सुधा राजे का लेख :- स्त्री :- पवित्रता- अपवित्रता और वे पाँच सात दिन ।
स्त्री ;,......पवित्रता अपवित्रता और वे पाँच सात दिन!!!!!! कितने गंभीर
कितने उपेक्षित?
††††सुधा राजे का लेख """""
,,,,,,,,,,,,,,,,,,
कमलाराजा हॉस्पिटल ग्वालियर, प्रसूति वार्ड और बरामदे में लगा गॉज पट्टी
वाले झिरझिरे सफेद कपङे के चौकोर रूमाल में रूई की तहें बिठाकर बने पैड्स
का पहाङ लगातीं मिडवाईफ्स ', किशोरी मन ने पूछा ये क्या है? उत्तर मिला
ऐसा कि मन काँप गया, हकीकत से रू ब-रू होने में कुछ समय लगा, किंतु फिर
एन एस एस की चीफ होने के नाते गाँव सुधार कार्यक्रम में अकसर हमारा सवाल
हमउम्र लङकियों ही नहीं छोटी या बङी किसी भी आयु की स्त्री से यही दो तीन
बातें रहतीं ""घर में शौचालय है? पैड कैसे बनाती हो? आंतरिक अंगों की
साफ सफाई कैसे रखती हो? कहीं कोई बीमारी दर्द सूजन कमजोरी समय अधिक तो
नहीं? परिवार में मासिक धर्म के समय स्त्रियों से कैसा व्यवहार होता है?
हालांकि मास्टर ट्रेनर और वॉलेण्टियर होने के नाते सारा जोर साक्षरता पर
रहता था ।फिर भी गाँवों के हालात तब बहुत खराब थे, तो आज भी बहुत अच्छे
नहीं है ।आज भी गाँव कसबों ही नहीं नगरों और महानगरों में भी मध्यम वर्ग
और निम्न मध्यम वर्ग और गरीब तथा गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के बजट
में,, परिवार की स्त्रियों के लिये सेनेटरी नैपकिन का कोई भी खर्च जुङा
हुआ नहीं है । आज भी कोई गारंटेड नैपकिन बाज़ार में उपलब्ध नहीं है जो हर
आयु की स्त्री के तेज रक्तस्राव के समय घर से कॉलेज या दफ्तर या यात्रा
पर जाते समय, बिना बदले बिना दाग लगाये पूरे छह से आठ घंटे, तक निश्चिन्त
रह सके वहाँ यदि टॉयलेट्स नहीं मिले और समय न मिले कहीं खतरा हो एकान्त
में जाने का तब कोई अकेली दुकेली स्त्री या पुरुष समूह के साथ काम काज पर
जरूरी टास्क करने की विवशता में बाहर जाने वाली स्त्री क्या करे??
मासिक रजोधर्म की कोई निश्चित समय सीमा घङी या निर्धारित तारीख घङी
कैलेण्डर से तो फिक्स है नहीं, किसी लङकी को यह दो दिन ही रहता है तो
किसी को तीन दिन किसी को चार पाँच या छह सात दिन तक भी अधिकतम मासिक
स्राव रह सकता है, और कहीं भी हो सकता है 'अचानक स्कूल में बस में घर में
रेलगाङी में ऑटो में या ऑफिस में,और माहौल ऐसा बना हुआ है हमारे भारतीय
समाज का कि किशोरी लङकियाँ हों या पाँच बच्चों की माता, जरा सा दाग लगते
ही बेहद लज्जित घबरायी और शर्म से पानी पानी हो जाती हैं ।मानो यह भयंकर
अपराध उन्होंने जानबूझ कर किया हो और वह छिपाने लग जाती है, लोग घूरना
शुरू कर देते हैं बदतमीजी के व्यंग्य करने लगते हैं, एक लङकी के कपङे पर
लाल कत्थई धब्बा उसके आस पास की सब लङकियों के लिये शर्मिन्दगी की वजह बन
जाती । आज भी आधे भारत की पूरी स्त्रियों से अधिकांश, फटे पुराने कपङों
के टुकङे 'कतरन और रद्दी अखबार, पुरानी बेकार रुई और ऊन या अन्य कूङा
कचरा जैसा सामान रक्त स्राव सोखने के लिये प्रायवेट अंगों पर बाँधती है ।
बार बार धो धो कर वही दो चार टुकङे मासिक रक्त को सोखने के लिये इस्तेमाल
करतीं हैं और बोरी या थैले में भरकर रख देतीं हैं अगले महीने के लिये,
।जिस देश में प्याज की कमी पर सरकार निरस्त हो जाती है और पेट्रोल के दाम
बढ़ने पर लोग सङकों पर जाम लगा देतें हैं उसी देश की आधी आबादी को आज तक
प्रजनन व्यवस्था के तहत कुदरत ने जो जिम्मेदारी सौंपी है उस रजोधर्म के
समय रक्तस्राव सोखने अंगों को सूखा साफ और कपङों को दाग धब्बों से बचाने
को सही मात्रा में सही सामग्री से बने हाईजिनिक सेनेटरी नैपकिन्स तक
उपलब्ध नहीं हैं!!!!!!!!!
