ये बच्चा वनवासी का जीवन
खुशहाली पोषण नहीं चाहते ।
ये
चाहते हैं चाहे काट
दो वनवासी बच्चा लेकिन
लालक्रांति साकार करके दिखा दें लाल
विश्व को कि लो हमने कर दिखाया ।
©सुधा राजे
May 26
2013
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