सुधा राजे का लेख --"कैसे पढ़े ग्रामीण कन्याएँ??"
सुधा राजे का लेख '
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महिला सशक्तिकरण की बात करते सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थानों के लोग,
आज़ादी के छह दशक बाद तक भी "स्त्री की बुनियादी शिक्षा तक की समुचित
व्यवस्था नहीं कर सके हैं । गाँवों में बसता भारत जिसकी तसवीर ये है कि
आज भी हजारों गाँवों न प्राथमिक पाठशाला हैं न मदरसा या आँगनबाङी जैसी
कोई व्यवस्था ।और अनेक गाँवों में हैं भी तो केवल कागज पर चल रहीं है
जबकि वहाँ गाँव में कोई जानता ही नहीं कि आँगनबाङी या पाठशाला है कहाँ
फिर जिन जिन गाँवों में जो प्राथमिक पाठशालायें और मदरसे खुले हैं उनमें
लङकियों की बज़ाय लङकों को ही सायास पढ़ने भेजा जाता है । पशुपालक,
खेतिहर,मजदूर, कारीगर, और कुटीर उद्योगों में लगे परिवारों में बेटी, को
मनहूस मानते तो हैं किंतु पाँच साल की होते ही बेटी काम काज पर लग जाती
है, और दस साल की बेटी घर में छोटे भाई बहिनों को खिलाती एक किंडर गार्टन
की आया क्रॅच संचालिका की भाँति दिन भर घर पर रहकर माँ के छोटे छोटे
बच्चे घेरती है 'गाय बकरी को पानी चारा देती है और बरतन धोती झाङू लगाती
है ',सुबह शाम खाना बनाने में माँ की मदद करती है 'सब्जी काटना सिलबट्टे
से मसाला पीसना 'बिटौङे 'से उपले कंडे लाना 'चूल्हे की ऱाख फेंककर 'पोता
लीपना 'मिट्टी लाना कूङा फेंकना अनाज साफ कराना '..
और माँ?
माँ रोज सुबह जल्दी जल्दी थोङा बहुत पका कर रख कर लेकर 'मजदूरी पर निकल
जाती है दिन भर वहीं रहती है 'कारखाने 'खेत 'पास के नगर की किसी इमारत
में या कसबे के घरों की साफ सफाई में '।देर शाम आकर माँ थकी होती है और
छोटी लङकी 'हुनर के कामकाज के अलावा सारे ऊपरी उसार काम करती है ।
'मिड डे मील 'के लालच या वज़ीफे की वजह से जो थोङे बहुत माँ बाप लङकियों
का नाम विद्यालयों में लिखवा देते हैं, उनको भी नाम तो लिख जाता है किंतु
"रोज रोज ''भेजा बिलकुल नहीं जाता स्कूल '। जैसे तैसे कुछ परिवार भेज भी
देते हैं तो 'दूर स्कूल और लङकी की जात 'का सवाल खङा हो जाता है ।
छोटी बच्चियों के साथ जिस तरह ''यौन शोषण "और बलात्कार हत्या झाङियों
खेतों में लाशें मिलने का 'माहौल बढ़ता जा रहा है अकसर माता पिता डर सहम
जाते हैं ।और लङकियाँ केवल करीब विद्यालय होने पर ही पढ़ने भेजीं जातीं
हैं । कुछ समूह में जाने वाली लङकियाँ विद्यालय पहुँच भी जातीं हैं तो,,
शिक्षक चौकीदार और विद्यालय 'स्टाफ 'तक के आचरण का आपराधिक पतन जिस तरह
''स्त्री बालिका 'को लेकर लगातार बढ़ता जा रहा है ',ऐसी एक दो घटना कहीं
दूर पास के विद्यालय मेंघटित होते ही, अनेक लङकियों को घर बिठा दिया जाता
है ।
फिर भी यदि प्राथमिक विद्यालय में जाती भी हैं तो पढ़ाता ही कौन है!!!