बात करते रहिये एटम की बुलेट ट्रेन की और देश को छठीं महाशक्ति बनाने की,
'उस देश में जहाँ लङकी के किशोर होने पर दादी और माता माथा पीट कर पछताती
है लङकी होने पर एक और बाज़िब कारण से कि ""अब कथरी गुदङी दरी और खोली
बिछौने थैले बनाने को कपङे चिंदी तक नहीं बचेंगे । लोग बङे आराम से
अहंकार से कह सकते हैं कि हर दुकान पर सेनेटरी नैपकिन है न? किंतु कोई
सोचना गवारा करेगा कि जिस देश में एक व्यक्ति की आय सत्ताईश से पैंतीस
रुपया रोज होने पर उसे गरीबी रेखा से ऊपर होने की बात माननीय कहते हैं,
'उस घर की दो बेटियों दो बहुओं और दो पोतियों और एक माता के लिये
""सेनेटरी नैपकिन कैसे खरीदेगा कोई गरीब!!!! यहाँ तक कि मिडिल क्लास
परिवार तक सेनेटरी नैपकिन को बजट से बाहर ही रखता है ।
अगर पाँच स्त्रियाँ घर में हैं तो दो पैड दिन के दो पैड रात के कुल
मिलाकर चार पैड प्रतिदिन पाँच दिन औसत हर महीने हर स्त्री के लिये रखें
तो भी, सौ पैड प्रतिमाह का औसत खर्च एक परिवार पर आयद हो जाता है । जिनकी
कीमत प्रतिमाह एक सौ पचास रुपये प्रति स्त्री बैठती है और साढ़े सात सौ
रुपये!!!!!! बाप रे बाप, 'कैसे कोई करे इस व्यवस्था से इंतिज़ाम?? सरकारी
अस्पतालों में सरकार जो भी चीखे किंतु ज़मीनी हकीकत यही है कि प्रसव
कराने गयी जच्चा एक बोरी भरके पुराने सूती कपङे दर्द शुरू होने पर लेकर
ही जाती है और उनको ही दाई नर्स प्रसव के बाद बाँध देती हैं । नैपकिन्स
का बजट होता होगा किंतु कोई सीबीआई जाँच करा ले कि यूपी बिहार हरियाणा
राजस्थान और बंगाल तमिलनाडु उङीसा जैसे राज्यों में क्या प्रसव के बाद
स्त्रियों को पैड की आपूर्ति अस्पताल की तरफ से की जाती है? या स्त्रियाँ
स्वयं ही लेकर जाती हैं और रजिस्टर पर पैड जोङ दिये जाते है? जाँच का
विषय है क्योंकि ये गंदी बात है गंदा टॉपिक है इसपर बोलना मना है आज भी ।
गंदे और संक्रमित रद्दी सामान कपङों से बने पैड बार बार प्रयुक्त करने और
प्रायवेट अंगों की ठीक से साफ सफाई की जानकारी न होने की वजह से, 'बहुत
सारी लङकियाँ, श्वेत प्रदर ल्यूकोरिया, खुजली, दाने, एलर्जी, मूत्राशय या
गर्भाशय या फैलोपिन ट्यूब या अंडाशय के संक्रमण जैसी गंभीर बीमारियों से
ग्रस्त हो जाती है, । कई बार बच्चेदानी का कैंसर तक हो जाता है । लाज
लिहाज और हीनताबोध रजोधर्म को लेकर इतना भर दिया गया है समाज में कि
लङकियाँ रक्तस्राव की अधिकता अधिक दिनों तक रक्त स्राव और थक्के आना दर्द
बुखार कमजोरी और चक्कर मितली जैसी समस्याओं पर माँ भाभी बहिन तक से बात
नहीं कर पातीं । जैसे यह कोई भीषण पाप है गुनाह है ।
कुछ छिछोरे लोग अकसर फिकरे कसते दिख जाते है, कि अमुक लङकी छुट्टी पर गयी
है लगता है एम सी सी से हो गयी है ।
लङकियाँ ऐसे किसी भी शब्द के उच्चारण से घबरातीं है । जो जैसे तैसे दुकान
तक पहुँच भी जायें तो न ब्रांड पर न साईज पर न ही कीमत पर परख पूछ मोल
तोल कर पातीं हैं, दुकानदार भी जैसे कोई गुनाह कर रहा हो ऐसे लिफाफे में
डालकर नैपकिन देता है और लङकियाँ चोरी से दाबकर ले जातीं है ",,कचरेदान
में फेंकना गुनाह, 'और कहाँ डंप करें यह समस्या, । चोरी से ही फेंकना
पङता है अँधेरे उजाले । कपङे की चर्र की आवाज न निकल जाये काटते फाङते
इसलिये सबसे एकांत कमरे में कपङा काटा फाङा जाता है । किसी कारण पसीने या
पानी से किसी कपङे का रंग लग गया कपङे पर तो भी डर?????
