सुधा राजे का लेख :- स्त्री'' सारी बीच नारी है कि सारी की ही नारी है।"
स्त्री ',सारी बीच नारी है कि सारी की ही नारी है
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मानव के सिवा लगभग सभी पशु पक्षियों ने मामूली खान पान और निवास की आदतों
के सिवा कुछ भी नहीं बदला ।आग और पहिये के अविष्कार के बाद की क्रान्ति
थी वस्त्र का अविष्कार 'जिसका पहला प्रयोग लाज शरम और स्त्री पुरुष
प्रायवेट पार्ट्स को ढँकना नहीं था, 'अपितु ठंड से बचाव था । बाद में यही
वस्त्र बिछौने और धूप से बचाने के काम आने लगे जो कि पशुओं का चमङा और ऊन
और रेशों पत्तों छाल छिलकों के बने होते थे । नर और नारी के वस्त्रों में
कोई भेदभाव नहीं था ',एक लंबा सा चादर या थान लपेट कर डोरियों की मदद से
जगह जगह बाँध लेना ',फिर धोती अंगवस्त्र और शॉल फिर पगङी तक भी स्त्री
पुरुष के वस्त्र एक समान ही थे । उत्तर वैदिक काल में भी स्त्रियाँ लांग
बाँधकर धोती पहनती थी और पुरुष भी, एक चादर ऊपर से लपेट कर एक पटका सीने
पर बाँधती थी ',
केश स्त्री पुरुष दोनों ही लंबे रखते थे 'जेवर भी पुरुष और स्त्री एक
समान ही पहनते थे ।
मराठी साङी और पुरुष के धोती पहनने का कोई अंतर है तो बस 'ब्लाऊज के रूप
में है ।अगर याद करें तो हमारे बचपन मेंदादी नानी पेटीकोट ब्लाऊज नहीं
पहनतीं थी बल्कि लांग वाली धोती ही कसकर बाँधतीं थी, 'ब्लाऊज आधुनिक काल
की देन है और राजे रजवाङों के अलावा बहुत कम परिवारों में स्त्रियाँ आज
की तरह पेटीकोट या ब्लाऊज पहनतीं थी ।
और आज भी सिख समुदाय में स्त्री पुरुष दोनो के बाल लंबे रहते है कटार और
कंघी और कङा समान रहता है ।
समय बदलता रहा ',पुरुष ने चोटी कटाई, जनेऊ उतार फेंका, दाङी मूँछ साफ कर
दी और धोती, फेंटा, पगङी, कटार, पिछौरा यादर अंगवस्त्र पटका शॉल सब उतार
फेंका ',लँगोट और बंडी गंजी भी त्याग दी अंगरखा भी हट गया!!!!!!!!
आज सिवा फिल्म और नाटक या बहुत ड्रेसकोड की ड्रामेटिक शादी के पुराने
कपङे कहीं नहीं दिखाई देते । शर्ट, टीशर्ट, पोलोशर्ट, जैकेट, कोट, पैन्ट,
ट्राऊजर, बैगी, ब्रीचिज, कुर्ता, पाजामा, कैप, हैट, और जूते, 'टाई मोजे
और रूमाल!!!!!
कहाँ गयी, पुरानी चोटी, लँगोटी, खङाऊँ, धोती' बंडी, तिलक, अँगोछा, दाङी,
मूँछ, लंबे बाल, और चादर!!!!!
क्यों नहीं पैरों में तोङा, गले में हँसली, कान में कुंडल सिर पर पगङी???
हाथ में लाठी पैर में नागरा और खङाऊँ?
संस्कृति और संस्कार परंपरा और धर्म की ठेकेदारी सारी की सारी केवल
स्त्रियों की ही क्यों हो?
दूल्हा आता है कोट पैन्ट शर्ट बूट टाई घङी और रेडीमेट दूल्हाटोपी में जो
केवल एक रस्म के बाद फेंक दी जाती है ।
किंतु दुलहन, 'आज भी वही सन बारह सौ के पारंपरिक कपङों गहनों वाली लजाती
शरमाती चाहिये और वही 'पुराना माहौल उसके व्यक्तित्व पर??
बङी अज़ीब सी सोच है संस्कृति के नाम पर इस भयंकर भेदभाव की ',।जिस
परिवार के पुरुष धोती नहीं पहनते कोट पैन्ट सूट टाई शर्ट अंडरवीयर पहनते
हैं ',उस परिवार की स्त्रियों पर धोती ब्लाऊज पायल बिंदी चूड़ी लंबे बाल
नाक कान बिंधवाने और चप्पल पहनने का बंधन क्यों??? या तो खुद भी, धोती
पहनो लँगोट बाँधो, जनेऊ पहनो, अँगरखा बाँधों चादर लपेटो कुंडल चोटी तिलक
तोङा हँसली खङाऊँ नागरा पहनो और, संस्कृत पढ़ो, बोलो ',या फिर, 'जितने
आधुनिक आप हो उतना ही आधुनिक घर की बहू बेटियों को भी रहने दो ',।
पुरुष सुविधा जनक कपङे रहन सहन और आदते अपनाता चला गया और, 'उत्तर वैदिक
काल से आज इक्कीसवीं सदी का नागरिक पुरुष ही नहीं बल्कि घोर देहात गाँव
कबीलों तक का पुरुष पैंट शर्ट जूते अंडर वीयर वेस्ट और कोट जैकेटे स्वेटर
पहनने लगा ',बाल कटवाने लगा और, 'सेफ्टीरेजर का इस्तेमाल करने लगा है ।
साबुन शैम्पू और पेस्ट ब्रुश प्रयोग करने लगा है । असुविधा जनक धोती और
पगङी जेवर और लंबे चादर दुशाले केश पगङी और दाङियाँ कब के पीछे छोङ
दिये!!!!
