सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग एक)
Sudha Raje
तलाक के बाद
मारी मारी फिरती औरतें??? पति मरने
के बाद मारी मारी फिरती औरते??
पिता के पास धन न होने से
कुँवारी बङी उमर तक बैठी लङकियाँ??
और योग्य होकर भी दहेज कम होने से
निकम्मे और खराब मेल के लङकों को ब्याह
दी गयीं लङकियाँ "धक्के मार कर घर से
निकाली गयीं माँयें और बीबियाँ??????
इसी एशिया और भारत के तीन टुकङों में
सबसे अधिक है????
क्योंकि इनका निजी घर इनके नाम
नही और कमाई का निजी निरंतर
जरिया नहीं
और जो बाँझ औरतें है?? वे कसाई
की गौयें?क्योंकि हर बात पेरेंटिंग के नाम पर स्त्री पर थोप दी जाती है
कि माता अगर घर पर रहकर घर की सेवा करेगी तो बच्चों को हर वक्त ममता की
छांव मिलेगी ?तो जिनके बच्चे किसी कारण से नहीं हो सकते वे औरतें? अपनी
मरज़ी बच्चा गोद नहीं ले सकतीं क्योंकि पति को अपने ही बीज से पैदा बच्चा
चाहिये और ग़ैर के बीज के पेङ को अपनी संपत्ति का वारिस बनाना ग़वारा
नहीं । तब? परिणाम स्वरूप भयंकर मानसिक टॉर्चर समाज भी करता है और परिवार
भी बहुत कम पुरुष स्त्री के बाँझ होने पर बच्चा गोद लेते हैं अकसर बच्चा
गोद तब लिया जाता है जब कमी प्रजनन बीजों की पुरुष में निकल जाती है ।
इसके विपरीत जो स्त्रियाँ स्वावलंबी हैं वे यदि चाहें तो स्वस्थ होने पर
भी अपना बच्चा जन्म देने के बज़ाय समाज हित में अनाथ बच्चों को भी गोद ले
सकती है ।
बच्चों को हर तरह से ""पढ़ा लिखा कर
योग्य बनाने को करोङो रुपया चाहिये
""""कितने पुरुष अकेले ये बोझ उठा पाते
है?एक लेडी डॉक्टर लेडी नर्स
लेडी टीचर लेडी पुलिस
"""कैसी मिलेगी '''घरेलू गृहिणियों को?
यदि लङकियाँ किसी न किसी परिवार से जॉब करने नहीं निकलेगीं तो कहाँ से
आयेंगी लेडी गायनोकोलोजिस्ट और स्त्री शिक्षक स्त्री पुलिस स्त्री नर्स?
व्यवहार में यही साबित हुआ है
कि डॉक्टर टीचर नर्स प्रोफेसर
वैज्ञानिक माता के बेटे बेटियाँ ""अधिक
योग्य सुखी और जिम्मेदार नागरिक बनतेआये है """"बजाय पूर्ण कालीन पति और
मायके पर निर्भर गृहिणी के ।क्योंकि एक माता जो मेहनत हुनर या शिक्षा और
तकनीक के बल पर जब पैसा रुपया कमाती है तो बच्चों को बचपन से ही माता के
संरक्षण में अपने निजी कार्य स्वयं करने और अधिकांश घरेलू कार्यों में
आत्मनिर्भर रहने की आदत पङ जाती है । वह पैसे रुपये कमाने खर्चने और
बचाने के सब तरीके समझने लगता है । जबकि जिनकी माता पूर्ण कालीन गृहिणी
है वे बच्चे बहुत बङी आयु तक न तो भोजन पकाना सीख पाते हैं न परोसकर खाना
और कपङे धोना स्वयं पहनना समय का पालन करना और सारी चीज़ें सही जगह रखना
और अपने जूठे बर्तन सिंक पर रखना कूङा डस्टबिन में डालना तक जरूरी नहीं
समझते ।
आप किसी छोटे नगर कसबे गाँव या महानगर के आम साधारण परिवारों में जाकर
देखें, बङे बङे किशोर और युवा बेटे माता के सामने कपङों का ढेर लगाकर हर
समय कुछ न कुछ हुकुम झाङते मिलेंगे ।माँ न हुयी हर वक्त चलता मुफ्त का
रोबोट हो गयी!!!