ये कैसा भयानक रूप बना डाला सभ्य मानव ने? प्रकृति के उस वरदान का जिससे
हर मानव नर हो नारी हो या किन्नर हो का शरीर रचता बनता है?? हड्डी खाल
माँस रक्त सब स्त्री के इसी मासिक रक्त स्राव का रक्त जमा होने से ही तो
बनते हैं? मतलब हर आदमी मासिक स्राव के रक्त का पुतला है!!!!!!!
और ग़ज़बनाक सच ये है कि नेपाल पाकिस्तान बाँगलादेश श्रीलंका सहित पूरे
भारतीय उप महाद्वीप में ""रजो धर्म ""के दौरान स्त्री को अपवित्र अछूत
अस्पृश्य और गंदा समझा जाता है!!!! जिस रक्त से नर बना है नारी बनी है उस
बच्चे को गोद में उठाकर प्यार करना पाप नहीं किंतु, रजस्वला स्त्री का
पूजा करना पाप है, मंदिर मसजिद दरगाह धर्म स्थल जाना पाप है, रसोई घर और
भंडार घर में भी बहुतायत घरों में रजस्वला का जाना मना है, धार्मिक
पुस्तक छूना मना है, कच्चे मिट्टी के बरतन गहने नये कपङे दावत का खाना
छूना मना है, 'अनेक घरों में पाँच दिन विशेष रद्दी बेकार मोटे कपङे पहने
स्त्रियाँ दरी चटाई पर जमीन पर सुलायी जाती हैं, अचार आटा चावल कच्चा
खाना और राशन छूना मना है । नेपाल में छत्तीसगढ़ झारखंड और अनेक स्थानों
पर आज भी मुख्य घर से बाहर, दूर झोपङी टप्पर में, रहने पर विवश की जाती
हैं रजस्वला लङकियाँ स्त्रियाँ, । कई घरों में तो मान्यता है कि रजस्वला
स्त्री को छूने या उसके छुये पदार्थ को खाने से पुरुषों की आयु क्षीण हो
जाती है । सरदी हो या बरसात, इस तरह पैड के अभाव में रद्दी कपङे कतरन
खराब रुई यहाँ तक कि राख आदि तक रूमाल में लपेट कर बाँध कर रक्त स्राव
सोखने पर विवश स्त्रियों को, कहाँ तक, समाज न्याय दे पा रहा है?? जननी का
गुणगान?? और जननी क्या कोई स्त्री रजस्वला हुये बिना बन सकती है?? यह जान
समझ कर भी कि जननी के रक्त रज से ही मेरा शरीर ये पूरी मानव जाति बनी है
""स्त्री के रजस्वला होने का ऐसा अपमान?? टॉयलेट की समस्या ऊपर से पूरे
देश की स्त्रियों के मान सम्मान सेहत आबरू और प्राणों को संकट में डाले
हुये है!!! मजदूरी पर हर महीने पाँच से सात दिन की छुट्टी कैसे करें, ''
जहाँ आज भी हर साल कम से कम तीन चार सौ गाँव बाढ़ में डूब जाते हैं उस
देश में रजस्वला स्त्री बाढ़ राहत शिविर में कितनी घबरायी डरी परेशान
रहती है यह हमने वालंटियर सेवा के दौरान स्वयं महसूस किया जब पानी से
रेस्क्यू की गयी स्त्रियाँ शिविर में पहनने के कपङे भीगे, होने पर घास
मिट्टी पर बैठी रहीं पुकारने पर भी भोजन के पैकेट लेने नहीं उठीं, करीब
जाकर पूछा तो कमजोर सहमी आवाज में बोली "दीदी कपङा है??? हमारा दिल हिल
गया, जाकर लेडी डॉक्टर की बैंच पर पूछा, तो उसने लाचारी दिखा दी, 'मैम!!