हालात उत्तर प्रदेश के किसी गाँव से परखे जा सकते हैं कि क्या कितना और
कैसा पढ़ाते है हजारों रुपया वेतन पाने वाले सरकारी परिषदीय विद्यालयों
के शिक्षकगण 'कि पाँचवीं उत्तीर्ण छात्रा को 'न हिंदी ठीक से पढ़नी और
इमला लिखनी आती है न गणित के गुणा भाग जोङ घटाना ब्याज और प्रतिशत
क्षेत्रफल भिन्न और समापवर्तक लघुत्तम महत्तम या रेखागणित का कुछ समझ आता
है । कारण है शिक्षक आलसवश पढ़ाते नहीं और बच्चे पृष्ठभूमि वश बहुत
उत्सुक होते नहीं पढ़ाई को लेकर ।
फिर भी प्राथमिक विद्यालय 'से आगे पढ़ाई अकसर छूट जाती है । क्योंकि
जनजातियों में आज भी बालविवाह होते हैं और 'जिनमें बालविवाह नहीं भी होते
वहाँ स्कूल दूर होने पर पढ़ने कैसे भेजे 'नदी नाला पहाङ नहर जंगल खेत रेत
पानी दलदल और लङकीभक्षी समाज ',मुँह बाए खङा रहता है ।
लङकियाँ अगर थोङे बहुत पढ़े लिखे माता पिता की इकलौती या दो तीन संतानों
में से हैं तब तो उनके नजदीक के बङे गाँव या कसबे में जाने की व्यवस्था
कर दी जाती है अथवा खुद पिता चाचा भाई कोई करीब के कसबे में पढ़ने मजदूरी
करने रिक्शा या ठेली से कमाने या छोटी मोटी नौकरी करने जाते हैं तो 'लङकी
भी पढ़ने चली जाती है ।वहाँ आठवीं या अधिकतम दसवीं बारहवीं तो बहुत बहुत
बहुत हद होने पर पढ़ पातीं हैं कि 'शादी 'कर दी जाती है और वे लङकियाँ
जिनकी शादी लङका न मिल पाने या दहेज न होने या रंगरूप की कमी की वजह से
देर से हो पाती है 'समाज की सवालिया निग़ाहों से बचने के लिये स्वयं को
घर परिवार तक सीमित कर लेती हैं पढ़ाई छूट जाना कोई बङी बात समझी ही नहीं
जाती लङकियों के मामले में । बङी बात होती है जल्दी से जल्दी शादी ।
सामाजिक ताना बाना इसी सोचपर गढ़ा गया है कि जिसने बेटी खूब पढ़ा ली वह
अच्छा बाप नहीं है वरन जिसने जल्द ब जल्द बेटी की शादी कर दी वही
सर्वोत्तम बाप है वही सर्वोत्तम माता । गाँव की लङकियों को सब्जेक्ट के
नाम पर "गृहविज्ञान और कला संकाय और बहुत हद हुयी तो वाणिज्य समूह पकङा
दिया जाता है । जिनके माता पिता नगर में रहते हैं या फिर वे बुआ मामा
मौसी आदि के घर पढ़ने रह सकतीं है नगर में जाकर ऐसी सुविधा और माता पिता
के उन नातेदारों से संबंध और खर्च उठाने की हालत है ',जोखिम उठाने का
साहस है तब, 'लङकी गाँव की बी एस सी कर पाती है ।
पी ई टी, 'पी एम टी, 'आई आई टी ',पॉलिटेक्नीक, 'आई टी आई ',ए एन एम 'जी
एन एम ',बी टीसी ',बी एड ',और कम्प्यूटर आदि की व्यवसायिक पढ़ाई भी वही
लङकियाँ कर पाती है जिवके परिजन या तो ""नगर के नातेदार के घर लङकी पढ़ने
भेज सकते हैं या ',खुद गाँव छोङकर नगर में रह पाते हैं ।कसबों में छोटे
नगरों में न तो '''कॉलेज ""की तरफ से गर्ल्ज होस्टल होते हैं ।न ही,