कभी पढ़ाई के बहाने कभी खेल के बहाने कभी मूड के बहाने घर में काम काज
में वे बच्चे अकसर काम में हाथ नहीं बँटाते जिनकी मातायें पूर्णकालीन
गृहिणी हैं ।उनको लगता है माँ करती ही क्या है । चूँकि चॉकलेट टॉफी कपङे
खिलौने और सब चीजें मनोरंजन और खाने पीने की "पिता की कमाई "से आतीं हैं
तो सीधा असर यही पङता है कि बच्चे पापा की चमचागीरी पर उतर आते हैं ।
पापा घुम्मी कराने ले जाते हैं माँ घर में सङती रहती है । पापा खुश तो हर
फरमाईश पूरी और मम्मी? अब ये तो खाना पकाने साफ सफाई करने की मशीन है ।
ज्यों ज्यों बङे होते जाते हैं परिवार में "अधूरी पढ़ाई छोङकर पूर्णकालीन
गृहिणी बनने वाली माता की अनसुनी होने लगती है ।सीधी सीधी बात सात साल के
बाद हर दिन बच्चा सीखता है कि खुशियाँ आतीं हैं पैसे रुपये से और पैसा
रुपया लाते हैं पापा । तो घर का मालिक पापा हैं और हुकूमत उसकी जिसकी
कमाई ।
जबकि जिन घरों में माता भी कमाती हैं वहाँ पिता का व्यवहार माता के प्रति
कम मालिकाना कम हुकूमती कम क्रूर होता है और बराबरी जैसी स्थिति घरेलू
खर्चे उठाने में होने की वजह से बच्चा माँ पिता दोनों के साथ लगभग समान
बरताव करता है पति भी स्त्री से हर बात पर राय मशविरा करना जरूरी समझता
है ।
घर में रुपया पैसा ज्यादा आता है तो स्कूल बढ़िया हो जाता है । खाने की
थाली में व्यञ्जन भरे भरे हो जाते हैं और नहाने धोने पहनने देखने सोने और
घूमने फिरने को अधिक संसाधन होते हैं ।बच्चे को अनुशासित दिनचर्या मिलती
है और ""तरस ''कर नहीं रह जाना पङता । क्रूरता कम होती है माता पर तो ऐसा
बच्चा ""स्त्रियों का सम्मान करना सीखता है ।
ये सही है कि बच्चे को स्कूल के समय के अलावा हर समय अभिभावक चाहिये ।
किंतु ये भी सही है कि कोरी ममता से कुछ भविष्य बनता नहीं है बच्चे । चरा
चरा कर साँड बना डालने से कुछ हल नहीं है जीवन को आगे विकसित उन्नत और
सभ्य समाज की प्रतियोगिता में ""अच्छा स्कूल अच्छे कपङे अच्छा भोजन
बढ़िया टॉनिक फल सब्जी दाल साबुन शेंपू बिस्तर मकान जमीन बैंक बैलेंस और
बढ़िया व्यवसायिक शिक्षा चाहिये ।
ये
सब आता है रुपये पैसे से । कितने पिता हैं जिनके अकेले के बूते की बात है
ज़माने के हिसाब से एक घर पढ़ाई दवाई कपङे बिजली कूलर गीजर पानी
सबमर्सिबल एयर कंडीशनर आलमारी डायनिंग टेबल बिस्तर और मोटी फीस चुकाकर
जॉब दिलाने की दम रखते हैं?