किंतु दुराग्रह के रूप में आज भी स्त्री पर असुविधा जनक कपङे और लंबी
चोटी हाथ भर कर कङे चूङियाँ नाक कान बिंधाने की जिद जारी है!!!
सुरक्षा और कार्यकुशलता के लिहाज से, 'कुर्ता पाजामा, 'पैन्ट शर्ट जैकेट
कोट, 'बेल्ट ',जूते ',छोटे बाल ',और बिना नाक कान पैरों कलाईयों में गहने
पहने ही रहने वाली स्त्रियाँ चुस्त दुरुस्त और अधिक तीव्रता कुशलता से
काम काज कर पाती हैं ।
आज लङकियाँ बाईक चलातीं है 'घुङसवारी करती हैं, बोट चलाती है, बंदूक
चलाती है, विमान उङाती है, रॉकेट से अंतरिक्ष जाती है, जूडो कैराटे
ताईक्वांडो युयुत्सू नॉनचेको कुश्ती, बॉक्सिंग, कबड्डी हॉकी क्रिकेट
टेनिस बैडमिन्टॉन और धनुष बाण, जैसे खेलों में जीत कर दिखा रही हैं ।
लङकियाँ, पेट्रोल पंप चला रहीं है और ऑटो रिक्शा भी, 'लङकियाँ कुली भी
हैं और, ट्रैक्टर भी चला रही है, ' वे टीचर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, खिलाङी,
वकील, पत्रकार, पुलिस ऑफिसर, बिजनैस हैड, पैरामिलिट्री कमांडो और, जासूस
भी है ',संगीतकार कलाकार, निर्माता निर्देशक कैमरापर्सन और सांसद मंत्री
नेता विधायक भी है ।
तब?????
आज भी देश की आधी आबादी का बहुत बङा हिस्सा किस तर्क के साथ विवश कर दिया
जाता है ',असुविधा जनक जेवर कपङे चूङियाँ बिंदियाँ गहने चप्पलें और सर
सामान से लदकर काम करने को!!!!! ऐसा जो जो लोग सोचते हैं कि स्त्री साङी
में ही अच्छी लगती है उन सब पुरुषों को सात दिन तक दोनों हाथों में नौ नौ
चूङियाँ, 'पेटीकोट ब्लाऊज और कमर तक लंबी चोटी लटका कर "नाक कान गले पांव
में जेवर बाँधकर ',रसोई में सब काम करके दफतर जाने का आदेश दे देना
चाहिये ',ताकि उनको पता तो चले कि, उनके और साङी गहने चोटी बिंदी पायल
वाली स्त्री के पहनावे का ",,कामकाज पर कार्य क्षमता और मूड तथा
अनुभूतियों पर कैसा असर पङता है ।
एक बार बरसात के दिनों में कोटद्वार यात्रा के समय 'रास्ते में पानी भरने
से वाहन वहीं छोङकर आगे पैदल जाना पङा और वहाँ से लौटते समय कई घंटों की
प्रतीक्षा के बाद ट्रक मिला ',हम सब सहेलियाँ जिन जिन ने सलवार कुरता या
पैन्ट कुरता पहिन रखा था आराम से चढ़ गये ',किंतु जिन्होने साङी पहिन रखी
थी बहुत खराब हालत थी पहले तो भीगी साङी में पैदल चलकर उनके पांव छिल छिल
गये थे, ऊपर से ट्रक पर चढ़ते समय तो परदा बेपरदा के चक्कर में बेचारी
नीचे ही रह गयीं ',आखिर कार हम सबको उतरना पङा ',हुआ यूँ कि फिर कई घंटों
तक कोई वाहन नहीं मिला ',फिर आधा किलोमीटर हपङ धपङ करती साङी में वे सब
हम सब पैदल चले और 'तब बस मिली, 'साङी शरीर से चिपक कर पारदर्शी हो चुकी
थी और फिटिंग के ब्लाऊज में वे दोनों शर्मिन्दा महसूस कर रहीं थीं ',हम
चार पाँच लोगों ने अंडरशर्ट और कुरते पहिन रखे थे जो जल्दी सूख गये तो
अपने दुपट्टे उन लोगों को दे दिये । अकसर यही तमाशा आपको लोकल ट्रेन या
बस में देखने को मिलता रहता है ',ठसाठस भरी गाङी में ट्राऊजर पैंट और
शर्ट कुरता सलवार कमीज वाली महिलायें आराम से चढ़ जाती है ',या फिर लांग
वाली मराठी साङी वाली ',किंतु बंगाली बिहारी उत्तरभारतीय तरीको से ब्लाऊज