'किसी व्यक्ति या संस्था की तरफ से महानगरों की भाँति गर्ल्ज होस्टल या
किराये के मकान आदि चलाये जाते है समूह रूप में जहाँ लङकियाँ रहें तो
सुरक्षित महसूस हो, ।
इसलिये जब तक गाँव से आना जाना संभव होता है ',साहसी परिवारों की लङकियाँ
पढ़ लेती हैं किंतु जहाँ से, नगर जाना संभव नहीं रहता वहीं से पढ़ाई छुङा
दी जाती है ।
शहरी पुरुष जहाँ डिग्री के अनुसार बढ़िया सेलरी वाली आरामदायक जॉब न
मिलने पर रोना रोते हैं समाज का, 'वहीं लाखों पढ़ी लिखीं लङकियाँ
जिन्होंने अनेक लिट्मस पेपर टेस्ट निकष कसौटियाँ तलवार की धार पर चलने
जैसे नियम शर्तें संघर्ष पार करक करके डिगरियाँ लीं ',वे विवाह की
बलिवेदी पर कुरबान कर दीं जातीं हैं और उनकी सारी पढ़ाई लिखाई योग्यता
तपस्या कठिन हालात पार करना "रसोई, बर्तन झाङू पोंछा भोजन पकाने सेज
सजाने और ससुराल के बङोंछोटों की धाय नौकरानी बँधुआ आया नर्स और अपने
बच्चों की ट्यूटर बनकर रह जाने में सब सपनों और कैरियर के 'सब मार्गों को
बंद करने सहित "झौंक "दीं जातीं हैं ।
लगभग हर दूसरी तीसरी स्नातक परास्नातक लङकी का हश्र यही है ।मेहनत से
हासिल की गयी शिक्षा और रसोई ससुराल दांपत्य बच्चों में झोंक दिया गया
सारा हुनर ।
किसी भी देश की सर्वांगीण संपूर्ण तरक्की का उदाहरण रखते समय "ये बात
कैसे भुला दी जाती है कि "आधी आबादी "
जब तक शिक्षा से वंचित है ',स्त्री पुरुष समानता और सम्मान की बात संभव
नहीं । शिक्षित स्त्री को जब तक विवश कर करके विवाह के नाम पर मनमार कर
दमन करके घर में पराधीन पराश्रित और मानसिक शारीरिक बंधुआ मजदूर गुलाम की
सी भावना से रखा जाता है जब तक समाज में, भेदभाव खत्म नहीं होगा ।
और जब तक पूरी पूरी मानव शक्ति किसी देश के तकनीकी वैज्ञानिक आर्थिक
औद्योगिक सामाजिक राजनैतिक हुनर और कला 'जीवन स्तर और प्रतिव्यक्ति आय
सेहत और प्रसन्नता से नहीं जुङती देश को "विकसित सुरक्षित शक्तिशाली सभ्य
और सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता ।
जरूरत है गाँव गाँव कन्या विद्यालय की और हर पाँच लाख की आबादी के बीच एक
बङे कॉलेज की जिसमें आवासीय व्यवस्था निम्नआय़.और उच्चआय की बजाय सब
लङकियों को उपलब्ध हो । अच्छा हो कि, लङकियों की स्नातक तक की शिक्षा हर
तरह के शुल्क से मुक्त कर दी जाये और सरकारी गैर सरकारी नौकरियों में
सजगता से ग्रामीण और कसबाई लङकियों को अधिक अवसर दिये जायें ।
प्रसन्न और सुरक्षित स्त्री समाज की सभ्यता की कसौटी है "बढ़ती जनसंख्या
बाल विवाह दहेज प्रथा मानव व्यापार और घरेलू हिंसा कोई रोक सकता है तो
"पढ़ी लिखी स्वावलंबी स्त्रियाँ।
©®सुधा राजे