अकसर सात साल तक आते आते बच्चे की जरूरतें ही विवश करतीं हैं स्त्री को
छोङी गयी पढ़ाई और जॉब फिर से शुरू करने के लिये ।
मँहगाई तो है ही कमर तोङ बच्चे बङे होते जाने के साथ साथ "निरर्थक बचा
समय भी चारदीवारी में बंद बँधा जीवन भी काटने लगता है । और एक एक करके
सब अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं । कौन फिर वह एक एक रात
गिनता है जब माता देर से सोयी और जल्दी जागी?
जब पत्नी दिन भर कुछ न कुछ काम हाथ में लिये कोल्हू के बैल सी पूरे घर
में मँडराती रही?
देह कमजोर और किसी न किसी व्याधि से ग्रस्त हो जाती है शरीर बेडौल हो
जाता है क्योंकि बंद दीवारों से आधी सदी बाहर नहीं निकली स्त्री फिर बाहर
जाने का शौक और आत्मविश्वास ही खो देती है ।
इसके विपरीत
जो स्त्रियाँ किसी न किसी जॉब में लगी रहती हैं वे अपनी कमाई का कुछ न
कुछ हिस्सा खुद पर भी खर्च करने से स्वस्थ ऱहती है और प्रतिदिन ठीक से सज
सँवर कर काम काज करने जाने की दिनचर्या से चुस्त दुरुस्त भी रहतीं है ।
और बाहरी समाज से मिलना जुलना एकरसता और तनाव को तोङता रहता है । अच्छे
कपङे पहनने और नियमित दिनचर्या के अनुसार अनुशासित रहने से वे देर तक
युवा रहती हैं और खुश भी
हर मामूली सी चीज के लिये पति से रुपया माँगने को मजबूर स्त्रियाँ अधिकतर
मन मारकर जीना सीखती रहती है दमन ही आदत हो जाती है । या तो फिर झूठ
बोलकर रुपया बचाती है निजी खर्च के लिये । और तब भी कुछ पसंद का खाना
पहनना उनको अपने ऊपर फिजूल खर्ची लगता है । बहुत अमीर पति नहीं है तब तो
कलह की जङ ही बन जाता है बीबी का कपङा गहना मेकअप और कुछ अलग सा खा लेना
और किसी बहिन भांजे भतीजे माता पिता सहेली को कोई ""उपहार देना तो सपना
ही रह जाता है "
ज्यों ज्यों बच्चे युवा होकर अपने कैरियर विवाह और परिवार बसाते जाते हैं
स्त्री ""बेकार ""पङी ट्राईसाईकिल पालना वॉकर की तरह की याद बनकर रह जाती
है ।
जबकि आत्मनिर्भऱ स्त्री का सबसे बढ़िया समय ही पचास साल की आयु के बाद
प्रारंभ होता है वह पर्याप्त सामाजिक हैसियत धन और अनुभव जुटा लेने के
बाद ''स्वावलंबी बच्चों को ताने देने डिस्टर्ब करने के बजाय अपनी फिटनेस
हॉबीज समाज सुधार के कार्य आध्यात्म और वे सब शौक पूरे करने पर जुट जाती
है जो वक्त न मिलने के कारण विवाह के बाद से बीस साल बंद रह गये ।
माता की ममता दूध कोख का तो कर्ज़ रहता ही है सब पर किंतु वह माता "सुपर
मॉम "साबित होकर हमेशा अपनी संतान के जीवन में आदर पाती है जो उसको आगे
बढ़ाने में अपनी कमाई का पैसा भी लगाती है ।
ऐसी कोई भी साजिश जो औरतों पर
थोपती हो """स्वयं को केवल
सेविका दासी और बच्चे पैदा करने
की मशीन होना """""समय
का पहिया उलटा घुमाने की साजिश है
"""बौखलाया तो गोरों का समाज
भी था जब कालों ने
दासता छोङी थी आज सब बराबरी से
रहते हैं """पुरुषों को भी घर में झाङू