साङी पहिनने वाली महिलायें कभी पल्लू सँभालती कभी चुन्नट पकङती कभी पेट
पीठ ढँकने की असफल कोशिश करतीं तमाशा बन जातीं हैं ',।बस में अगर सीट
नहीं मिली और खङे होना पङे तो साङी वाली महिलाओं को सबसे अधिक परेशानी
होती है क्योंकि उनका आधा बदन उघङ कर बेपरदा ही हो जाता है । तेजी से
दौङना हो या भागना तो भी 'साङी 'मतलब एक मुसीबत ही है ।न साङी पहन कर
ट्रक या डंपर जैसे किसी ऊँचे वाहन में चढ़ा जा सकता है, न साङी पहिन कर
बास्केटबॉल फुटबॉल कबड्डी खो खो खेली जा सकती है, न साङी पहिन कर
पर्वतारोहण किया जा सकता है, न साङी पहिन कर बरसात आँधी तूफान बाढ़ आदि
के समय तेजी से बचाव के भागा जा सकता है, न साङी पहिन कर जंप या हाईजंप
लगायी जा सकती है न साङी पहिन कर बहुत तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ीं उतरीं जा
सकतीं है न ही साङी पहिन कर बेधङक खुली जगह जैसे रेलवे प्लेट फॉर्म या
'कंपार्टमेन्ट में सोया जा सकता है न साङी पहिन कर पैराग्लाईडर ग्लाईडर
या पैराशूट में उङा जा सकता है । किसी खतरनाक मशीनों वाले कारखाने या मिल
में साङी पहिन कर जाना सख्त मनाही ही रहता है ',। असामाजिक तत्वों का
साङी पहिन कर मुकाबिला बहुत कठिन हो जाता है '। अकसर जब जब भीङ की
दुर्घटनायें हुयीं तो भगदङ में साङी वाली महिलायें और उनकी गोद में
नन्हें बच्चे सबसे अधिक मारे गये 'जबकि 'लङकियाँ बच गयीं और वे लङके जो
पैंट शर्ट में थे । रेलिंग या बाङ फलांगना हो या चौङी नाली नाला गटर या
खड्डा 'साङी सिवा मुसीबत के कुछ नहीं '।जरा सा खिंचाव पङते ही फट जाये या
खुल जाये!!!! ऊपर से एक मीटर के कपङे का ब्लाऊज पेट पीठ गला सब खुला!!!!!
अगर साङी खिंचकर अलग हो या उङ जाये तो, निर्वसना जैसी हालत हो जाये
',जबकि अंडर शर्ट और अंडरसमीज के साथ कुरता पाजामा पेन्ट शर्ट ',संभव हो
तो नेहरूकट वेस्टकोट या जैकेट 'पहनने वाली स्त्रियाँ ',बहुत हद तक एक्टिव
सुरक्षित और कूदने दौङने चलने भागने फलांगने और चढ़ने उतरने उङने तक में
आसानी महसूस करती है "बाईक राईडिंग या हॉर्स राईडिंग 'साईकिलिंग या कार
ड्राईविंग "साङी हर जगह मुसीबत!!!!!!
परंपरा?
तो ये परंपरा है कि स्त्री को जमाने के मुताबिक कमजोर और मुसीबत ज़दह रखा जाये
मौसम के लिहाज से भी साङी न तो गरमी में आराम देती है ',न बरसात में
अनुकूल है, 'न ही सरदी से कुछ बचाव होता है ।
सरदी में आखिरकार स्वेटर 'कार्डिगन, कोट, पहन कर भी साङी के नीचे स्लैक्स
पाजामी 'इनरवीयर पहनने पङते हैं ',फिर भी जहाँ कुरता पाजामा और पैंट शर्ट
पहिनने वाली महिलायें ',वंद गले के कपङों के नीचे गर्म थर्मल इनरवीयर और
पाजामी दोनो पहिन सकतीं है वहीं साङी वाली स्त्रियाँ ब्लाऊज की वजह से
पाजामी तो पहिन लेती है पेटीकोट के भीतर किंन्तु ',ब्लाऊज के भीतर कुछ
गर्म कपङा नहीं पहिन पाती अतः मोटे स्वेटर विकल्प रह जाते है या कोट
कार्डिगन ऊनी ब्लाऊज ',
जाङों के दिनों में साङी सिवा एक ढकोसले के कुछ और नहीं रह जाती क्योंकि
बाकी सब कपङे तो अत्याधुनिक होते ही है सिवा एक साङी के!!!!!!