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महिला सशक्तिकरण की बात करते सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थानों के लोग,
आज़ादी के छह दशक बाद तक भी "स्त्री की बुनियादी शिक्षा तक की समुचित
व्यवस्था नहीं कर सके हैं । गाँवों में बसता भारत जिसकी तसवीर ये है कि
आज भी हजारों गाँवों न प्राथमिक पाठशाला हैं न मदरसा या आँगनबाङी जैसी
कोई व्यवस्था ।और अनेक गाँवों में हैं भी तो केवल कागज पर चल रहीं है
जबकि वहाँ गाँव में कोई जानता ही नहीं कि आँगनबाङी या पाठशाला है कहाँ
फिर जिन जिन गाँवों में जो प्राथमिक पाठशालायें और मदरसे खुले हैं उनमें
लङकियों की बज़ाय लङकों को ही सायास पढ़ने भेजा जाता है । पशुपालक,
खेतिहर,मजदूर, कारीगर, और कुटीर उद्योगों में लगे परिवारों में बेटी, को
मनहूस मानते तो हैं किंतु पाँच साल की होते ही बेटी काम काज पर लग जाती
है, और दस साल की बेटी घर में छोटे भाई बहिनों को खिलाती एक किंडर गार्टन
की आया क्रॅच संचालिका की भाँति दिन भर घर पर रहकर माँ के छोटे छोटे
बच्चे घेरती है 'गाय बकरी को पानी चारा देती है और बरतन धोती झाङू लगाती
है ',सुबह शाम खाना बनाने में माँ की मदद करती है 'सब्जी काटना सिलबट्टे
से मसाला पीसना 'बिटौङे 'से उपले कंडे लाना 'चूल्हे की ऱाख फेंककर 'पोता
लीपना 'मिट्टी लाना कूङा फेंकना अनाज साफ कराना '..
और माँ?
माँ रोज सुबह जल्दी जल्दी थोङा बहुत पका कर रख कर लेकर 'मजदूरी पर निकल
जाती है दिन भर वहीं रहती है 'कारखाने 'खेत 'पास के नगर की किसी इमारत
में या कसबे के घरों की साफ सफाई में '।देर शाम आकर माँ थकी होती है और
छोटी लङकी 'हुनर के कामकाज के अलावा सारे ऊपरी उसार काम करती है ।
'मिड डे मील 'के लालच या वज़ीफे की वजह से जो थोङे बहुत माँ बाप लङकियों
का नाम विद्यालयों में लिखवा देते हैं, उनको भी नाम तो लिख जाता है किंतु
"रोज रोज ''भेजा बिलकुल नहीं जाता स्कूल '। जैसे तैसे कुछ परिवार भेज भी
देते हैं तो 'दूर स्कूल और लङकी की जात 'का सवाल खङा हो जाता है ।
छोटी बच्चियों के साथ जिस तरह ''यौन शोषण "और बलात्कार हत्या झाङियों
खेतों में लाशें मिलने का 'माहौल बढ़ता जा रहा है अकसर माता पिता डर सहम
जाते हैं ।और लङकियाँ केवल करीब विद्यालय होने पर ही पढ़ने भेजीं जातीं
हैं । कुछ समूह में जाने वाली लङकियाँ विद्यालय पहुँच भी जातीं हैं तो,,
शिक्षक चौकीदार और विद्यालय 'स्टाफ 'तक के आचरण का आपराधिक पतन जिस तरह
''स्त्री बालिका 'को लेकर लगातार बढ़ता जा रहा है ',ऐसी एक दो घटना कहीं
दूर पास के विद्यालय मेंघटित होते ही, अनेक लङकियों को घर बिठा दिया जाता
है ।
फिर भी यदि प्राथमिक विद्यालय में जाती भी हैं तो पढ़ाता ही कौन है!!!