पोंछा बरतन कपङे रोटी टॉयलेट कच्छे
बनियान बराबरी से हाथ बँटाकर
बिना लज्जित हुये करना सीखना जब तक
नहीं आयेगा """"ये
जाती सत्ता बौखलाती रहेगी """दलित
सेवक न मिलने पर सामंतो की तरह
ये ""महिलायें तय
करेंगी उनको क्या करना है ''''ये तय करेगे
काले लोग उनको क्या करना है ""ये तय
करेगे दलित उनको क्या करना है """
माँ विधवा है बूढ़ी है लाचार है और
बेटा परदेश लेकर
चला गया फैमिली """"बेटी पढ़ी लिखी है या अनपढ़ है लेकिन गृहिणी रह गयी
वह बिलखती है रोती है तङपती है किंतु माँ को दवाई कपङे और अपने साथ रखकर
सेवा नहीं दे सकती????? क्यों जँवाई भी तो बेटा है??? जब बहू ससुर सास की
सेविका है तो??? लेकिन
ऐसी हजारों बेटियाँ आज है
जो बिना नजर पर लज्जित होने का बोध कराये माँ बाप को ""सहारा सेवा दे
रही हैं ।और ये केवल वही बेटियाँ जिनको उनके माँ बाप ने या खुद उन्होने
संघर्ष करके पढ़ा और कला या शिक्षा के दम पर आत्मनिर्भर हैं ।
ऐसी बेटियाँ पिता माता को मुखाग्नि भी दे रहीं हैं और पुत्र से अधिक सेवा
भी कर रहीं हैं बहू या जामाता तो पराया जाया है किंतु बेटी और बेटा तो
अपनी ही संतान है । फिर वह बेटी ही विवश रह जाती है जो पूर्ण कालीन
गृहपरिचारिका बन कर रह जाती है इससे भी अधिक बजाय माँ बाप का बुढ़ापे का
सहारा बनने के ऐसी बेटी के घर भात छटी छूछक और तीज चौथ के सिमदारे भेंटे
भेजने को बूढ़े माँ बाप की पेंशन पर भी लूट पाट रहती है ।
क्या वीभत्स चित्र है कि युवा बेटी को विधुर बूढ़ा बाप या बूढ़ी माता
पेशन से कटौती करके त्यौहारी भेजती है!!!
"""विधवा स्त्री तलाकशुदा स्त्री और
विकलांग पति की स्त्री और बाँझ
स्त्री और तेजाब जली स्त्री को केवल एक
सहारा"निजी कमाई " जिसने बेटी ब्याहने में सब
लुटा दिया उनको?केवल जँवाई का इंतिज़ार की कब बुढ़िया मर जाये तो कब घर
जमीन बेच कर अपने वैभव में समाहित कर लें ??
अगर ""परंपरा से पुरुषों ने स्त्रियों पर
जुल्म नहीं किये होते ""विधवाओं
को अभागन न
माना होता विवाहिता को ठुकराया न
होता ""निःपुत्र सास ससुर
की सेवा की होती ""अपनी कमाई पर
स्त्री का हक समझा होता """"तो ये
नौबत
ही नहीं आती कि बिलखती स्त्री ''यौवन
गँवाकर प्रौढ़ावस्था में कमाई के नाम पर
सताई जाती और विवश होकर
अगली पीढ़ी पहले ही अपने भविष्य
को अपने हाथ में ऱखने निकल पङती????
एक ठोस संदेश
भी सदियों की दासता की आदत
छोङो और घर बाहर बराबर काम
करो ''पेरेंटिंग दोनो की जिम्मेदारी है
''नौ महीने पेट में रखकर माँ तो फिर
भी अधिक करती ही है वह कमाऊ
गृहिणी है या घर रहती है उसके
"आर्थिक हक "तय करने वाला कोई
दूसरा क्यों? वह अपना हित अपने स्वभाव के हिसाब से
--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117
तलाक के बाद
मारी मारी फिरती औरतें??? पति मरने
के बाद मारी मारी फिरती औरते??