इसीलिये "बहुत "ठंडे प्रदेशों में भारतीय महिलायें साङी नहीं पहिनतीं न
कश्मीर , न हिमाचल प्रदेश, न गढ़वाल, न कुमाऊ, और न ही, लद्दाख में ।
बेहद गर्म प्रदेशों में भी साङी नहीं पहिनी जाती ',क्योंकि थार की रेत पर
चलना साङी पहिनकर असंभव है ',ऊँट पर चढ़ना असंभव है 'इसीलिये राजस्थान का
मूल पहनावा कांचरी कुरती घाघरा और जूतियाँ मोजरी है ',जिनको दो मिनट में
पहिन कर मीलो दौङा जा सकता है ',तेज आँधी और धूल में सहजता से चला भागा
जा सकता है ',जरूरत पङने पर लँहगे की लांग बाँध कर ',पहाङ पर भी चढ़ा जा
सकता है ।
फिर भी एक मेहनत कश स्त्री और 'धनिक स्त्री के 'घाघरे में अंतर है ।
मुंबईया फिल्मों ने घाघरे का जैसा दुष्प्रचार किया है वह असली घाघरा है
ही नहीं ',फिल्म में कांचरी पहना कर नायिका छोटे से घाघरे में नचवा दी
जाती है जबकि वह तो अतः वस्त्र होती है ',उसके ऊपर से कुरता पहिना जाता
है जो पूरा पेट कूल्हे गला सब ढँक देता है ',
साङी से सहूलियत केवल दुःशासन की नस्ल के लोगों ही रहती है ताकि वे साङी
खींच सकें और पतले से पेटीकोट छोटे से ब्लाऊज में स्त्री ""लाज बचाओ ""की
गुहार लगाती रहे ।
वीरांगना, कर्मयोद्धा स्त्री की पोशाक साङी नहीं हो सकती ',उसे बाँधने का
तरीका पाजामा और सलवार की मरदानी धोती के ही शैली में होता आया है ।
कपङा हो या गहना केवल वही अच्छा है उसकी एक ही कसौटी है कि ""गरमी सरदी
बरसात धूल धूप तेज हवा कीङे मकोङे पतिंगे विषाणु बैक्टीरिया और संक्रमण
से कितनी रक्षा करते हैं ।
शरीर को पहनने के दौरान कितना आराम और कामकाज करने में कितनी सुविधा देते
है । युद्ध हमला आक्रमण बचाव के समय प्राणों पर संकट कितना कम करते हैं
',जान बचाने और बलात्कार छेङछाङ आदि से बचने में कितनी मदद करते हैं ।
सोते उठते चलते भागते दौङते कूदते कोई अङचन तो नहीं करते?
जो भी कपङा शरीर की शक्ति और मूवमेन्ट की रफ्तार को कम करता है वह "सही
"वस्त्र नहीं हो सकता ।
साङी इस नजरिये से बिलकुल "प्रारंभिक आविष्कार की अवस्था का वस्त्र है, '
जिसे "पहनना "सीखना पङता है औऱ ठीक तरीके से पहनना तब भी "अधिकांश
स्त्रियों को नहीं आता जो बरसों से पहिन रही हैं । यह बाईसवीं सदी का
"विकसित मानव फ्रैण्डली वस्त्र नहीं है ।
पुरुषों की चोटी कर्णवेध जनेऊ लंगोटी खङाऊँ जूङे की तरह ही अब साङी को भी
म्यूजियम में रखने का समय आ चुका है ।
जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि "विकास की रफ्तार के साथ 'तकनीकी से
कुशलता बढ़ाने वाली हर चीज अपनाने के युग में भी परंपरावादी पोंगापंथी
लोग "अगर नहीं चाहते कि "स्त्रियाँ ''नथ और साङी पहिनना छोङे तो उसकी वजह
है "मालिकाना अहंकार "जो ऐसी हर चीज के त्यागने का विरोध करता है जिससे
स्त्री को तनिक भी, स्वतंत्रता मुक्ति हक या समानता मिलती हो ।
वैसे भी "साङी "भारत का प्रतिनिधि वस्त्र नहीं बल्कि केवल कुछ राज्यों का
वस्त्र था जो आजादी के दौरान उत्तरभारत और बंगाल से 'प्रचार "पा गया ।
मणिपुर आसाम नागालैंड मेघालय सिक्किम पंजाब हरियाणा सिंध कश्मीर जम्मू
गढ़वाल कुमाऊँ राजस्थान गुजरात गोवा, """"और अनेक वन्यप्रांतरवासियों की
पोशाक साङी नहीं है,,,
दिल्ली और उत्तर प्रदेश की हर बात को "भारतीयता "कह कर थोपना पुरानी आदत
है 'समाज के खुद को ठेकेदार समझने वालों की ',जैसे सबकी मातृभाषा हिंदी
नहीं वैसे ही सबकी पोशाक साङी नहीं ।
स्त्री पुरुष समानता के संदर्भ में ',साङी पहनाने का हक केवल उसे है जो
खुद धोती पहिन सके ।
©®सुधा राजे
★★★★★
मानव के सिवा लगभग सभी पशु पक्षियों ने मामूली खान पान और निवास की आदतों