हालात उत्तर प्रदेश के किसी गाँव से परखे जा सकते हैं कि क्या कितना और
कैसा पढ़ाते है हजारों रुपया वेतन पाने वाले सरकारी परिषदीय विद्यालयों
के शिक्षकगण 'कि पाँचवीं उत्तीर्ण छात्रा को 'न हिंदी ठीक से पढ़नी और
इमला लिखनी आती है न गणित के गुणा भाग जोङ घटाना ब्याज और प्रतिशत
क्षेत्रफल भिन्न और समापवर्तक लघुत्तम महत्तम या रेखागणित का कुछ समझ आता
है । कारण है शिक्षक आलसवश पढ़ाते नहीं और बच्चे पृष्ठभूमि वश बहुत
उत्सुक होते नहीं पढ़ाई को लेकर ।
फिर भी प्राथमिक विद्यालय 'से आगे पढ़ाई अकसर छूट जाती है । क्योंकि
जनजातियों में आज भी बालविवाह होते हैं और 'जिनमें बालविवाह नहीं भी होते
वहाँ स्कूल दूर होने पर पढ़ने कैसे भेजे 'नदी नाला पहाङ नहर जंगल खेत रेत
पानी दलदल और लङकीभक्षी समाज ',मुँह बाए खङा रहता है ।
लङकियाँ अगर थोङे बहुत पढ़े लिखे माता पिता की इकलौती या दो तीन संतानों
में से हैं तब तो उनके नजदीक के बङे गाँव या कसबे में जाने की व्यवस्था
कर दी जाती है अथवा खुद पिता चाचा भाई कोई करीब के कसबे में पढ़ने मजदूरी
करने रिक्शा या ठेली से कमाने या छोटी मोटी नौकरी करने जाते हैं तो 'लङकी
भी पढ़ने चली जाती है ।वहाँ आठवीं या अधिकतम दसवीं बारहवीं तो बहुत बहुत
बहुत हद होने पर पढ़ पातीं हैं कि 'शादी 'कर दी जाती है और वे लङकियाँ
जिनकी शादी लङका न मिल पाने या दहेज न होने या रंगरूप की कमी की वजह से
देर से हो पाती है 'समाज की सवालिया निग़ाहों से बचने के लिये स्वयं को
घर परिवार तक सीमित कर लेती हैं पढ़ाई छूट जाना कोई बङी बात समझी ही नहीं
जाती लङकियों के मामले में । बङी बात होती है जल्दी से जल्दी शादी ।
सामाजिक ताना बाना इसी सोचपर गढ़ा गया है कि जिसने बेटी खूब पढ़ा ली वह
अच्छा बाप नहीं है वरन जिसने जल्द ब जल्द बेटी की शादी कर दी वही
सर्वोत्तम बाप है वही सर्वोत्तम माता । गाँव की लङकियों को सब्जेक्ट के
नाम पर "गृहविज्ञान और कला संकाय और बहुत हद हुयी तो वाणिज्य समूह पकङा
दिया जाता है । जिनके माता पिता नगर में रहते हैं या फिर वे बुआ मामा
मौसी आदि के घर पढ़ने रह सकतीं है नगर में जाकर ऐसी सुविधा और माता पिता
के उन नातेदारों से संबंध और खर्च उठाने की हालत है ',जोखिम उठाने का
साहस है तब, 'लङकी गाँव की बी एस सी कर पाती है ।
पी ई टी, 'पी एम टी, 'आई आई टी ',पॉलिटेक्नीक, 'आई टी आई ',ए एन एम 'जी
एन एम ',बी टीसी ',बी एड ',और कम्प्यूटर आदि की व्यवसायिक पढ़ाई भी वही
लङकियाँ कर पाती है जिवके परिजन या तो ""नगर के नातेदार के घर लङकी पढ़ने
भेज सकते हैं या ',खुद गाँव छोङकर नगर में रह पाते हैं ।कसबों में छोटे
नगरों में न तो '''कॉलेज ""की तरफ से गर्ल्ज होस्टल होते हैं ।न ही,