पिता के पास धन न होने से
कुँवारी बङी उमर तक बैठी लङकियाँ??
और योग्य होकर भी दहेज कम होने से
निकम्मे और खराब मेल के लङकों को ब्याह
दी गयीं लङकियाँ "धक्के मार कर घर से
निकाली गयीं माँयें और बीबियाँ??????
इसी एशिया और भारत के तीन टुकङों में
सबसे अधिक है????
क्योंकि इनका निजी घर इनके नाम
नही और कमाई का निजी निरंतर
जरिया नहीं
और जो बाँझ औरतें है?? वे कसाई
की गौयें?क्योंकि हर बात पेरेंटिंग के नाम पर स्त्री पर थोप दी जाती है
कि माता अगर घर पर रहकर घर की सेवा करेगी तो बच्चों को हर वक्त ममता की
छांव मिलेगी ?तो जिनके बच्चे किसी कारण से नहीं हो सकते वे औरतें? अपनी
मरज़ी बच्चा गोद नहीं ले सकतीं क्योंकि पति को अपने ही बीज से पैदा बच्चा
चाहिये और ग़ैर के बीज के पेङ को अपनी संपत्ति का वारिस बनाना ग़वारा
नहीं । तब? परिणाम स्वरूप भयंकर मानसिक टॉर्चर समाज भी करता है और परिवार
भी बहुत कम पुरुष स्त्री के बाँझ होने पर बच्चा गोद लेते हैं अकसर बच्चा
गोद तब लिया जाता है जब कमी प्रजनन बीजों की पुरुष में निकल जाती है ।
इसके विपरीत जो स्त्रियाँ स्वावलंबी हैं वे यदि चाहें तो स्वस्थ होने पर
भी अपना बच्चा जन्म देने के बज़ाय समाज हित में अनाथ बच्चों को भी गोद ले
सकती है ।
बच्चों को हर तरह से ""पढ़ा लिखा कर
योग्य बनाने को करोङो रुपया चाहिये
""""कितने पुरुष अकेले ये बोझ उठा पाते
है?एक लेडी डॉक्टर लेडी नर्स
लेडी टीचर लेडी पुलिस
"""कैसी मिलेगी '''घरेलू गृहिणियों को?
यदि लङकियाँ किसी न किसी परिवार से जॉब करने नहीं निकलेगीं तो कहाँ से
आयेंगी लेडी गायनोकोलोजिस्ट और स्त्री शिक्षक स्त्री पुलिस स्त्री नर्स?
व्यवहार में यही साबित हुआ है
कि डॉक्टर टीचर नर्स प्रोफेसर
वैज्ञानिक माता के बेटे बेटियाँ ""अधिक
योग्य सुखी और जिम्मेदार नागरिक बनतेआये है """"बजाय पूर्ण कालीन पति और
मायके पर निर्भर गृहिणी के ।क्योंकि एक माता जो मेहनत हुनर या शिक्षा और
तकनीक के बल पर जब पैसा रुपया कमाती है तो बच्चों को बचपन से ही माता के
संरक्षण में अपने निजी कार्य स्वयं करने और अधिकांश घरेलू कार्यों में
आत्मनिर्भर रहने की आदत पङ जाती है । वह पैसे रुपये कमाने खर्चने और
बचाने के सब तरीके समझने लगता है । जबकि जिनकी माता पूर्ण कालीन गृहिणी
है वे बच्चे बहुत बङी आयु तक न तो भोजन पकाना सीख पाते हैं न परोसकर खाना
और कपङे धोना स्वयं पहनना समय का पालन करना और सारी चीज़ें सही जगह रखना
और अपने जूठे बर्तन सिंक पर रखना कूङा डस्टबिन में डालना तक जरूरी नहीं
समझते ।
आप किसी छोटे नगर कसबे गाँव या महानगर के आम साधारण परिवारों में जाकर
देखें, बङे बङे किशोर और युवा बेटे माता के सामने कपङों का ढेर लगाकर हर
समय कुछ न कुछ हुकुम झाङते मिलेंगे ।माँ न हुयी हर वक्त चलता मुफ्त का
रोबोट हो गयी!!!