के सिवा कुछ भी नहीं बदला ।आग और पहिये के अविष्कार के बाद की क्रान्ति
थी वस्त्र का अविष्कार 'जिसका पहला प्रयोग लाज शरम और स्त्री पुरुष
प्रायवेट पार्ट्स को ढँकना नहीं था, 'अपितु ठंड से बचाव था । बाद में यही
वस्त्र बिछौने और धूप से बचाने के काम आने लगे जो कि पशुओं का चमङा और ऊन
और रेशों पत्तों छाल छिलकों के बने होते थे । नर और नारी के वस्त्रों में
कोई भेदभाव नहीं था ',एक लंबा सा चादर या थान लपेट कर डोरियों की मदद से
जगह जगह बाँध लेना ',फिर धोती अंगवस्त्र और शॉल फिर पगङी तक भी स्त्री
पुरुष के वस्त्र एक समान ही थे । उत्तर वैदिक काल में भी स्त्रियाँ लांग
बाँधकर धोती पहनती थी और पुरुष भी, एक चादर ऊपर से लपेट कर एक पटका सीने
पर बाँधती थी ',
केश स्त्री पुरुष दोनों ही लंबे रखते थे 'जेवर भी पुरुष और स्त्री एक
समान ही पहनते थे ।
मराठी साङी और पुरुष के धोती पहनने का कोई अंतर है तो बस 'ब्लाऊज के रूप
में है ।अगर याद करें तो हमारे बचपन मेंदादी नानी पेटीकोट ब्लाऊज नहीं
पहनतीं थी बल्कि लांग वाली धोती ही कसकर बाँधतीं थी, 'ब्लाऊज आधुनिक काल
की देन है और राजे रजवाङों के अलावा बहुत कम परिवारों में स्त्रियाँ आज
की तरह पेटीकोट या ब्लाऊज पहनतीं थी ।
और आज भी सिख समुदाय में स्त्री पुरुष दोनो के बाल लंबे रहते है कटार और
कंघी और कङा समान रहता है ।
समय बदलता रहा ',पुरुष ने चोटी कटाई, जनेऊ उतार फेंका, दाङी मूँछ साफ कर
दी और धोती, फेंटा, पगङी, कटार, पिछौरा यादर अंगवस्त्र पटका शॉल सब उतार
फेंका ',लँगोट और बंडी गंजी भी त्याग दी अंगरखा भी हट गया!!!!!!!!
आज सिवा फिल्म और नाटक या बहुत ड्रेसकोड की ड्रामेटिक शादी के पुराने
कपङे कहीं नहीं दिखाई देते । शर्ट, टीशर्ट, पोलोशर्ट, जैकेट, कोट, पैन्ट,
ट्राऊजर, बैगी, ब्रीचिज, कुर्ता, पाजामा, कैप, हैट, और जूते, 'टाई मोजे
और रूमाल!!!!!
कहाँ गयी, पुरानी चोटी, लँगोटी, खङाऊँ, धोती' बंडी, तिलक, अँगोछा, दाङी,
मूँछ, लंबे बाल, और चादर!!!!!
क्यों नहीं पैरों में तोङा, गले में हँसली, कान में कुंडल सिर पर पगङी???
हाथ में लाठी पैर में नागरा और खङाऊँ?
संस्कृति और संस्कार परंपरा और धर्म की ठेकेदारी सारी की सारी केवल
स्त्रियों की ही क्यों हो?
दूल्हा आता है कोट पैन्ट शर्ट बूट टाई घङी और रेडीमेट दूल्हाटोपी में जो
केवल एक रस्म के बाद फेंक दी जाती है ।
किंतु दुलहन, 'आज भी वही सन बारह सौ के पारंपरिक कपङों गहनों वाली लजाती
शरमाती चाहिये और वही 'पुराना माहौल उसके व्यक्तित्व पर??
बङी अज़ीब सी सोच है संस्कृति के नाम पर इस भयंकर भेदभाव की ',।जिस
परिवार के पुरुष धोती नहीं पहनते कोट पैन्ट सूट टाई शर्ट अंडरवीयर पहनते
हैं ',उस परिवार की स्त्रियों पर धोती ब्लाऊज पायल बिंदी चूड़ी लंबे बाल
नाक कान बिंधवाने और चप्पल पहनने का बंधन क्यों??? या तो खुद भी, धोती
पहनो लँगोट बाँधो, जनेऊ पहनो, अँगरखा बाँधों चादर लपेटो कुंडल चोटी तिलक
तोङा हँसली खङाऊँ नागरा पहनो और, संस्कृत पढ़ो, बोलो ',या फिर, 'जितने
आधुनिक आप हो उतना ही आधुनिक घर की बहू बेटियों को भी रहने दो ',।
पुरुष सुविधा जनक कपङे रहन सहन और आदते अपनाता चला गया और, 'उत्तर वैदिक
काल से आज इक्कीसवीं सदी का नागरिक पुरुष ही नहीं बल्कि घोर देहात गाँव
कबीलों तक का पुरुष पैंट शर्ट जूते अंडर वीयर वेस्ट और कोट जैकेटे स्वेटर
पहनने लगा ',बाल कटवाने लगा और, 'सेफ्टीरेजर का इस्तेमाल करने लगा है ।
साबुन शैम्पू और पेस्ट ब्रुश प्रयोग करने लगा है । असुविधा जनक धोती और
पगङी जेवर और लंबे चादर दुशाले केश पगङी और दाङियाँ कब के पीछे छोङ
दिये!!!!
