अंजाने गंतव्य
प्रेम """
एक परिकल्पना
एक स्वप्न ।
एक तृषा
एक लक्ष्य
एक औत्सुक्य
एक बुभुक्षा
एक आकांक्षा कामना इच्छा अभीप्सा और आकर्षण """"""
इन सब से कुछ कुछ अलग वह एक भाव,,,,
जिसे शब्द दे पाना कहाँ इतना सहज जहाँ होश आते ही पहली जरूरत प्रेम और
पहली तृषा प्रेम नहीं अपितु रहा पीङा में डूब जाना ।
और जन्म के साथ ही जुङवा हो जैसे उस वेदना को हर पल पाले रहना ।
कल्पना के स्थूल रंग भी जहाँ तक नहीं पहुँच सकते वहाँ एक भाव भूमि पर हरा
भरा बियाबान जिसमें विचरता एक निदेह अदेह विदेह अनुभूत दर्द ।
प्रेम ही प्रेम से भरा मकरंद मन या आत्मा या प्राण ।
जिसने सदा प्रेम किया एक सुनहरे उजले असीम प्रकाश से । प्रेम ही प्रेम
किया एक परिकल्पित आकार प्रकार आभास और अनस्तित्व से ।
सब कुछ जो जो दिखता और छुआ जा सकता था से पलायित होकर मुँह फेरकर एक अनंत
आभा से बतियाता मन ही मन हर पल हर दुख सुख और संसार की हर घटना ।
प्रेम ही प्रेम से भरे उस आभासीय परिकल्पित अनस्तित्व के साथ गहरी अनुभूतियाँ ।
अकस्मात
किसी ने जगाकर कहा यही है वह स्वर्णाभा वह आलोक वह प्रकाश ।
परिकल्पना के अनुभूत अनस्तित्व को सामने वाले छुये जाते दिखते और सुनते
हुये यकीन करना कठिन लगा और मान मनाया कि यही वह है । किंतु ऐसा हो नहीं
सका ।
प्रेम ही प्रेम वह संसार वह प्रकाश ही प्रकाश वह स्वर्णाभा कांति और
विगलित एकात्मकता नहीं हो सकी साकार ।
तुम नहीं समझोगे
तुम्हारे "मैं तुम्हें प्यार करता हूँ"
कहने और मेरे ""मेरे हाँ मैं भी बहुत ""
की यात्रा के बीच कहीं पसरा सा था एक पूरा संसार ।
हाँ मुझे तुमसे प्रेम है और तुम्हें मुझसे ये मानने के बाद भी ।
आँख बंद करते ही
मैं सोचने लगती हूँ अकसर
मैंने तुम्हें वह समझकर बहुत उल्लास से प्रेम किया था किंतु तुम वही नहीं हो ।
नहीं हो वही ।
फिर भी मुझे तुमसे प्यार है यह तुम्हारा वाक्य मुझे स्वीकार है । किंतु
तुम्हें नहीं समझा सकती कि तुम्हें प्यार मैं भी करती हूँ कहने के बाद भी
कहीं वह सुनहरा नन्हा सा संसार है जहाँ एक नन्हीं सी सात साल की बच्ची के
सपने औऱ सुनहरी रौशनी से भरे कौंधते नगर में है एक अलौकिक अमूर्त मानवीय
दमकती आकारवाली छवि तुम इतने अपने कभी नहीं हो सके । मुझे तुमसे कोई
शिकायत नहीं किंतु वेदना के इस स्वर्णिम संसार में अब पूर्णतः एकाकी मैं
उस छवि को खोजने पर भी नहीं पाती हूँ और तुम वही हो ये नहीं मान पाती
हूँ।मुझे आज भी साँझ कर देती है उदास तब भी जबकि तुम होते हो बहुत पास
©®सुधा राजे
एक परिकल्पना
एक स्वप्न ।
एक तृषा
एक लक्ष्य
एक औत्सुक्य
एक बुभुक्षा
एक आकांक्षा कामना इच्छा अभीप्सा और आकर्षण """"""
इन सब से कुछ कुछ अलग वह एक भाव,,,,
जिसे शब्द दे पाना कहाँ इतना सहज जहाँ होश आते ही पहली जरूरत प्रेम और
पहली तृषा प्रेम नहीं अपितु रहा पीङा में डूब जाना ।
और जन्म के साथ ही जुङवा हो जैसे उस वेदना को हर पल पाले रहना ।
कल्पना के स्थूल रंग भी जहाँ तक नहीं पहुँच सकते वहाँ एक भाव भूमि पर हरा
भरा बियाबान जिसमें विचरता एक निदेह अदेह विदेह अनुभूत दर्द ।
प्रेम ही प्रेम से भरा मकरंद मन या आत्मा या प्राण ।
जिसने सदा प्रेम किया एक सुनहरे उजले असीम प्रकाश से । प्रेम ही प्रेम
किया एक परिकल्पित आकार प्रकार आभास और अनस्तित्व से ।
सब कुछ जो जो दिखता और छुआ जा सकता था से पलायित होकर मुँह फेरकर एक अनंत
आभा से बतियाता मन ही मन हर पल हर दुख सुख और संसार की हर घटना ।
प्रेम ही प्रेम से भरे उस आभासीय परिकल्पित अनस्तित्व के साथ गहरी अनुभूतियाँ ।
अकस्मात
किसी ने जगाकर कहा यही है वह स्वर्णाभा वह आलोक वह प्रकाश ।
परिकल्पना के अनुभूत अनस्तित्व को सामने वाले छुये जाते दिखते और सुनते
हुये यकीन करना कठिन लगा और मान मनाया कि यही वह है । किंतु ऐसा हो नहीं
सका ।
प्रेम ही प्रेम वह संसार वह प्रकाश ही प्रकाश वह स्वर्णाभा कांति और
विगलित एकात्मकता नहीं हो सकी साकार ।
तुम नहीं समझोगे
तुम्हारे "मैं तुम्हें प्यार करता हूँ"
कहने और मेरे ""मेरे हाँ मैं भी बहुत ""
की यात्रा के बीच कहीं पसरा सा था एक पूरा संसार ।
हाँ मुझे तुमसे प्रेम है और तुम्हें मुझसे ये मानने के बाद भी ।
आँख बंद करते ही
मैं सोचने लगती हूँ अकसर
मैंने तुम्हें वह समझकर बहुत उल्लास से प्रेम किया था किंतु तुम वही नहीं हो ।
नहीं हो वही ।
फिर भी मुझे तुमसे प्यार है यह तुम्हारा वाक्य मुझे स्वीकार है । किंतु
तुम्हें नहीं समझा सकती कि तुम्हें प्यार मैं भी करती हूँ कहने के बाद भी
कहीं वह सुनहरा नन्हा सा संसार है जहाँ एक नन्हीं सी सात साल की बच्ची के
सपने औऱ सुनहरी रौशनी से भरे कौंधते नगर में है एक अलौकिक अमूर्त मानवीय
दमकती आकारवाली छवि तुम इतने अपने कभी नहीं हो सके । मुझे तुमसे कोई
शिकायत नहीं किंतु वेदना के इस स्वर्णिम संसार में अब पूर्णतः एकाकी मैं
उस छवि को खोजने पर भी नहीं पाती हूँ और तुम वही हो ये नहीं मान पाती
हूँ।मुझे आज भी साँझ कर देती है उदास तब भी जबकि तुम होते हो बहुत पास
©®सुधा राजे
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