कभी पढ़ाई के बहाने कभी खेल के बहाने कभी मूड के बहाने घर में काम काज
में वे बच्चे अकसर काम में हाथ नहीं बँटाते जिनकी मातायें पूर्णकालीन
गृहिणी हैं ।उनको लगता है माँ करती ही क्या है । चूँकि चॉकलेट टॉफी कपङे
खिलौने और सब चीजें मनोरंजन और खाने पीने की "पिता की कमाई "से आतीं हैं
तो सीधा असर यही पङता है कि बच्चे पापा की चमचागीरी पर उतर आते हैं ।
पापा घुम्मी कराने ले जाते हैं माँ घर में सङती रहती है । पापा खुश तो हर
फरमाईश पूरी और मम्मी? अब ये तो खाना पकाने साफ सफाई करने की मशीन है ।
ज्यों ज्यों बङे होते जाते हैं परिवार में "अधूरी पढ़ाई छोङकर पूर्णकालीन
गृहिणी बनने वाली माता की अनसुनी होने लगती है ।सीधी सीधी बात सात साल के
बाद हर दिन बच्चा सीखता है कि खुशियाँ आतीं हैं पैसे रुपये से और पैसा
रुपया लाते हैं पापा । तो घर का मालिक पापा हैं और हुकूमत उसकी जिसकी
कमाई ।
जबकि जिन घरों में माता भी कमाती हैं वहाँ पिता का व्यवहार माता के प्रति
कम मालिकाना कम हुकूमती कम क्रूर होता है और बराबरी जैसी स्थिति घरेलू
खर्चे उठाने में होने की वजह से बच्चा माँ पिता दोनों के साथ लगभग समान
बरताव करता है पति भी स्त्री से हर बात पर राय मशविरा करना जरूरी समझता
है ।
घर में रुपया पैसा ज्यादा आता है तो स्कूल बढ़िया हो जाता है । खाने की
थाली में व्यञ्जन भरे भरे हो जाते हैं और नहाने धोने पहनने देखने सोने और
घूमने फिरने को अधिक संसाधन होते हैं ।बच्चे को अनुशासित दिनचर्या मिलती
है और ""तरस ''कर नहीं रह जाना पङता । क्रूरता कम होती है माता पर तो ऐसा
बच्चा ""स्त्रियों का सम्मान करना सीखता है ।
ये सही है कि बच्चे को स्कूल के समय के अलावा हर समय अभिभावक चाहिये ।
किंतु ये भी सही है कि कोरी ममता से कुछ भविष्य बनता नहीं है बच्चे । चरा
चरा कर साँड बना डालने से कुछ हल नहीं है जीवन को आगे विकसित उन्नत और
सभ्य समाज की प्रतियोगिता में ""अच्छा स्कूल अच्छे कपङे अच्छा भोजन
बढ़िया टॉनिक फल सब्जी दाल साबुन शेंपू बिस्तर मकान जमीन बैंक बैलेंस और
बढ़िया व्यवसायिक शिक्षा चाहिये ।
ये
सब आता है रुपये पैसे से । कितने पिता हैं जिनके अकेले के बूते की बात है
ज़माने के हिसाब से एक घर पढ़ाई दवाई कपङे बिजली कूलर गीजर पानी
सबमर्सिबल एयर कंडीशनर आलमारी डायनिंग टेबल बिस्तर और मोटी फीस चुकाकर
जॉब दिलाने की दम रखते हैं?