इस बात पर तो ध्यान ही नहीं गया!!! क्यों नहीं गया? जबकि वहाँ कुछ सद्यः
प्रसूतायें और आसन्न प्रसवा स्त्रियाँ भी थीं ।ये कैसा प्रजातंत्र है
जहाँ, स्त्रियों की मूलभूत समस्या को ही सिरे से नकार दिया गया है!!!!
होंगे आप आधुनिक, किंतु क्या हर महीने हर लङकी को बारह की आयु से "हर
स्कूल हर अस्पताल हर आँगनबाङी हर आशा से मुफ्त या कम कीमत पर हाईजिनिक
पैड उपलब्ध नहीं कराये जा सकते?? संकल्प हो तो सब कुछ संभव है 'किंतु
जहाँ चारा, और शिशु पोषाहार तक घोटाले की वजह बन जाता हो वहाँ क्या
गारंटी है कि, स्त्रियों के सैनेटरी नैपकिन घोटाले की वजह नहीं बनेंगे?
ये कोई जरूरी नहीं कि ये पैड बहुत हाई फाई रेडीमेड पदार्थों से बने हो
",,ये पुराने सूती किंतु साफ निःसंक्रमित कपङों धोतियों चादरों कतरनों
रूई और ऐसे ही अन्यान्य पदार्थों के बने हो सकते है, 'गाँव गाँव स्त्री
समूह बनाकर कुटीर उद्योग की भाँति इनको बनाने की मशीने और डंप करके खाद
बनाने की
व्यवस्था भी की जा सकती है ग्रीस सहित यूरोप के कुछ हिस्सों में तो
स्त्रियों के रजस्राव को खेतों में डालना अच्छी फसल के लिये शुभ माना
जाता है ', जिस देश में कामाख्या की ""अंबुवाची ""वृत्ति के समय की रज की
रँगी रुई को टोने टोटके नजर से बचने को ।
रजस्वला देवी का रज लोग ताबीज बनाकर गले में धारण करते हैं वहाँ 'घर घर
स्त्री को सहम कर छिपातर डरकर और अस्वास्थ्यकर रद्दी गंदे बेकार कचरे से
संवेदनशील अंगों से बाँधना पङे तो इसे सभ्यता का कौन सा चरण कहेगे??
दिल पर हाथ रखकर कहिये कि 'क्या हम वाकई स्त्रियों सेहर रक्षा आत्म
सम्मान और अधिकारों सहित बुनियादी जरूरतों के लिये सजग चैतनय और जागरूक
है??? तो सबसे पहली जरूरत है हर स्त्री को ग्यारह बारह से पचास पचपन वर्ष
की आयु तक साफ नौपकिन, परदेदार टॉयलेट और सुरक्षित प्रसव।
आज भी अजीबो गरीब मान्यतायें हैं 'रजस्वला स्त्री को कई जगह घर में बंद
तो कई जगह घर से दूर बंद रखा जाता है पुरुष चेहरा भी नहीं देखते भूत
प्रेत और अशुभ का डर लगा रहता है । विवाह नियम के मुताबिक वह पिता
प्रतिवर्ष एक दौहित्र के वध का पापी होता है जो रजस्वला होने देता है
अपने घर कन्या को और विवाह नहीं करता ',बाल विवाह की जङ में भी यही
अंधविश्वास जङ जमाये बैठा है और आज भी रजस्वला होने से पहले शादी और
रजस्वला होते ही गौना कर दिया जाता है अनेक बच्चियों का बालिका मातायें,
आज भी प्रसव और गर्भ की यातना से गुजरती है अनेक मर जाती है या उनका
बच्चा मर जाता है प्रसव में ',।कूष्माण्ड बलि "की रसम अनेक जगह करायी
जाकर प्रायश्चित्त स्वरूप दान कराया जाता है उस लङकी के पिता से जिसने
कन्यादान उस लङकी का किया जो रजस्वला होनी शुरू हो चुकी मायके में ही और
विवाह के पूर्व ही, 'क्योकि अनेक ग्रंथों की ऐसी मान्यता है कि रजस्वला
पर पुरुष की दृष्टि पङने से दूषित संतान जन्म लेती है और कन्या दान का
पुण्य नहीं मिलता और रजोवय प्राप्त लङकी को स्वयंवर का अधिकार प्राप्त हो
जाता है ।
कब तक?? आखिर कब तक हम सारी मजबूरियाँ दमन और परंपरा के नाम पर यातनायें
सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों पर थोपते रहेंगे???? कब तक!!!!