किंतु दुराग्रह के रूप में आज भी स्त्री पर असुविधा जनक कपङे और लंबी
चोटी हाथ भर कर कङे चूङियाँ नाक कान बिंधाने की जिद जारी है!!!
सुरक्षा और कार्यकुशलता के लिहाज से, 'कुर्ता पाजामा, 'पैन्ट शर्ट जैकेट
कोट, 'बेल्ट ',जूते ',छोटे बाल ',और बिना नाक कान पैरों कलाईयों में गहने
पहने ही रहने वाली स्त्रियाँ चुस्त दुरुस्त और अधिक तीव्रता कुशलता से
काम काज कर पाती हैं ।
आज लङकियाँ बाईक चलातीं है 'घुङसवारी करती हैं, बोट चलाती है, बंदूक
चलाती है, विमान उङाती है, रॉकेट से अंतरिक्ष जाती है, जूडो कैराटे
ताईक्वांडो युयुत्सू नॉनचेको कुश्ती, बॉक्सिंग, कबड्डी हॉकी क्रिकेट
टेनिस बैडमिन्टॉन और धनुष बाण, जैसे खेलों में जीत कर दिखा रही हैं ।
लङकियाँ, पेट्रोल पंप चला रहीं है और ऑटो रिक्शा भी, 'लङकियाँ कुली भी
हैं और, ट्रैक्टर भी चला रही है, ' वे टीचर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, खिलाङी,
वकील, पत्रकार, पुलिस ऑफिसर, बिजनैस हैड, पैरामिलिट्री कमांडो और, जासूस
भी है ',संगीतकार कलाकार, निर्माता निर्देशक कैमरापर्सन और सांसद मंत्री
नेता विधायक भी है ।
तब?????
आज भी देश की आधी आबादी का बहुत बङा हिस्सा किस तर्क के साथ विवश कर दिया
जाता है ',असुविधा जनक जेवर कपङे चूङियाँ बिंदियाँ गहने चप्पलें और सर
सामान से लदकर काम करने को!!!!! ऐसा जो जो लोग सोचते हैं कि स्त्री साङी
में ही अच्छी लगती है उन सब पुरुषों को सात दिन तक दोनों हाथों में नौ नौ
चूङियाँ, 'पेटीकोट ब्लाऊज और कमर तक लंबी चोटी लटका कर "नाक कान गले पांव
में जेवर बाँधकर ',रसोई में सब काम करके दफतर जाने का आदेश दे देना
चाहिये ',ताकि उनको पता तो चले कि, उनके और साङी गहने चोटी बिंदी पायल
वाली स्त्री के पहनावे का ",,कामकाज पर कार्य क्षमता और मूड तथा
अनुभूतियों पर कैसा असर पङता है ।
एक बार बरसात के दिनों में कोटद्वार यात्रा के समय 'रास्ते में पानी भरने
से वाहन वहीं छोङकर आगे पैदल जाना पङा और वहाँ से लौटते समय कई घंटों की
प्रतीक्षा के बाद ट्रक मिला ',हम सब सहेलियाँ जिन जिन ने सलवार कुरता या
पैन्ट कुरता पहिन रखा था आराम से चढ़ गये ',किंतु जिन्होने साङी पहिन रखी
थी बहुत खराब हालत थी पहले तो भीगी साङी में पैदल चलकर उनके पांव छिल छिल
गये थे, ऊपर से ट्रक पर चढ़ते समय तो परदा बेपरदा के चक्कर में बेचारी
नीचे ही रह गयीं ',आखिर कार हम सबको उतरना पङा ',हुआ यूँ कि फिर कई घंटों
तक कोई वाहन नहीं मिला ',फिर आधा किलोमीटर हपङ धपङ करती साङी में वे सब
हम सब पैदल चले और 'तब बस मिली, 'साङी शरीर से चिपक कर पारदर्शी हो चुकी
थी और फिटिंग के ब्लाऊज में वे दोनों शर्मिन्दा महसूस कर रहीं थीं ',हम
चार पाँच लोगों ने अंडरशर्ट और कुरते पहिन रखे थे जो जल्दी सूख गये तो
अपने दुपट्टे उन लोगों को दे दिये । अकसर यही तमाशा आपको लोकल ट्रेन या
बस में देखने को मिलता रहता है ',ठसाठस भरी गाङी में ट्राऊजर पैंट और
शर्ट कुरता सलवार कमीज वाली महिलायें आराम से चढ़ जाती है ',या फिर लांग
वाली मराठी साङी वाली ',किंतु बंगाली बिहारी उत्तरभारतीय तरीको से ब्लाऊज
