सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग पाँच)

अमूमन पचास प्रतिशत से अधिक पुरुष शराब बीङी सिगरेट गुटखा सिनेमा और होटल
ढाबे के पकवानों पर अपनी कमाई बिना पत्नी और माता से पूछे ही खर्च करते
हैं ।
जबकि पूर्ण कालीन सुशील गृहणियाँ इस खर्च को रोकते ही मारी पीटी गरियाई
और न कुछ ज्यादा सही तो तानों से ही बेधी जाती है कि """मेरी कमाई मैं
चाहे जहाँ खर्च करूँ तेरे बाप का माल नहीं,,,
जबकि पूर्ण कालीन गृहिणी को विवश किया जाता है मायके से छटी दशटोन छूछक
भात पर धन धातुयें और वस्त्र मँगाने को ।
जो नहीं मँगा पातीं उनका अपमान किया जाता है ।
और ममता?? अगर पालती है तो पूर्ण कालीन गृहिणी के बच्चे नहीं बिगङते?? ये
गारंटी कौन लेगा?? कि पूर्ण कालीन गृहिणी पर ज़ुल्म नहीं होंगे? उसकी
संतानें बुढ़ापे और वैधव्य में धोखा नहीं देगी? दो चार अपवादों से समाज
नहीं चलता । वरना ममता की छाँव में पले गरीब लङके कूङा नहीं बीनते और
गरीब लङकियाँ ""माँस ""की तरह नहीं बिकतीं ।सब की सब नौकरी रोजगार करने
वाले दंपत्ति के बच्चे ""कोई बिगङे ही तो नहीं???? जबकि गृहिणियों के
बिगङे पति और बच्चों की संख्या ज्यादा है

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Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
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Email- sudha.raje7@gmail.com
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