©®सुधा राजे
--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117
कितने उपेक्षित?
††††सुधा राजे का लेख """""
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कमलाराजा हॉस्पिटल ग्वालियर, प्रसूति वार्ड और बरामदे में लगा गॉज पट्टी
वाले झिरझिरे सफेद कपङे के चौकोर रूमाल में रूई की तहें बिठाकर बने पैड्स
का पहाङ लगातीं मिडवाईफ्स ', किशोरी मन ने पूछा ये क्या है? उत्तर मिला
ऐसा कि मन काँप गया, हकीकत से रू ब-रू होने में कुछ समय लगा, किंतु फिर
एन एस एस की चीफ होने के नाते गाँव सुधार कार्यक्रम में अकसर हमारा सवाल
हमउम्र लङकियों ही नहीं छोटी या बङी किसी भी आयु की स्त्री से यही दो तीन
बातें रहतीं ""घर में शौचालय है? पैड कैसे बनाती हो? आंतरिक अंगों की
साफ सफाई कैसे रखती हो? कहीं कोई बीमारी दर्द सूजन कमजोरी समय अधिक तो
नहीं? परिवार में मासिक धर्म के समय स्त्रियों से कैसा व्यवहार होता है?
हालांकि मास्टर ट्रेनर और वॉलेण्टियर होने के नाते सारा जोर साक्षरता पर
रहता था ।फिर भी गाँवों के हालात तब बहुत खराब थे, तो आज भी बहुत अच्छे
नहीं है ।आज भी गाँव कसबों ही नहीं नगरों और महानगरों में भी मध्यम वर्ग
और निम्न मध्यम वर्ग और गरीब तथा गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के बजट
में,, परिवार की स्त्रियों के लिये सेनेटरी नैपकिन का कोई भी खर्च जुङा
हुआ नहीं है । आज भी कोई गारंटेड नैपकिन बाज़ार में उपलब्ध नहीं है जो हर
आयु की स्त्री के तेज रक्तस्राव के समय घर से कॉलेज या दफ्तर या यात्रा
पर जाते समय, बिना बदले बिना दाग लगाये पूरे छह से आठ घंटे, तक निश्चिन्त
रह सके वहाँ यदि टॉयलेट्स नहीं मिले और समय न मिले कहीं खतरा हो एकान्त
में जाने का तब कोई अकेली दुकेली स्त्री या पुरुष समूह के साथ काम काज पर
जरूरी टास्क करने की विवशता में बाहर जाने वाली स्त्री क्या करे??
मासिक रजोधर्म की कोई निश्चित समय सीमा घङी या निर्धारित तारीख घङी
कैलेण्डर से तो फिक्स है नहीं, किसी लङकी को यह दो दिन ही रहता है तो
किसी को तीन दिन किसी को चार पाँच या छह सात दिन तक भी अधिकतम मासिक
स्राव रह सकता है, और कहीं भी हो सकता है 'अचानक स्कूल में बस में घर में
रेलगाङी में ऑटो में या ऑफिस में,और माहौल ऐसा बना हुआ है हमारे भारतीय
समाज का कि किशोरी लङकियाँ हों या पाँच बच्चों की माता, जरा सा दाग लगते
ही बेहद लज्जित घबरायी और शर्म से पानी पानी हो जाती हैं ।मानो यह भयंकर
अपराध उन्होंने जानबूझ कर किया हो और वह छिपाने लग जाती है, लोग घूरना
शुरू कर देते हैं बदतमीजी के व्यंग्य करने लगते हैं, एक लङकी के कपङे पर
लाल कत्थई धब्बा उसके आस पास की सब लङकियों के लिये शर्मिन्दगी की वजह बन
जाती । आज भी आधे भारत की पूरी स्त्रियों से अधिकांश, फटे पुराने कपङों
के टुकङे 'कतरन और रद्दी अखबार, पुरानी बेकार रुई और ऊन या अन्य कूङा
कचरा जैसा सामान रक्त स्राव सोखने के लिये प्रायवेट अंगों पर बाँधती है ।
बार बार धो धो कर वही दो चार टुकङे मासिक रक्त को सोखने के लिये इस्तेमाल
करतीं हैं और बोरी या थैले में भरकर रख देतीं हैं अगले महीने के लिये,
।जिस देश में प्याज की कमी पर सरकार निरस्त हो जाती है और पेट्रोल के दाम
बढ़ने पर लोग सङकों पर जाम लगा देतें हैं उसी देश की आधी आबादी को आज तक
प्रजनन व्यवस्था के तहत कुदरत ने जो जिम्मेदारी सौंपी है उस रजोधर्म के
समय रक्तस्राव सोखने अंगों को सूखा साफ और कपङों को दाग धब्बों से बचाने
को सही मात्रा में सही सामग्री से बने हाईजिनिक सेनेटरी नैपकिन्स तक
उपलब्ध नहीं हैं!!!!!!!!!