साङी पहिनने वाली महिलायें कभी पल्लू सँभालती कभी चुन्नट पकङती कभी पेट
पीठ ढँकने की असफल कोशिश करतीं तमाशा बन जातीं हैं ',।बस में अगर सीट
नहीं मिली और खङे होना पङे तो साङी वाली महिलाओं को सबसे अधिक परेशानी
होती है क्योंकि उनका आधा बदन उघङ कर बेपरदा ही हो जाता है । तेजी से
दौङना हो या भागना तो भी 'साङी 'मतलब एक मुसीबत ही है ।न साङी पहन कर
ट्रक या डंपर जैसे किसी ऊँचे वाहन में चढ़ा जा सकता है, न साङी पहिन कर
बास्केटबॉल फुटबॉल कबड्डी खो खो खेली जा सकती है, न साङी पहिन कर
पर्वतारोहण किया जा सकता है, न साङी पहिन कर बरसात आँधी तूफान बाढ़ आदि
के समय तेजी से बचाव के भागा जा सकता है, न साङी पहिन कर जंप या हाईजंप
लगायी जा सकती है न साङी पहिन कर बहुत तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ीं उतरीं जा
सकतीं है न ही साङी पहिन कर बेधङक खुली जगह जैसे रेलवे प्लेट फॉर्म या
'कंपार्टमेन्ट में सोया जा सकता है न साङी पहिन कर पैराग्लाईडर ग्लाईडर
या पैराशूट में उङा जा सकता है । किसी खतरनाक मशीनों वाले कारखाने या मिल
में साङी पहिन कर जाना सख्त मनाही ही रहता है ',। असामाजिक तत्वों का
साङी पहिन कर मुकाबिला बहुत कठिन हो जाता है '। अकसर जब जब भीङ की
दुर्घटनायें हुयीं तो भगदङ में साङी वाली महिलायें और उनकी गोद में
नन्हें बच्चे सबसे अधिक मारे गये 'जबकि 'लङकियाँ बच गयीं और वे लङके जो
पैंट शर्ट में थे । रेलिंग या बाङ फलांगना हो या चौङी नाली नाला गटर या
खड्डा 'साङी सिवा मुसीबत के कुछ नहीं '।जरा सा खिंचाव पङते ही फट जाये या
खुल जाये!!!! ऊपर से एक मीटर के कपङे का ब्लाऊज पेट पीठ गला सब खुला!!!!!
अगर साङी खिंचकर अलग हो या उङ जाये तो, निर्वसना जैसी हालत हो जाये
',जबकि अंडर शर्ट और अंडरसमीज के साथ कुरता पाजामा पेन्ट शर्ट ',संभव हो
तो नेहरूकट वेस्टकोट या जैकेट 'पहनने वाली स्त्रियाँ ',बहुत हद तक एक्टिव
सुरक्षित और कूदने दौङने चलने भागने फलांगने और चढ़ने उतरने उङने तक में
आसानी महसूस करती है "बाईक राईडिंग या हॉर्स राईडिंग 'साईकिलिंग या कार
ड्राईविंग "साङी हर जगह मुसीबत!!!!!!
परंपरा?
तो ये परंपरा है कि स्त्री को जमाने के मुताबिक कमजोर और मुसीबत ज़दह रखा जाये
मौसम के लिहाज से भी साङी न तो गरमी में आराम देती है ',न बरसात में
अनुकूल है, 'न ही सरदी से कुछ बचाव होता है ।
सरदी में आखिरकार स्वेटर 'कार्डिगन, कोट, पहन कर भी साङी के नीचे स्लैक्स
पाजामी 'इनरवीयर पहनने पङते हैं ',फिर भी जहाँ कुरता पाजामा और पैंट शर्ट
पहिनने वाली महिलायें ',वंद गले के कपङों के नीचे गर्म थर्मल इनरवीयर और
पाजामी दोनो पहिन सकतीं है वहीं साङी वाली स्त्रियाँ ब्लाऊज की वजह से
पाजामी तो पहिन लेती है पेटीकोट के भीतर किंन्तु ',ब्लाऊज के भीतर कुछ
गर्म कपङा नहीं पहिन पाती अतः मोटे स्वेटर विकल्प रह जाते है या कोट
कार्डिगन ऊनी ब्लाऊज ',
जाङों के दिनों में साङी सिवा एक ढकोसले के कुछ और नहीं रह जाती क्योंकि
बाकी सब कपङे तो अत्याधुनिक होते ही है सिवा एक साङी के!!!!!!
