सुधा राजे की कहानी:- ""भाभी की नई साङी।""

कहानी ""भाभी की नई साङी ""
'''''''''27-3-2014-/-6:28AM./(सुधा राजे)
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अरे जौ का भैन जी '! अपुन फिर दो धुतियाँ लिआयीं!

रख लो 'भब्बी 'साब ' अपुन पै जौ पीरौ हरौ रंग भौतई नौनौ लगत!

कहते तो बङी भाभी के शब्द इनकार थे किंतु चेहरे पर खुशी थी नया कीमती
उपहार पाने की ।
सोने की नथ और भतीजी को पायल दोनों भतीजों को पैन्ट शर्ट और भतीजी को कई
जोङी सलवार सूट बूट घङी भाभी के लिये स्वेटर शॉल और भाभी के किचिन के
लिये तमाम बर्तन डिब्बे प्रेशर कुकर छोटी भाभी के किचिन के लिये डिनर
प्लेटें गैस सिलेंडर और साङी कपङे सब करने के बाद जब "सृष्टि " वापस
लौटने लगी तो ', स्टेशन पर बङे भैया भेजने आये
छोङने साथ में बङी भतीजी और भतीजा भी ।


"मैं माँ की एक साङी ले जा रही हूँ ये साङी मैंने ही माँ को गिफ्ट की थी
एक दर्जन साङियों के साथ "

कौन सी वाली बुआ जी?
मुक्ति 'के चेहरे से साफ दिख रहा था कि उसे पसंद नहीं आया 'दादी के सामान
को बुआ छू लें 'वह अब खुद को हर चीज की मालिक और बुआ को दूर की मेहमान
समझने लगी थी ।
बच्चों का दोष क्या घर के बङों से जो सुनते देखते हैं वही समझते हैं । कल
तक यही मुक्ति बुआ के लिये सबकुछ थी ।

और हाँ ""एक हाथ का पंखा भी जो माँ ने बनाया था अधूरा ही रह गया ""

अबकी बार भैया को लगा कि अतिक्रमण उनके हक पर किया गया है । माँ के बर्तन
गहने कपङे जेवर घर जमीन और सब कुछ रखने के बाद माँ की दो निशानियाँ तक
"नाग़वार "गुजर रहीं थीं जिन लोगों को बाँटनी वे कल तक "सृष्टि के अपने
थे 'सोचकर वह मन ही मन हँस पङी ।

उसे याद आया """"""""""तब उसने इंटरमीडियेट किया था """"""

गोरखपुर वाले काका के लङके की शादी थी । तब बङे भैया की एक कलीग से लङाई
के चक्कर में नौकरी छूट गयी थी । भाभी तब कहीं उदास न हों इसलिये सुलेखा
हर बार कॉलेज से आते समय कुछ न कुछ सामान खाने पीने पहनने या मेकअप वगैरह
का भाभी के लिये खरीद लाती थी । मुक्ति और मुन्ने के लिये भी हर तरह के
सामान लाती । बापू जो पॉकेटमनी देते जो पैसा तीज त्यौहार पर मेहमान दे
जाते वह सब केवल भाभी और भतीजों पर ही खर्च कर देती थी ।
भाभी को शादी में जाना था बापू ने सबको बराबर पैसे दिये कपङों के लिये
'लेकिन सृष्टि अपने लिये सिर्फ दो सूट लायी और वह भी सस्ते वाले जबकि
भाभी के लिये पाँच साङियाँ चूङी बिंदी मैचिंग सहित लाई ।
बारात वापस आने का समय था और काकी ने अचानक फरमान सुना दिया कि सब बहिनें
साङी पहिन कर तिलक करेगी लौटने वाले भाई और बारातियों को शरबत पिलाने
जायेंगी ।

कदाचित काकी और बुआ का विचार था अपने कुटुंब की धाक जमाना । रहन सहन और
परंपरा की । ताई चाहतीं थी कि उनकी बेटी को बारात में बनारस के बाबू साहब
पसंद कर लें । और? लङकी लङके को पता भी न चले अनजाने में देख दिखा ले ।

सृष्टि ने भाभी से कहा भाभी 'वह क्रीम कलर की साङी निकाल दो जरा काकी
कहतीं है सब साङी पहनो मेरे पास तो केवल सूट हैं ।

भाभी, अनसुनी करके चली गयी । सृष्टि ने सोचा सुना नहीं वह पीछे पीछे गयी
और हाथ पकङ कर बोली 'भाभी साङी निकाल दो न "। भाभी बोली, चाभी नहीं मिल
रही है जब मिल
जायेगी निकाल दूँगी ।
थोङी देर बाद सब लङकियाँ तैयार हो गयीं । सृष्टि सबको साङी पहनने में
मदद करती रही और ',सब की सब लङकियाँ थाली शरबत आरती सजाने में लग गयीं
।तभी काकी आकर डपटती हुयी बोली "अरे सृष्टि बेटा तुम तैयार नहीं हुयीं
अब तक?
जी काकी वो चाभी नहीं मिल रही है भाभी की वही ढूँढ रही हैं "साङी तो भाभी
के संदूक में ही है न!
कौन सी चाभी 'फूलमती की? वह तो अभी खुद पहिन ओढ़कर तैयार हुयी है बहू
आगमन के लिये जेठानी है न वही तो लायेगी नयी बहू को भीतर ।