बात करते रहिये एटम की बुलेट ट्रेन की और देश को छठीं महाशक्ति बनाने की,
'उस देश में जहाँ लङकी के किशोर होने पर दादी और माता माथा पीट कर पछताती
है लङकी होने पर एक और बाज़िब कारण से कि ""अब कथरी गुदङी दरी और खोली
बिछौने थैले बनाने को कपङे चिंदी तक नहीं बचेंगे । लोग बङे आराम से
अहंकार से कह सकते हैं कि हर दुकान पर सेनेटरी नैपकिन है न? किंतु कोई
सोचना गवारा करेगा कि जिस देश में एक व्यक्ति की आय सत्ताईश से पैंतीस
रुपया रोज होने पर उसे गरीबी रेखा से ऊपर होने की बात माननीय कहते हैं,
'उस घर की दो बेटियों दो बहुओं और दो पोतियों और एक माता के लिये
""सेनेटरी नैपकिन कैसे खरीदेगा कोई गरीब!!!! यहाँ तक कि मिडिल क्लास
परिवार तक सेनेटरी नैपकिन को बजट से बाहर ही रखता है ।
अगर पाँच स्त्रियाँ घर में हैं तो दो पैड दिन के दो पैड रात के कुल
मिलाकर चार पैड प्रतिदिन पाँच दिन औसत हर महीने हर स्त्री के लिये रखें
तो भी, सौ पैड प्रतिमाह का औसत खर्च एक परिवार पर आयद हो जाता है । जिनकी
कीमत प्रतिमाह एक सौ पचास रुपये प्रति स्त्री बैठती है और साढ़े सात सौ
रुपये!!!!!! बाप रे बाप, 'कैसे कोई करे इस व्यवस्था से इंतिज़ाम?? सरकारी
अस्पतालों में सरकार जो भी चीखे किंतु ज़मीनी हकीकत यही है कि प्रसव
कराने गयी जच्चा एक बोरी भरके पुराने सूती कपङे दर्द शुरू होने पर लेकर
ही जाती है और उनको ही दाई नर्स प्रसव के बाद बाँध देती हैं । नैपकिन्स
का बजट होता होगा किंतु कोई सीबीआई जाँच करा ले कि यूपी बिहार हरियाणा
राजस्थान और बंगाल तमिलनाडु उङीसा जैसे राज्यों में क्या प्रसव के बाद
स्त्रियों को पैड की आपूर्ति अस्पताल की तरफ से की जाती है? या स्त्रियाँ
स्वयं ही लेकर जाती हैं और रजिस्टर पर पैड जोङ दिये जाते है? जाँच का
विषय है क्योंकि ये गंदी बात है गंदा टॉपिक है इसपर बोलना मना है आज भी ।
गंदे और संक्रमित रद्दी सामान कपङों से बने पैड बार बार प्रयुक्त करने और
प्रायवेट अंगों की ठीक से साफ सफाई की जानकारी न होने की वजह से, 'बहुत
सारी लङकियाँ, श्वेत प्रदर ल्यूकोरिया, खुजली, दाने, एलर्जी, मूत्राशय या
गर्भाशय या फैलोपिन ट्यूब या अंडाशय के संक्रमण जैसी गंभीर बीमारियों से
ग्रस्त हो जाती है, । कई बार बच्चेदानी का कैंसर तक हो जाता है । लाज
लिहाज और हीनताबोध रजोधर्म को लेकर इतना भर दिया गया है समाज में कि
लङकियाँ रक्तस्राव की अधिकता अधिक दिनों तक रक्त स्राव और थक्के आना दर्द
बुखार कमजोरी और चक्कर मितली जैसी समस्याओं पर माँ भाभी बहिन तक से बात
नहीं कर पातीं । जैसे यह कोई भीषण पाप है गुनाह है ।
कुछ छिछोरे लोग अकसर फिकरे कसते दिख जाते है, कि अमुक लङकी छुट्टी पर गयी
है लगता है एम सी सी से हो गयी है ।
लङकियाँ ऐसे किसी भी शब्द के उच्चारण से घबरातीं है । जो जैसे तैसे दुकान
तक पहुँच भी जायें तो न ब्रांड पर न साईज पर न ही कीमत पर परख पूछ मोल
तोल कर पातीं हैं, दुकानदार भी जैसे कोई गुनाह कर रहा हो ऐसे लिफाफे में
डालकर नैपकिन देता है और लङकियाँ चोरी से दाबकर ले जातीं है ",,कचरेदान
में फेंकना गुनाह, 'और कहाँ डंप करें यह समस्या, । चोरी से ही फेंकना
पङता है अँधेरे उजाले । कपङे की चर्र की आवाज न निकल जाये काटते फाङते
इसलिये सबसे एकांत कमरे में कपङा काटा फाङा जाता है । किसी कारण पसीने या
पानी से किसी कपङे का रंग लग गया कपङे पर तो भी डर?????
