सुधा राजे का लेख -""दासता बनाम संस्कृति"" (भाग 4)

अगर बदन पर टैटूज
""दासता की निशानी नहीं आधुनिकता है?
तो बिंदी सिंदूर कैसे
दासता की निशानी है??
क्या केवल इसलिये कि इससे यह
पता चल जाता है कि वह
स्त्री विवाहित है?
ये एक बढ़िया प्रतीक क्यों नहीं इस
बात का कि इसे प्रपोज मत
करो इसका घर बस चुका है???
जरूरी नहीं कि इससे पति की आयु
लंबी होती हो,
किंतु ये तो तय है कि अपनी बीबी पर
अब दूसरे लोग डोरे नहीं डालेंगे
सम्मान करेगे "सुहागिन "है तो उस
पुरुष की आयु इस तसल्ली से तो जरूर
लंबी होने ही वाली होती होगी
क्योंकि तब उसका कोई
प्रतियोगी नहीं!!!
माँग
भरना मतलब ""पत्नी की डिमांड्स
पूरी करना "
ये एक प्रतीक है कि वचन
दिया सौगंध ली कि मैं
अपनी स्त्री की सब जरूरतें
पूरी करता रहूँगा ''
हर बात को पश्चिम अमेरिका यूरोप
ब्रिटिश नजरिये से देखने की बजाय ।
अपने ही अतीत के काल और प्रचलित
परिस्थिजन्य क्रिया कलाप के
हिसाब से समझने की आवश्यकता है ।
हर ""भारतीय चिह्न के पीछे
लाठी लेकर लङना कहाँ तक सही है?
और हाँ हम जोङना चाहेंगे
कि """प्राचीन बिंदी जो हमने
माँ नानी दादी मामी तक देखी ।।।
ये
रबङ प्लास्टिक
नहीं होती थी """""चंदन घिसकर
बङा टीका लगाकर उसपर
हल्दी लगाकर
फिर सिंदूर कुमकुम
लगातीं थी """""""सोने
की टिकनी तो हर सनय
ही लगी ही रहती थी """""आज लोग
मानते हैं हलदी चंदन अरोमा का अंग
है!!!!!! और ये
भी कि बिंदी """विवाहित
पुरुष भी लगते थे।
समानता के लिहाज से भी तौलें
तो सभी पुरुष स्त्री अपने आराध्य के
अनुसार ही तिलक लगाते थे ।
स्टिकर बिंदी बस तीस साल
पुरानी है।
गोदने तो प्राचीन हैं
हमारी माँ दादी नानी सबके एक
दो नीले गोदने थे ""किंतु आज जो हाल है
वह """मानसिक गुलामी है "
यहाँ ""थोपने वाली हर चीज
""""दासता है यह मान लें किंतु
"""""जो चीजें किसी दूसरी संस्कृति में
परंपरा हैं उनको आधुनिक मान कर
बावला हो अपनाना कहाँ तक सही है
बिना ""लॉजिक ""समझे?? गोदने
तो सिंधु कालीन हैं।
यूरोपियन लङकियाँ भी सजती सँवरती है
""""पुरानी फ्रॉकनुमा गाउन के नीचे
साँस रोकने वाले कौर्सेट और जाल
पहनना कितना ""बढ़िया होता होगा??
हमें नहीं लगता कि """मिनी स्कर्ट
कहीं भी सुविधाजनक है और
कीङों मकोङों तक से त्वचा बचाती है??
जबकि सलवार कुरता हर तरह से ""मौसम
और त्वचा और चलने कूदने तक
को बढ़िया है!!!!
किसने कहा कि यूरोप स्त्री को पूरी छूट
देता रहा है, इतिहास देखो,
उनका तो हमसे भी बर्बर है।
वनवासी ग्रामीण और नागर ये
तो विकास के हर चरण में ही रहते हैं आज
भी युगांडा सोमालिया कंपाला घाना कैमरून
सिनेगल और बस्तर हैं

आज भी ""क्रिश्चियन स्त्री के रूप में
""ग्लैमर डॉल """की अवधारणा कार्य
करती है और बिना ये जाने कि बाईबिल
तक स्त्री से बच्चा देना ही पहली जरूरत
मानती लोग ""अपनी संस्कृति को थूकने
लगते हैं

मिल के व्यक्तिवाद और बेंथम के
उपयोगिता वाद से पहले तो यूरोपीय
स्त्री को काफ्तान
ही पहनाया जाता था सिर के बाल
ढँकना और दास्ताने मोजे पहने रहना गले
पर स्कार्फ और किमोनो ओढ़ना """"ये
अनिवार्य था """वुमेन लिबरेशन के लिये
स्त्रियों और स्त्री वादियों ने लंबी ज़ंग
लङी """गाऊन को काट दिया ""और वील
फेंक दिये ""वोट का अधिकार माँगा

भारतीयता से """दासता के सब चिह्न
हटा दें तो शुद्ध """प्राचीन
संस्कृति का क्रमशः विकास
होता """""और वह पर्याप्त प्राणवायु
से भरा होता "

और हाँ हम जोङना चाहेंगे
कि """प्राचीन बिंदी जो हमने
माँ नानी दादी मामी तक देखी ।।।ये
रबङ प्लास्टिक
नहीं होती थी """""चंदन घिसकर
बङा टीका लगाकर उसपर हल्दी लगाकर
फिर सिंदूर कुमकुम
लगातीं थी """""""सोने
की टिकनी तो हर सनय
ही लगी ही रहती थी """""आज लोग
मानते हैं हलदी चंदन अरोमा का अंग
है!!!!!! और ये भी कि बिंदी """विवाहित
पुरुष भी लगाते थे।
तब जब यूरोप अमेरिका के लोग
चंदन हलदी कुमकुम का तिलक लगाने लगेगे
और कहेंगे कि इससे """ब्लडप्रेशर
नहीं बढ़ता और मुँहासे नहीं होते ऐसा कुछ ।
(सुधा राजे)

--
Sudha Raje
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