सृष्टि लगभग भागती हुयी कोने वाले कमरे में पहुँची जहाँ भाभी सजधजकर
तैयार खङीं थी विशेष रूप से वही क्रीम कलर की साङी पहिन कर ।

भाभी तो आप दूसरी कोई साङी निकाल दो देर हो रही है । पहली बार साङी
पहिननी है तो देर तो लगेगी न काकी गुस्सा कर रहीं है काकी से जाकर ले लो
'मैं तो नहीं
देती अपनी नई की नई साङी ''


भाभी ने जैसे चबाकर शब्द बोले । पीछे काकी खङीं थीं सृष्टि की हिलकी भर
उठी "सब लङकियों को उनकी भाभी सजा रहीं थीं और वे लङकियाँ वे थीं जो रात
दिन केवल पढ़ने और हुकुम चलाने में रहतीं थी ।सृष्टि ने ग्यारह साल की
उमर से भाभी की सेवा की थी भतीजी की परवरिश माँ बनकर की थी और एकदम देहात
की भाभी को रहन सहन सिखाकर सुंदरता सँवारने में कोई कसर नहीं छोङी थी ।

सृष्टि पलट कर चली गयी । बारात बाहर आ चुकी थी । वह काकी के अनाज वाले
कमरे में जा बैठी गला दुख रहा था 'आँसू भरभरा रहे थे । काश माँ साथ आयीं
होतीं और भाभी का ये रूप देखतीं ।
तभी काकी आयीं उनके हाथ में हरी सी सुंदर साङी थी और साथ में जेवरों का डिब्बा ।

काकी!!
मैं नहीं पहनूँगी ये बहुत कीमती है ।
पहन ले अपनी छोटी माँ की है न, तेरी माँ से मैंने बहुत गिफ्ट वसूल करे हैं ।

सृष्टि ने काकी का मन रखने के लिये साङी पहिन तो ली । लेकिन मन बुझने से
चेहरा बुझ चुका था । लौटकर आयी बारात में भाईयों का तिलक करते आँखे छलछला
पङीं ।

भईया ने कभी नहीं जाना क्या हुआ । लेकिन सृष्टि को याद आता रहा कि वह
"कहीं भी पार्टी में जाने से पहले नाईन को बुलाकर लाती थी कि भाभी का
उबटन कर देना कहीं जाना है ।भाभी को लेकर ही अपनी हर सहेली की पार्टी में
जाती थी । भाभी को मंदिर मेले बाज़ार ले जाना सब उसे अच्छा लगता था कितनी
खुश थी भाभी पाकर ।


फिर कभी उसने भाभी की साङी नहीं पहनी न ही कोई छोटी बङी चीज इस्तेमाल की
एक अदृश्य दीवार खङी हो चुकी थी, सवाल साङी का नहीं था भावना थी अपनn की


जब लङके वाले देखने आये तब माँ ने कहा कि साङी पहिननी पङेगी परसों तो
साफ कह दिया 'खरीद सको तो पहनूँगी "किसी की साङी नहीं पहिननी मुझे । और
माँ खुद दिलवा लायीं गुजराती साङी ।


जब भी मायके आती भाभियों के लिये साङी जरूर लाती और जिस साङी को देखती कि
भाभी को ज्यादा ही पसंद है जानबूझकर भूल जाती और भाभी के कमरे में छोङ
देती ।

अबकी बार "माँ की तेरहवीं पर आयी थी "और शायद अब आने जाने का बहाना भी
नहीं रह गया ।

माँ थीं तो हर हाल में आना था तब भी दो साल में एक बार आना । क्योंकि एक
साल की छुट्टी में वह अपनी ननदों को बुलाकर आव भगत करती । सबसे पहले
आलमारी खोल देती लो दीदी अपने कपङे इसमें रख दो और जब तक यहाँ रहो अपने
कपङे नहीं पहिनना मैंने साङी ब्लाऊज गाउन सब तैयार करके रख दिये हैं ।

जब दीदियाँ जाती तो अपनी पसंद से शॉपिंग करके जातीं ।
एक दिन जब सुना कि "दीदी अपनी चचेरी भाभी से कह रही है '''हमारी सृष्टि
है तो हमसे बीसियों साल छोटी मगर कभी कहीं ताले नहीं लगे देखे उसके राज
में अम्माँ की जगह सँभाल ली उसने ।


सृष्टि को महसूस हुआ ''कहीं गहरा घाव था जिसपर आज मरहम लग गया और ज़ख्म
भरने लगे हैं।

©सुधा राजे
पूर्णतः मौलिक रचना


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