ये कैसा भयानक रूप बना डाला सभ्य मानव ने? प्रकृति के उस वरदान का जिससे
हर मानव नर हो नारी हो या किन्नर हो का शरीर रचता बनता है?? हड्डी खाल
माँस रक्त सब स्त्री के इसी मासिक रक्त स्राव का रक्त जमा होने से ही तो
बनते हैं? मतलब हर आदमी मासिक स्राव के रक्त का पुतला है!!!!!!!
और ग़ज़बनाक सच ये है कि नेपाल पाकिस्तान बाँगलादेश श्रीलंका सहित पूरे
भारतीय उप महाद्वीप में ""रजो धर्म ""के दौरान स्त्री को अपवित्र अछूत
अस्पृश्य और गंदा समझा जाता है!!!! जिस रक्त से नर बना है नारी बनी है उस
बच्चे को गोद में उठाकर प्यार करना पाप नहीं किंतु, रजस्वला स्त्री का
पूजा करना पाप है, मंदिर मसजिद दरगाह धर्म स्थल जाना पाप है, रसोई घर और
भंडार घर में भी बहुतायत घरों में रजस्वला का जाना मना है, धार्मिक
पुस्तक छूना मना है, कच्चे मिट्टी के बरतन गहने नये कपङे दावत का खाना
छूना मना है, 'अनेक घरों में पाँच दिन विशेष रद्दी बेकार मोटे कपङे पहने
स्त्रियाँ दरी चटाई पर जमीन पर सुलायी जाती हैं, अचार आटा चावल कच्चा
खाना और राशन छूना मना है । नेपाल में छत्तीसगढ़ झारखंड और अनेक स्थानों
पर आज भी मुख्य घर से बाहर, दूर झोपङी टप्पर में, रहने पर विवश की जाती
हैं रजस्वला लङकियाँ स्त्रियाँ, । कई घरों में तो मान्यता है कि रजस्वला
स्त्री को छूने या उसके छुये पदार्थ को खाने से पुरुषों की आयु क्षीण हो
जाती है । सरदी हो या बरसात, इस तरह पैड के अभाव में रद्दी कपङे कतरन
खराब रुई यहाँ तक कि राख आदि तक रूमाल में लपेट कर बाँध कर रक्त स्राव
सोखने पर विवश स्त्रियों को, कहाँ तक, समाज न्याय दे पा रहा है?? जननी का
गुणगान?? और जननी क्या कोई स्त्री रजस्वला हुये बिना बन सकती है?? यह जान
समझ कर भी कि जननी के रक्त रज से ही मेरा शरीर ये पूरी मानव जाति बनी है
""स्त्री के रजस्वला होने का ऐसा अपमान?? टॉयलेट की समस्या ऊपर से पूरे
देश की स्त्रियों के मान सम्मान सेहत आबरू और प्राणों को संकट में डाले
हुये है!!! मजदूरी पर हर महीने पाँच से सात दिन की छुट्टी कैसे करें, ''
जहाँ आज भी हर साल कम से कम तीन चार सौ गाँव बाढ़ में डूब जाते हैं उस
देश में रजस्वला स्त्री बाढ़ राहत शिविर में कितनी घबरायी डरी परेशान
रहती है यह हमने वालंटियर सेवा के दौरान स्वयं महसूस किया जब पानी से
रेस्क्यू की गयी स्त्रियाँ शिविर में पहनने के कपङे भीगे, होने पर घास
मिट्टी पर बैठी रहीं पुकारने पर भी भोजन के पैकेट लेने नहीं उठीं, करीब
जाकर पूछा तो कमजोर सहमी आवाज में बोली "दीदी कपङा है??? हमारा दिल हिल
गया, जाकर लेडी डॉक्टर की बैंच पर पूछा, तो उसने लाचारी दिखा दी, 'मैम!!
