सुधा राजे का स्तंभ - मिरचन का धसका।
भोर भिनसारे के अरये ऐझर
""""""मिरचन कौ धसका """"
""""""
1-स्त्री कोई सामान
नहीं जिसका कोई मालिक हो वह
ख़ुदमुख़्तार इंसान है । इसलिये खुद से
संबंधित सारे फैसले लेना उसका हक़ है
।
"""पति """शब्द अपने मायने
खो चुका है और सहजीवी या जीवन
संगी ही ठीक ठाक से शब्द हैं जब तक
""नवीन ""शब्द नहीं गढ़
लिया जाता ।
एक्चुअली कोई किसी का मालिक
स्वामी प्रभु नाथ और
पति होता ही नहीं है ।
यह
लिंगभेदकारी दासीप्रथा का अवशेष
शब्द है।
2-पति परमेश्वर कतई नहीं होता ।
कण कण में भगवान हैं तो पत्नी पहले
परमेश्वरी होनी चाहिये क्योंकि वह
दर्द सहकर बच्चे नौ महीने कोख में
ढोकर साल साल नींद भूख प्यास
कैरियर तबाह करके ""बच्चे
पैदा करती पालती है ""
दूसरी बात कि जो जो पुरुष खुद
को अपनी पत्नी का """परमेश्वर
समझने का दंभ रखता है
वही वही विशेष रूप से परमेश्वर
तो क्या """पति ""तक नहीं होता ।
न हो सकता है ।
क्योंकि उसके घर रहता है दुख कलह
क्लेश और बगावत करने वाली संताने ।
तीसरी बात कि परमेश्वर न
जन्मता है न बूढ़ा होता है न मरता है
।
जबकि विवाह के पहले बीस
या पच्चीस साल या तीस तक
भी अकसर कुमारी लङकियों के लिये
परमेश्वर कोई मानव
पति होता ही जब नहीं तब???
क्या वे तब तक पूजा पाठ न करें??
अगर ""परमात्मा को पिता माने
तो पति नहीं कहा जा सकता पिता परमेश्वर
को!!!?
और अगर वह पति है परमात्मा तो तब
दूसरा पति हो ही कैसे सकता है??
पति विवाह के बाद बना रिश्ता है
।
जो सहजीवन सहभोग सहआवास और
सहयोग पर आधारित है जिसमें पुरुष
कमाये स्त्री घऱ सँभाले पुरुष कठोर
कार्य करे स्त्री बच्चे पाले औऱ
कलात्मक कार्य करे । बच्चों को हर
समय निगरानी मिल सके
इसी अवधारणा पर है विवाह
की संस्था ।
किंतु "पति अनेक बार अपाहिज
हो जाता है । मर जाता है । छोङकर
चला जाता है । व्यभिचारी होकर
संगिनी बच्चों और परिवार
को त्याग देता है ।
तब??
स्त्री ही परमेश्वर बनकर बच्चे
पालती है और खुद की रक्षा करती है
।
यदि हर
पति अपनी पत्नी का परमेश्वर
होता तो ""सेवा का वरदान
मनचाहा मिलता न?
जबकि सेवाभावी भक्त
स्त्रियाँ ही सबसे अधिक मारपीट
अनाचार झेलतीं है
और जो पुरुष को साथी मित्र
सहजीवी मानकर
ईश्वर नहीं मानती वे जोङे अधिक
सुखी और स्वतंत्र विकास के साथ
संतुलित रहते हैं ।
काम क्रोध मद लोभ दंभ द्वेष दुर्भाव
स्वार्थ लोभ.
