सुधा राजे का लेख - त्याग स्त्री ही क्यों करे??

अधिकांश औसत भारतीय
लङकियाँ पिता के घर न मीट माँस
अंडे खातीं पकातीं है न शराब
पीतीं पिलाती है ।
लेकिन
पत्नी और बहू के कर्त्तव्य के नाम पर
"लङकी देखने जाते समय ये
घोषणा नहीं करने वाले तक
""यदि मासाहारी है
तो स्त्री को शुरुआती ना नुकर के
बाद मजबूर कर दिया जाता है
""मीट चिकिन एग आदि पकाने को
उसे
झेलनी पङती है ये 'स्वेच्छा से
की गयी कुरबानी ।
शराब की सङाँध मारता पति और
हड्डियाँ काँटे लहू सने बरतन माँजने
पङते हैं ।
हमारी अपनी अनेक
करीबी रिश्तेदार
लङकियों को ससुराल में जेठ ससुर देवर
पति मेहमानों के
"""
शराब के मांस के बरतन माँजते धोते
और मितली से हुङकते देखा ।
मन की मजबूरी दिल की बेबसी
ये
सारे त्याग स्त्री पर ही क्यों?
काम वाली बाई नहीं आई
और
जचगी के बाद तीस दिन के बच्चे
को लिये टोकरा भर बरतन
'हड्डियाँ काँटें अंडों के छिलके शराब
के गिलास नाक पर कपङा रख कर
समेटते छलछलाते एक बेहद
करीबी अपनी ही लङकी जैसी लङकी के
दो नयन ।
कभी नहीं भूलते ।
हमने मदद को हाथ आगे बढ़ाये और
उसने हाथ जोङ दिये "
"आप मेहमान हो ""शाकाहारी हो
।मुझे तो हमेशा इन सबके बीच
रहना ही है ।
काश
कोई इस पीङा को समझे??
©®सुधा राजे


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Sudha Raje
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Comments

  1. अजीब सी जबरदस्ती है " मन मावे मुंडी कटावे "

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