सुधा राजे की गज़ल :- सहेली आज हूँ बिलकुल अकेली

Sudha Raje
Sudha Raje
सहेली आज हूँ बिलकुल अकेली इस हवेली में

ये केवल नाम का घर है खिलौनों का नगर
कोई।

मैं कठपुतली हूँ जैसे
नाचती गाती तमाशा हूँ ।

सज़ावट करके पिछली साँझ दर पर धर
गया कोई।

हँसी थी आसमां भर की जमीं भर के सफ़र
भी थे ।

उङ़ानें थी खला भर की कटा पर शाह-पर
कोई ।

ये नगमातो ग़ज़ल
गीतों तरानों का बहाना है ।

फ़साना है
कहा सा अनकहा बहरो बहर कोई।

समाता ही नहीं है औऱ्
सहा जाता नहीं फिर भी।

सिसककर मुसकराता दिल ।
कहीं ग़ुस्ताख़
सर कोई ।

नहीं होगा बयां ये दर्द अब हमसे
नहीं होगा ।

नये औराक़ नई स्याही न
हो ।
दे दे ज़हर कोई।


ये वो ही खाक़ है चुपके सँभाला है जिसे
बरसों ।

बिखर ना जाये छूने से जला यूँ उम्र भर
कोई ।

रहा हर पांव मंज़िल के सफ़र पे बे सबब
बेहिस।

हैं आदमख़ोर ख़ुम फिर भी जिया है डूबकर
कोई ।

चले जायेंगे बस यूँ ही ज़रा कुछ देर ठहरे हैं


निदां आयी है मिट्टी को जगा है रात
भर कोई।

मरेगा कौन से असलाह से ये तो सुधा बोले
। ये यकतां ख़्वाब जो अब तक बचा है आँख
पर कोई।
©®SudhaRaje

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