इस बात पर तो ध्यान ही नहीं गया!!! क्यों नहीं गया? जबकि वहाँ कुछ सद्यः
प्रसूतायें और आसन्न प्रसवा स्त्रियाँ भी थीं ।ये कैसा प्रजातंत्र है
जहाँ, स्त्रियों की मूलभूत समस्या को ही सिरे से नकार दिया गया है!!!!
होंगे आप आधुनिक, किंतु क्या हर महीने हर लङकी को बारह की आयु से "हर
स्कूल हर अस्पताल हर आँगनबाङी हर आशा से मुफ्त या कम कीमत पर हाईजिनिक
पैड उपलब्ध नहीं कराये जा सकते?? संकल्प हो तो सब कुछ संभव है 'किंतु
जहाँ चारा, और शिशु पोषाहार तक घोटाले की वजह बन जाता हो वहाँ क्या
गारंटी है कि, स्त्रियों के सैनेटरी नैपकिन घोटाले की वजह नहीं बनेंगे?
ये कोई जरूरी नहीं कि ये पैड बहुत हाई फाई रेडीमेड पदार्थों से बने हो
",,ये पुराने सूती किंतु साफ निःसंक्रमित कपङों धोतियों चादरों कतरनों
रूई और ऐसे ही अन्यान्य पदार्थों के बने हो सकते है, 'गाँव गाँव स्त्री
समूह बनाकर कुटीर उद्योग की भाँति इनको बनाने की मशीने और डंप करके खाद
बनाने की
व्यवस्था भी की जा सकती है ग्रीस सहित यूरोप के कुछ हिस्सों में तो
स्त्रियों के रजस्राव को खेतों में डालना अच्छी फसल के लिये शुभ माना
जाता है ', जिस देश में कामाख्या की ""अंबुवाची ""वृत्ति के समय की रज की
रँगी रुई को टोने टोटके नजर से बचने को ।
रजस्वला देवी का रज लोग ताबीज बनाकर गले में धारण करते हैं वहाँ 'घर घर
स्त्री को सहम कर छिपातर डरकर और अस्वास्थ्यकर रद्दी गंदे बेकार कचरे से
संवेदनशील अंगों से बाँधना पङे तो इसे सभ्यता का कौन सा चरण कहेगे??
दिल पर हाथ रखकर कहिये कि 'क्या हम वाकई स्त्रियों सेहर रक्षा आत्म
सम्मान और अधिकारों सहित बुनियादी जरूरतों के लिये सजग चैतनय और जागरूक
है??? तो सबसे पहली जरूरत है हर स्त्री को ग्यारह बारह से पचास पचपन वर्ष
की आयु तक साफ नौपकिन, परदेदार टॉयलेट और सुरक्षित प्रसव।
आज भी अजीबो गरीब मान्यतायें हैं 'रजस्वला स्त्री को कई जगह घर में बंद
तो कई जगह घर से दूर बंद रखा जाता है पुरुष चेहरा भी नहीं देखते भूत
प्रेत और अशुभ का डर लगा रहता है । विवाह नियम के मुताबिक वह पिता
प्रतिवर्ष एक दौहित्र के वध का पापी होता है जो रजस्वला होने देता है
अपने घर कन्या को और विवाह नहीं करता ',बाल विवाह की जङ में भी यही
अंधविश्वास जङ जमाये बैठा है और आज भी रजस्वला होने से पहले शादी और
रजस्वला होते ही गौना कर दिया जाता है अनेक बच्चियों का बालिका मातायें,
आज भी प्रसव और गर्भ की यातना से गुजरती है अनेक मर जाती है या उनका
बच्चा मर जाता है प्रसव में ',।कूष्माण्ड बलि "की रसम अनेक जगह करायी
जाकर प्रायश्चित्त स्वरूप दान कराया जाता है उस लङकी के पिता से जिसने
कन्यादान उस लङकी का किया जो रजस्वला होनी शुरू हो चुकी मायके में ही और
विवाह के पूर्व ही, 'क्योकि अनेक ग्रंथों की ऐसी मान्यता है कि रजस्वला
पर पुरुष की दृष्टि पङने से दूषित संतान जन्म लेती है और कन्या दान का
पुण्य नहीं मिलता और रजोवय प्राप्त लङकी को स्वयंवर का अधिकार प्राप्त हो
जाता है ।
कब तक?? आखिर कब तक हम सारी मजबूरियाँ दमन और परंपरा के नाम पर यातनायें
सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों पर थोपते रहेंगे???? कब तक!!!!
©®सुधा राजे
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Sudha Raje
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Fatehnagar
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