Monday 1 December 2014

सुधा राजे की अकविता :- विखंडित खंड।

अपने ही विखंडित खंडों को बटोरकर छू छू
कर देखने का साहस न था मुझमें इसीलिये
चुपचाप चली आई मैं बिना यह कहे
कि जा कहाँ रही हूँ और
रुकना क्यों असंभव है ।
विखंडित अस्तित्व से बार बार कुछ गढ़ने
की मेरी चेष्टा व्यर्थ ही रही क्योंकि न
मेरे पास रंग बचे थे न न सुर न ही कूची और
लेखनी तूलिका और पृष्ठ '
कुछ कण थे गीली मिट्टी के और कुछ टुकङे
बांयी पसली के ऊपरी भाग के दुखते हुये
दांये हाथ की कुछ स्पंदित उंगलियां और
स्पर्श से अनुभूति के कातर अंतर्ज्ञान
'''''बस इतने से ही उगाना था मुझे बंजर
वीरान मरुस्थल में एक पङाव भर छाँव और
एक कुनबा भर
तृप्ति '''''उंगलियाँ जो थी तृप्ति के लिये
चबायीं जाती रही और बायां आलिंद
दांया निलय अनुभूतियों के लिये
उगाता रहा हर रोज एक पङाव भर
बहाना ठहरने का ।
हर बार सारे टुकङे याद आये किंतु न मैं
लौट सकी न वे मुझ तक आ पाये '
नयी त्वचा हर घाव पर आ गयी और
अंगों की जरूरत होकर भी फिर अब
कभी जुङने की संभावना ही न रही '
न आँखें थी न पांव न हाथ न ही उदर पृष्ठ
और पूरा मस्तिष्क '
वहाँ जहाँ यादें जमा होती है उस टुकङे
को लाते लाते 'बिखर गया वह यब
वहाँ जहाँ सब भूला और 'सहेजा जाता है ।
रीते ही थे सब टुकङे और क्लोन बनकर
खङा हो गया मेरा अस्तित्व
बिना इतिहास और बिना किसी जङ के
'मुझमें
जिजीविषा भी होती तो क्यों 'दूर दूर
तक सिर्फ मैं ही मैं थी और कोई नहीं था '
दांयें या बांये आगे या पीछे हर तरफ 'मैं
घूम कर देख चुकी थी '
सपनों के कफन और अरमानों की कब्रें
बनाकर पङाव छोङ दिये मैंने 'मुझे
किसी की प्रतीक्षा न थी न
था किसी लक्ष्य को पाने का चाव '
टीसते भभकते घाव धीरे धीरे ठूँठ हो गये
और 'मैं अपना ही वजूद लिये
अपनी ही तलाश में खोजती रही बाँह भर
अँधेरा 'वक्ष भर विश्राम काँधे भर रुदन
और कंठ भर हँसी '
परंतु
हर बार मुझे मिली आँचल भर उदासी और
आकाश भर तनहाई मुट्ठी भर अहसास
लिये मैं धरती से ब्रह्माण्ड
की यात्रा करती रोज छोङ जाती अपने
बचे खुचे टुकङे 'और 'सोचती अब इनमें वापस
नहीं लौटूँगी '
मैं मरती ही नहीं थी क्योंकि मेरे इतने
टुकङे होकर 'बिखर चुके थे इतनी दूर दूर
कि मुझे समेटा नहीं जा जा सकता था ।
मैं जीवित भी नहीं हो सकती थी कि मेरे
हर टुकङे में शेष प्राण अनंत यात्रा पर
रहा कभी लौटा ही नहीं '
विराट से पूछती रही ""मैं ही क्यों "
ये पीङा ही देनी थी तो ये
चेतना क्यों दी?
निश्चेतक सारे व्यर्थ हो हो जाते '
और
जब मेरी आवाज टकरा कर शून्य से वापस
आती तो मुझे पता चलता कि मेरे पास
तो ध्वनि ही नहीं है वह केवल अहसास है
मेरा कि मैं पुकारती हूँ रोज
'किसी निराकार को मूक '
और यूँ वायपविहीन शून्य सुरविहीन
संगीत मेरी वक्ष भर तनहाई को समेट
लेता "
प्रकृति मेरे हर टुकङे को अंकुरित
करती जा रही है और मैं विलीन
होती जा रही हूँ '
कभी कुछ भी हुये बिना 'ये एकांत मुझे
'मिटने नहीं देता और ये 'शोर मुझे पनपने
नहीं देता '
मुझे थोङी सी धूप जरा सी हवा और
थोङी सी नमी चाहिये थी '
किंतु इस 'मिट्टी के नीचे कुछ
भी नहीं सिवा अनंत प्रतीक्षा के '
यहाँ न मेरा कुछ है न मैं किसी से जुङ
पा रही हूँ '
मेरे टुकङे '
कभी नहीं समेटे जा सकेगे और औऱ मेरे
रिक्त हिस्सों का कोई विकल्प
प्रकृति बनाना ही भूल
गयी उगाना ही भूल गया विराट उस
मिट्टी हवा पानी पङाव और
सहजीवी 'ब्रह्माण्ड पदार्थ को 'जिसे
मेरा होना था '
इतना अकेला तो ईश्वर भी नहीं '
यह जानने के बाद '
नक्षत्र भर हँसी और रोयी में समय भर '
मैं अमर हूँ "
न मर सकती हूँ न नष्ट हो सकती हूँ '
क्योंकि मैं
'अपनी पीङा का ही निराकार हूँ और
मूर्त रूप हूँ अपने ही प्रेम के यथार्थ
की कल्पना का '
जब सारी कल्पनायें मर जायेंगी तब मैं
'समेटी जा सकूँगी एक मुट्ठी आँसुओं में एक
आलिंगन भर स्पर्श प्रेम के बिना कोई यूँ
कैसे मर सकता है!!!!!!
©®सुधा राजे


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