'किसी व्यक्ति या संस्था की तरफ से महानगरों की भाँति गर्ल्ज होस्टल या
किराये के मकान आदि चलाये जाते है समूह रूप में जहाँ लङकियाँ रहें तो
सुरक्षित महसूस हो, ।
इसलिये जब तक गाँव से आना जाना संभव होता है ',साहसी परिवारों की लङकियाँ
पढ़ लेती हैं किंतु जहाँ से, नगर जाना संभव नहीं रहता वहीं से पढ़ाई छुङा
दी जाती है ।
शहरी पुरुष जहाँ डिग्री के अनुसार बढ़िया सेलरी वाली आरामदायक जॉब न
मिलने पर रोना रोते हैं समाज का, 'वहीं लाखों पढ़ी लिखीं लङकियाँ
जिन्होंने अनेक लिट्मस पेपर टेस्ट निकष कसौटियाँ तलवार की धार पर चलने
जैसे नियम शर्तें संघर्ष पार करक करके डिगरियाँ लीं ',वे विवाह की
बलिवेदी पर कुरबान कर दीं जातीं हैं और उनकी सारी पढ़ाई लिखाई योग्यता
तपस्या कठिन हालात पार करना "रसोई, बर्तन झाङू पोंछा भोजन पकाने सेज
सजाने और ससुराल के बङोंछोटों की धाय नौकरानी बँधुआ आया नर्स और अपने
बच्चों की ट्यूटर बनकर रह जाने में सब सपनों और कैरियर के 'सब मार्गों को
बंद करने सहित "झौंक "दीं जातीं हैं ।
लगभग हर दूसरी तीसरी स्नातक परास्नातक लङकी का हश्र यही है ।मेहनत से
हासिल की गयी शिक्षा और रसोई ससुराल दांपत्य बच्चों में झोंक दिया गया
सारा हुनर ।
किसी भी देश की सर्वांगीण संपूर्ण तरक्की का उदाहरण रखते समय "ये बात
कैसे भुला दी जाती है कि "आधी आबादी "
जब तक शिक्षा से वंचित है ',स्त्री पुरुष समानता और सम्मान की बात संभव
नहीं । शिक्षित स्त्री को जब तक विवश कर करके विवाह के नाम पर मनमार कर
दमन करके घर में पराधीन पराश्रित और मानसिक शारीरिक बंधुआ मजदूर गुलाम की
सी भावना से रखा जाता है जब तक समाज में, भेदभाव खत्म नहीं होगा ।
और जब तक पूरी पूरी मानव शक्ति किसी देश के तकनीकी वैज्ञानिक आर्थिक
औद्योगिक सामाजिक राजनैतिक हुनर और कला 'जीवन स्तर और प्रतिव्यक्ति आय
सेहत और प्रसन्नता से नहीं जुङती देश को "विकसित सुरक्षित शक्तिशाली सभ्य
और सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता ।
जरूरत है गाँव गाँव कन्या विद्यालय की और हर पाँच लाख की आबादी के बीच एक
बङे कॉलेज की जिसमें आवासीय व्यवस्था निम्नआय़.और उच्चआय की बजाय सब
लङकियों को उपलब्ध हो । अच्छा हो कि, लङकियों की स्नातक तक की शिक्षा हर
तरह के शुल्क से मुक्त कर दी जाये और सरकारी गैर सरकारी नौकरियों में
सजगता से ग्रामीण और कसबाई लङकियों को अधिक अवसर दिये जायें ।
प्रसन्न और सुरक्षित स्त्री समाज की सभ्यता की कसौटी है "बढ़ती जनसंख्या
बाल विवाह दहेज प्रथा मानव व्यापार और घरेलू हिंसा कोई रोक सकता है तो
"पढ़ी लिखी स्वावलंबी स्त्रियाँ।
©®सुधा राजे
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