अकसर सात साल तक आते आते बच्चे की जरूरतें ही विवश करतीं हैं स्त्री को
छोङी गयी पढ़ाई और जॉब फिर से शुरू करने के लिये ।
मँहगाई तो है ही कमर तोङ बच्चे बङे होते जाने के साथ साथ "निरर्थक बचा
समय भी चारदीवारी में बंद बँधा जीवन भी काटने लगता है । और एक एक करके
सब अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं । कौन फिर वह एक एक रात
गिनता है जब माता देर से सोयी और जल्दी जागी?
जब पत्नी दिन भर कुछ न कुछ काम हाथ में लिये कोल्हू के बैल सी पूरे घर
में मँडराती रही?
देह कमजोर और किसी न किसी व्याधि से ग्रस्त हो जाती है शरीर बेडौल हो
जाता है क्योंकि बंद दीवारों से आधी सदी बाहर नहीं निकली स्त्री फिर बाहर
जाने का शौक और आत्मविश्वास ही खो देती है ।
इसके विपरीत
जो स्त्रियाँ किसी न किसी जॉब में लगी रहती हैं वे अपनी कमाई का कुछ न
कुछ हिस्सा खुद पर भी खर्च करने से स्वस्थ ऱहती है और प्रतिदिन ठीक से सज
सँवर कर काम काज करने जाने की दिनचर्या से चुस्त दुरुस्त भी रहतीं है ।
और बाहरी समाज से मिलना जुलना एकरसता और तनाव को तोङता रहता है । अच्छे
कपङे पहनने और नियमित दिनचर्या के अनुसार अनुशासित रहने से वे देर तक
युवा रहती हैं और खुश भी
हर मामूली सी चीज के लिये पति से रुपया माँगने को मजबूर स्त्रियाँ अधिकतर
मन मारकर जीना सीखती रहती है दमन ही आदत हो जाती है । या तो फिर झूठ
बोलकर रुपया बचाती है निजी खर्च के लिये । और तब भी कुछ पसंद का खाना
पहनना उनको अपने ऊपर फिजूल खर्ची लगता है । बहुत अमीर पति नहीं है तब तो
कलह की जङ ही बन जाता है बीबी का कपङा गहना मेकअप और कुछ अलग सा खा लेना
और किसी बहिन भांजे भतीजे माता पिता सहेली को कोई ""उपहार देना तो सपना
ही रह जाता है "
ज्यों ज्यों बच्चे युवा होकर अपने कैरियर विवाह और परिवार बसाते जाते हैं
स्त्री ""बेकार ""पङी ट्राईसाईकिल पालना वॉकर की तरह की याद बनकर रह जाती
है ।
जबकि आत्मनिर्भऱ स्त्री का सबसे बढ़िया समय ही पचास साल की आयु के बाद
प्रारंभ होता है वह पर्याप्त सामाजिक हैसियत धन और अनुभव जुटा लेने के
बाद ''स्वावलंबी बच्चों को ताने देने डिस्टर्ब करने के बजाय अपनी फिटनेस
हॉबीज समाज सुधार के कार्य आध्यात्म और वे सब शौक पूरे करने पर जुट जाती
है जो वक्त न मिलने के कारण विवाह के बाद से बीस साल बंद रह गये ।
माता की ममता दूध कोख का तो कर्ज़ रहता ही है सब पर किंतु वह माता "सुपर
मॉम "साबित होकर हमेशा अपनी संतान के जीवन में आदर पाती है जो उसको आगे
बढ़ाने में अपनी कमाई का पैसा भी लगाती है ।
ऐसी कोई भी साजिश जो औरतों पर
थोपती हो """स्वयं को केवल
सेविका दासी और बच्चे पैदा करने
की मशीन होना """""समय
का पहिया उलटा घुमाने की साजिश है
"""बौखलाया तो गोरों का समाज
भी था जब कालों ने
दासता छोङी थी आज सब बराबरी से