कम या अधिक हर पुरुष में होते हैं
जो पतिपरमेश्वर होता तो नहीं होते
।
अवतार जिनके पति थे परमेश्वर के अंश
वे स्त्रियाँ तक ""दुखी रहीं चरम सत
पथी होकर भी तो अब उनसे अधिक
कौन होगा । सामान्य
कलियुगी मानव एक सहृदय
पक्का मित्रवत
सहसंगीजीवनसाथी ही बना रहे
यही बढ़िया है इस रिश्ते में हर जगह
सहयोग समर्थन साथ ही प्रधान रहे
तो ही सुखी गृहस्थी ।
पति को जीवनसंगी समझें हाङमाँस
भावना मन बुद्धि का मानव
आपका साथी ।
उसे परमेश्वर न बनायें न
ही स्वामी ।
आप अपने आस पास देखें "जो जोङे फ्रैण्डली सखाभाव से बातचीत करते और खेल
सकते पिकनिक पर जा सकते हैं और एक दूजे को नाम लेकर पुकार सकते और सलाह
मशविरा तर्क औऱ सहयोग के साथ लिबरल डेमोक्रेटिक हैं वही अधिक सुखी हैं
''''''''बजाय उनके जिनके घर में """नरपरमेसुर "की तानाशाही धमक थर्राहट
बमक और गाज़ गिरती रहती ।
©®सुधा राजे
--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117
""""""मिरचन कौ धसका """"
""""""
1-स्त्री कोई सामान
नहीं जिसका कोई मालिक हो वह
ख़ुदमुख़्तार इंसान है । इसलिये खुद से
संबंधित सारे फैसले लेना उसका हक़ है
।
"""पति """शब्द अपने मायने
खो चुका है और सहजीवी या जीवन
संगी ही ठीक ठाक से शब्द हैं जब तक
""नवीन ""शब्द नहीं गढ़
लिया जाता ।
एक्चुअली कोई किसी का मालिक
स्वामी प्रभु नाथ और
पति होता ही नहीं है ।
यह
लिंगभेदकारी दासीप्रथा का अवशेष
शब्द है।
2-पति परमेश्वर कतई नहीं होता ।
कण कण में भगवान हैं तो पत्नी पहले
परमेश्वरी होनी चाहिये क्योंकि वह
दर्द सहकर बच्चे नौ महीने कोख में
ढोकर साल साल नींद भूख प्यास
कैरियर तबाह करके ""बच्चे
पैदा करती पालती है ""
दूसरी बात कि जो जो पुरुष खुद
को अपनी पत्नी का """परमेश्वर
समझने का दंभ रखता है
वही वही विशेष रूप से परमेश्वर
तो क्या """पति ""तक नहीं होता ।
न हो सकता है ।
क्योंकि उसके घर रहता है दुख कलह
क्लेश और बगावत करने वाली संताने ।
तीसरी बात कि परमेश्वर न
जन्मता है न बूढ़ा होता है न मरता है
।
जबकि विवाह के पहले बीस
या पच्चीस साल या तीस तक
भी अकसर कुमारी लङकियों के लिये
परमेश्वर कोई मानव
पति होता ही जब नहीं तब???
क्या वे तब तक पूजा पाठ न करें??
अगर ""परमात्मा को पिता माने
तो पति नहीं कहा जा सकता पिता परमेश्वर
को!!!?
और अगर वह पति है परमात्मा तो तब
दूसरा पति हो ही कैसे सकता है??
पति विवाह के बाद बना रिश्ता है
।
जो सहजीवन सहभोग सहआवास और
सहयोग पर आधारित है जिसमें पुरुष
कमाये स्त्री घऱ सँभाले पुरुष कठोर
कार्य करे स्त्री बच्चे पाले औऱ
कलात्मक कार्य करे । बच्चों को हर
समय निगरानी मिल सके
इसी अवधारणा पर है विवाह
की संस्था ।
किंतु "पति अनेक बार अपाहिज
हो जाता है । मर जाता है । छोङकर
चला जाता है । व्यभिचारी होकर
संगिनी बच्चों और परिवार
को त्याग देता है ।
तब??
स्त्री ही परमेश्वर बनकर बच्चे
पालती है और खुद की रक्षा करती है
।
यदि हर
पति अपनी पत्नी का परमेश्वर
होता तो ""सेवा का वरदान
मनचाहा मिलता न?
जबकि सेवाभावी भक्त
स्त्रियाँ ही सबसे अधिक मारपीट
अनाचार झेलतीं है
और जो पुरुष को साथी मित्र
सहजीवी मानकर
ईश्वर नहीं मानती वे जोङे अधिक
सुखी और स्वतंत्र विकास के साथ
संतुलित रहते हैं ।
काम क्रोध मद लोभ दंभ द्वेष दुर्भाव
स्वार्थ लोभ.
कम या अधिक हर पुरुष में होते हैं
जो पतिपरमेश्वर होता तो नहीं होते
।
अवतार जिनके पति थे परमेश्वर के अंश
वे स्त्रियाँ तक ""दुखी रहीं चरम सत
पथी होकर भी तो अब उनसे अधिक
कौन होगा । सामान्य
कलियुगी मानव एक सहृदय
पक्का मित्रवत
सहसंगीजीवनसाथी ही बना रहे
यही बढ़िया है इस रिश्ते में हर जगह
सहयोग समर्थन साथ ही प्रधान रहे
तो ही सुखी गृहस्थी ।
पति को जीवनसंगी समझें हाङमाँस
भावना मन बुद्धि का मानव
आपका साथी ।
उसे परमेश्वर न बनायें न
ही स्वामी ।
आप अपने आस पास देखें "जो जोङे फ्रैण्डली सखाभाव से बातचीत करते और खेल
सकते पिकनिक पर जा सकते हैं और एक दूजे को नाम लेकर पुकार सकते और सलाह
मशविरा तर्क औऱ सहयोग के साथ लिबरल डेमोक्रेटिक हैं वही अधिक सुखी हैं
''''''''बजाय उनके जिनके घर में """नरपरमेसुर "की तानाशाही धमक थर्राहट
बमक और गाज़ गिरती रहती ।
©®सुधा राजे
--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117
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