सुधा राजे की कविता :- "आखिरी समय"
वह आखिरी समय टूटते टूटते इकबार
और बस
कहती उठ खङी होती है और सहने
और कहने की सोचकर
परंतु न तो हर बार
सब कुछ सहा जाता है ।न हर बार सब कुछ
कहा जाता है ।
और कोई कभी कब समझ
पाता है कुंदन कंचन के चमकते दमकते
चेहरों की खनकती बोली में कितने
शरबिद्ध सुर हैं
अंतरनाद की पीङाओं के
उसके वैभव निहार
'ईर्ष्याभरी कितनी ही आँखें
निहारती हैं उन
ऊँची खिङकियों को
जहाँ से हर सुबह शाम
दो बङी बङी डबडबायी आँखें
'टकटकी लगाये आह भर कर देखती रह
जातीं हैं पीले परागों कहकते कहकहों और
लहकते जीवनरागों को ।
हरे स्पर्शों शीतल
हवाओं और नरम मिट्टी की सौंध को एक
गहरी सांस भरने के लिये झरोखे पर आने
को विवश '
अपना अपना राग 'गाते दो ओर छोर
कहीं नदी की हवा से गीले होकर बरस
जाते हैं हर रात पुआल की ऊष्मित तृप्त
नेवाँस
और अटारी के ठंडे एकाकी रतजगे
एकांत अहसास में ।
डूबता सूरज और
उगता चांद दोनों ही मूक रह जाते हैं तब
जब हृदय से बङे हो जाते है गरिमा के
मिथक और कंठ में नहीं समातीं हिचकियाँ
©®सुधा राजे "
और बस
कहती उठ खङी होती है और सहने
और कहने की सोचकर
परंतु न तो हर बार
सब कुछ सहा जाता है ।न हर बार सब कुछ
कहा जाता है ।
और कोई कभी कब समझ
पाता है कुंदन कंचन के चमकते दमकते
चेहरों की खनकती बोली में कितने
शरबिद्ध सुर हैं
अंतरनाद की पीङाओं के
उसके वैभव निहार
'ईर्ष्याभरी कितनी ही आँखें
निहारती हैं उन
ऊँची खिङकियों को
जहाँ से हर सुबह शाम
दो बङी बङी डबडबायी आँखें
'टकटकी लगाये आह भर कर देखती रह
जातीं हैं पीले परागों कहकते कहकहों और
लहकते जीवनरागों को ।
हरे स्पर्शों शीतल
हवाओं और नरम मिट्टी की सौंध को एक
गहरी सांस भरने के लिये झरोखे पर आने
को विवश '
अपना अपना राग 'गाते दो ओर छोर
कहीं नदी की हवा से गीले होकर बरस
जाते हैं हर रात पुआल की ऊष्मित तृप्त
नेवाँस
और अटारी के ठंडे एकाकी रतजगे
एकांत अहसास में ।
डूबता सूरज और
उगता चांद दोनों ही मूक रह जाते हैं तब
जब हृदय से बङे हो जाते है गरिमा के
मिथक और कंठ में नहीं समातीं हिचकियाँ
©®सुधा राजे "
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