रहते हैं """पुरुषों को भी घर में झाङू
पोंछा बरतन कपङे रोटी टॉयलेट कच्छे
बनियान बराबरी से हाथ बँटाकर
बिना लज्जित हुये करना सीखना जब तक
नहीं आयेगा """"ये
जाती सत्ता बौखलाती रहेगी """दलित
सेवक न मिलने पर सामंतो की तरह
ये ""महिलायें तय
करेंगी उनको क्या करना है ''''ये तय करेगे
काले लोग उनको क्या करना है ""ये तय
करेगे दलित उनको क्या करना है """
माँ विधवा है बूढ़ी है लाचार है और
बेटा परदेश लेकर
चला गया फैमिली """"बेटी पढ़ी लिखी है या अनपढ़ है लेकिन गृहिणी रह गयी
वह बिलखती है रोती है तङपती है किंतु माँ को दवाई कपङे और अपने साथ रखकर
सेवा नहीं दे सकती????? क्यों जँवाई भी तो बेटा है??? जब बहू ससुर सास की
सेविका है तो??? लेकिन
ऐसी हजारों बेटियाँ आज है
जो बिना नजर पर लज्जित होने का बोध कराये माँ बाप को ""सहारा सेवा दे
रही हैं ।और ये केवल वही बेटियाँ जिनको उनके माँ बाप ने या खुद उन्होने
संघर्ष करके पढ़ा और कला या शिक्षा के दम पर आत्मनिर्भर हैं ।
ऐसी बेटियाँ पिता माता को मुखाग्नि भी दे रहीं हैं और पुत्र से अधिक सेवा
भी कर रहीं हैं बहू या जामाता तो पराया जाया है किंतु बेटी और बेटा तो
अपनी ही संतान है । फिर वह बेटी ही विवश रह जाती है जो पूर्ण कालीन
गृहपरिचारिका बन कर रह जाती है इससे भी अधिक बजाय माँ बाप का बुढ़ापे का
सहारा बनने के ऐसी बेटी के घर भात छटी छूछक और तीज चौथ के सिमदारे भेंटे
भेजने को बूढ़े माँ बाप की पेंशन पर भी लूट पाट रहती है ।
क्या वीभत्स चित्र है कि युवा बेटी को विधुर बूढ़ा बाप या बूढ़ी माता
पेशन से कटौती करके त्यौहारी भेजती है!!!
"""विधवा स्त्री तलाकशुदा स्त्री और
विकलांग पति की स्त्री और बाँझ
स्त्री और तेजाब जली स्त्री को केवल एक
सहारा"निजी कमाई " जिसने बेटी ब्याहने में सब
लुटा दिया उनको?केवल जँवाई का इंतिज़ार की कब बुढ़िया मर जाये तो कब घर
जमीन बेच कर अपने वैभव में समाहित कर लें ??
अगर ""परंपरा से पुरुषों ने स्त्रियों पर
जुल्म नहीं किये होते ""विधवाओं
को अभागन न
माना होता विवाहिता को ठुकराया न
होता ""निःपुत्र सास ससुर
की सेवा की होती ""अपनी कमाई पर
स्त्री का हक समझा होता """"तो ये
नौबत
ही नहीं आती कि बिलखती स्त्री ''यौवन
गँवाकर प्रौढ़ावस्था में कमाई के नाम पर
सताई जाती और विवश होकर
अगली पीढ़ी पहले ही अपने भविष्य
को अपने हाथ में ऱखने निकल पङती????
एक ठोस संदेश
भी सदियों की दासता की आदत
छोङो और घर बाहर बराबर काम
करो ''पेरेंटिंग दोनो की जिम्मेदारी है
''नौ महीने पेट में रखकर माँ तो फिर
भी अधिक करती ही है वह कमाऊ
गृहिणी है या घर रहती है उसके
"आर्थिक हक "तय करने वाला कोई
दूसरा क्यों? वह अपना हित अपने स्वभाव के हिसाब से
--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117
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