Tuesday 18 June 2013

वक़्तऐसा भी कभी आता ह

वक़्त
ऐसा भी कभी आता है
आईना भी हँसी उड़ाता है
एक अंजान शक्ल
दिखती है
कोई गुमनाम
मुँह चिढ़ाता है
चीख भीतर से
चीरती सीना
दर्द आँखों में तैर जाता है
ये मैं नहीं हूँ अक़्स कहता है
ग़म ख़यालों में डूब
जाता है
टूट जाता है दर्द से कोई
जी ते जी दिल
क़फ़न
ओढ़ाता है
खुद
उठाता है
ज़नाजा अपना
कब्र भी अपनी खुद
बनाता है
मर्सिया अपना खुद
ही पढ़ता है
फातिहा खुद का खुद
ही गाता है
मिट्टियाँ मुट्ठियों से
खुद अपनी
रोज़ खुद खोद के
चढ़ाता है
खुद से खुद होके
ज़ुदा रोता है
अपना ताबूत खुद
बनाता है
रोज तिल तिल
सा खींचता मय्यत
खुद को यूँ कब्र में
सुलाता है
फिर तड़प के बिलख के
रोता है
और घुट घुट के दिन
बिताता है
अपने अरमान
शम्माँ की सूरत
अपनी दरग़ाह पे
जलाता है
अपने रेज़ा हुये से
ख्वाबों को चादरे-ग़ुल
में छिपा जाता है
अपना मौला हो मन्नतें
खुद से खुद
रिहायी की माँग
आता है
खुद से करता है
इल्तिज़ा ज़ी ले
कोई मरके भी जिये
जाता है
वालिशे-दर्द पे
बिखरता है
महफिले-ज़श्न
मुस्कुराता है
थी "सुधा" शर्त
जिन्दा रहने की
मेरा दिल
दोस्तो निभाता है
© SUDHA RAJE

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