इसीलिये "बहुत "ठंडे प्रदेशों में भारतीय महिलायें साङी नहीं पहिनतीं न
कश्मीर , न हिमाचल प्रदेश, न गढ़वाल, न कुमाऊ, और न ही, लद्दाख में ।
बेहद गर्म प्रदेशों में भी साङी नहीं पहिनी जाती ',क्योंकि थार की रेत पर
चलना साङी पहिनकर असंभव है ',ऊँट पर चढ़ना असंभव है 'इसीलिये राजस्थान का
मूल पहनावा कांचरी कुरती घाघरा और जूतियाँ मोजरी है ',जिनको दो मिनट में
पहिन कर मीलो दौङा जा सकता है ',तेज आँधी और धूल में सहजता से चला भागा
जा सकता है ',जरूरत पङने पर लँहगे की लांग बाँध कर ',पहाङ पर भी चढ़ा जा
सकता है ।
फिर भी एक मेहनत कश स्त्री और 'धनिक स्त्री के 'घाघरे में अंतर है ।
मुंबईया फिल्मों ने घाघरे का जैसा दुष्प्रचार किया है वह असली घाघरा है
ही नहीं ',फिल्म में कांचरी पहना कर नायिका छोटे से घाघरे में नचवा दी
जाती है जबकि वह तो अतः वस्त्र होती है ',उसके ऊपर से कुरता पहिना जाता
है जो पूरा पेट कूल्हे गला सब ढँक देता है ',
साङी से सहूलियत केवल दुःशासन की नस्ल के लोगों ही रहती है ताकि वे साङी
खींच सकें और पतले से पेटीकोट छोटे से ब्लाऊज में स्त्री ""लाज बचाओ ""की
गुहार लगाती रहे ।
वीरांगना, कर्मयोद्धा स्त्री की पोशाक साङी नहीं हो सकती ',उसे बाँधने का
तरीका पाजामा और सलवार की मरदानी धोती के ही शैली में होता आया है ।
कपङा हो या गहना केवल वही अच्छा है उसकी एक ही कसौटी है कि ""गरमी सरदी
बरसात धूल धूप तेज हवा कीङे मकोङे पतिंगे विषाणु बैक्टीरिया और संक्रमण
से कितनी रक्षा करते हैं ।
शरीर को पहनने के दौरान कितना आराम और कामकाज करने में कितनी सुविधा देते
है । युद्ध हमला आक्रमण बचाव के समय प्राणों पर संकट कितना कम करते हैं
',जान बचाने और बलात्कार छेङछाङ आदि से बचने में कितनी मदद करते हैं ।
सोते उठते चलते भागते दौङते कूदते कोई अङचन तो नहीं करते?
जो भी कपङा शरीर की शक्ति और मूवमेन्ट की रफ्तार को कम करता है वह "सही
"वस्त्र नहीं हो सकता ।
साङी इस नजरिये से बिलकुल "प्रारंभिक आविष्कार की अवस्था का वस्त्र है, '
जिसे "पहनना "सीखना पङता है औऱ ठीक तरीके से पहनना तब भी "अधिकांश
स्त्रियों को नहीं आता जो बरसों से पहिन रही हैं । यह बाईसवीं सदी का
"विकसित मानव फ्रैण्डली वस्त्र नहीं है ।
पुरुषों की चोटी कर्णवेध जनेऊ लंगोटी खङाऊँ जूङे की तरह ही अब साङी को भी
म्यूजियम में रखने का समय आ चुका है ।
जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि "विकास की रफ्तार के साथ 'तकनीकी से
कुशलता बढ़ाने वाली हर चीज अपनाने के युग में भी परंपरावादी पोंगापंथी
लोग "अगर नहीं चाहते कि "स्त्रियाँ ''नथ और साङी पहिनना छोङे तो उसकी वजह
है "मालिकाना अहंकार "जो ऐसी हर चीज के त्यागने का विरोध करता है जिससे
स्त्री को तनिक भी, स्वतंत्रता मुक्ति हक या समानता मिलती हो ।
वैसे भी "साङी "भारत का प्रतिनिधि वस्त्र नहीं बल्कि केवल कुछ राज्यों का
वस्त्र था जो आजादी के दौरान उत्तरभारत और बंगाल से 'प्रचार "पा गया ।
मणिपुर आसाम नागालैंड मेघालय सिक्किम पंजाब हरियाणा सिंध कश्मीर जम्मू
गढ़वाल कुमाऊँ राजस्थान गुजरात गोवा, """"और अनेक वन्यप्रांतरवासियों की
पोशाक साङी नहीं है,,,
दिल्ली और उत्तर प्रदेश की हर बात को "भारतीयता "कह कर थोपना पुरानी आदत
है 'समाज के खुद को ठेकेदार समझने वालों की ',जैसे सबकी मातृभाषा हिंदी
नहीं वैसे ही सबकी पोशाक साङी नहीं ।
स्त्री पुरुष समानता के संदर्भ में ',साङी पहनाने का हक केवल उसे है जो
खुद धोती पहिन सके ।
©®सुधा राजे
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